मुख्यमंत्री जी, नए साल में फुर्सत मिले तो आंगनबाड़ियों के धरने में भी हो आना!

देशभर की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता मेहनताना बढ़ाने की मांग को लेकर समय-समय पर विरोध प्रदर्शन कर रही हैं। उत्तराखंड में भी 7 दिसंबर से आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का लगातार धरना-प्रदर्शन चल रहा है। केंद्र और राज्य की योजनाओं को ज़मीन पर उतारने की ज़िम्मेदारी इन्हीं आंगनबाड़ियों के कंधों पर है।
पौड़ी के पाबौ ब्लॉक की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता रेखा नेगी राज्य की आंगनबाड़ी कार्यकत्री, सेविका, मिनी कर्मचारी संगठन की प्रदेश अध्यक्ष भी हैं। सड़क से पहाड़ी की करीब नौ किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई का सफ़र तय कर वह घर पहुंचती हैं। महीने में करीब 3-4 बार उन्हें विभागीय बैठकों के लिए मुख्यालय जाना पड़ता है। उस समय पहाड़ी पर ये खड़ी चढ़ाई उन्हें बहुत भारी पड़ती है। कभी निर्वाचन से जुड़े सर्वेक्षण कार्यों के लिए बूथ लेवल ऑफिसर यानी बीएलओ की जिम्मेदारी निभानी पड़ती है तो भी। सर्वेक्षण कार्य के लिए उन्हें 500 रुपये अतिरिक्त इंसेटिव मिलता है।
रेखा एक सामान्य आंगनबाड़ी केंद्र की कार्यकर्ता हैं। यहां उनकी मदद के लिए एक सहायिका भी है। अमूमन 600 के आसपास की जनसंख्या पर एक आंगनबाड़ी केंद्र होता है। 300 के नजदीक की आबादी पर मिनी आंगनबाड़ी केंद्र होता है, जिसमें सिर्फ एक आंगनबाड़ी होती है। रेखा बताती हैं कि सुबह बच्चों को स्कूल लाना, उन्हें पढ़ाना, उनके लिए खाना बनाना, उनका रोज़ का काम होता है। इसके लिए 9 से 12 का वक़्त मुकर्रर होता है। इसके बाद सर्वेक्षण का कोई काम आ गए, पोषण सप्ताह आ गया या केंद्र की योजनाओं से जुड़ा कोई काम, जो अक्सर होते रहते हैं, तो फिर उन सब कामों में जुट जाती हैं। उनके मुताबिक कई बार इन कामों में सुबह से रात हो जाती है। 10-10 रजिस्टर संभालना होता है। सब काम का लेखा-जोखा भी स्मार्ट फ़ोन से भेजना होता है। यदि ये नहीं किया तो उन दिन की गैरहाजिरी लग जाएगी।
स्मार्ट फ़ोन का किस्सा भी बड़ा रोचक है। पहाड़ों में नेटवर्किंग की समस्या है। रेखा कहती हैं कि कई बार हम आधे-आधे घंटे छत पर फ़ोन घुमाकर नेटवर्क ढूंढ़ते रहते हैं। फिर अब हर रोज़ फ़ोन से सेल्फी लेकर भी भेजनी होती है। इससे उनकी अटेंडेंस लगती है। ऐसा करने के लिए उन्हें महीने का 500 रुपये का एक और इंसेंटिव मिलता है। अपने क्षेत्र की गर्भवती महिलाओं की सेहत, 6 वर्ष तक के बच्चों की सेहत, यदि कोई कुपोषित बच्चा है तो उसकी अलग से देखभाल, 6 वर्ष तक के बच्चों की प्री-स्कूल एजुकेशन की जिम्मेदारी, महिला के सुरक्षित प्रसव की जिम्मेदारी, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ अभियान की जिम्मेदारी और इसके अलावा कभी-कभी वोटर कार्ड में नाम जुड़वाना या राशन कार्ड में नाम जुड़वाना, पशुगणना, जनसंख्या से जुड़े सर्वेक्षण जैसे सब कार्यों के लिए रेखा को केंद्र सरकार की ओर से 4500 रुपये प्रति माह मिलते हैं और राज्य की ओर से 3 हज़ार रुपये प्रति माह।
यानी कुल 7,500 रुपये। कम्यूनिटी को साथ लेकर कोई इवेंट कराया तो उसके भी 500 रुपये मिल जाते हैं। इसमें सेल्फी या सर्वेक्षण के पैसे भी जोड़ दें तो कभी 8 हज़ार, कभी 8,500 रुपये तक उनकी आमदनी हो जाती है। रेखा के मुताबिक उनके वर्कलोड की तुलना में ये मेहनताना बहुत कम है। कई-कई बार तो इतवार को भी उन्हें काम करना होता है।
देहरादून के परेड ग्राउंड में प्रदेशभर से जुटी आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की अगुवाई कर रही रेखा कहती हैं कि 7 दिसंबर को मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत से हमारी मुलाकात हुई तो उन्होंने विधानसभा सत्र के बाद मिलने को कहा। उसके बाद 20 दिसंबर को आंगनबाड़ियों ने मुख्यमंत्री से मिलने की कोशिश की, उस दिन मुख्यमंत्री का जन्मदिन भी था। रेखा बताती हैं कि 20 दिसंबर को मुख्यमंत्री के जन्मदिन के दिन हमारे धरनास्थल के पास पर्दे तान दिए गए ताकि वे हमें देख न सकें। दरअसल भाजपा का दफ्तर परेड ग्राउंड के ठीक बगल में है और आंगनबाड़ियों का धरना भाजपा प्रदेश मुख्यालय के ठीक बगल में चल रहा है।
रेखा कहती हैं कि विधवा, कमजोर वर्ग, विकलांग परिवार, तलाकशुदा, बीपीएल परिवार की महिलाओं को ही नियमावली के मुताबिक आंगनबाड़ी के लिए चुना जाता है। अक्सर परिवार चलाने की जिम्मेदारी उसी पर होती है। एक सहायिका को प्रतिदिन 125 रुपये का मेहनताना मिल रहा है। इतने में घर कैसे चलेगा? वह कहती हैं कि हमारी एक ही मांग है कि हमें महीने के 18 हज़ार रुपये न्यूनतम मज़दूरी दे दिए जाए, हम सब काम करने को तैयार हैं।
इससे पहले देहरादून में जुटी आंगनबाड़ी कार्यकर्ता राज्य कर्मचारी घोषित करने की मांग भी कर रही थीं। लेकिन यह कहने पर कि आप केंद्र की योजनाएं चलाती हैं इसलिए हम आपको राज्य का कर्मचारी नहीं बना सकते, वे इस बात को मान गईं।
सेल्फी और स्मार्ट फ़ोन के चलते भी कई आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को परेशान होना पड़ा। सुशीला कहती है कि मेरा स्मार्टफ़ोन खो गया। मेरी इतनी हैसियत नहीं है कि मैं दस हज़ार का स्मार्ट फ़ोन खरीद सकूं। इतना तो मुझे मेहनताना नहीं मिलता। इन मामलों के संज्ञान में आने पर अब शासन ने यह प्रावधान किया है कि फोन खोने पर एफआईआर करानी होगी या फोन खराब हो गया तो उसकी मरम्मत का खर्चा दिया जाएगा।
इसके अलावा समय पर यात्रा भत्ता न मिलने, कम्यूनिटी इवेंट कराने की सूरत में चाय-नाश्ता और अन्य इंतज़ामों का पैसा समय पर न आने जैसी समस्याएं भी हैं। फिलहाल आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं ने तय किया है कि मांगें नहीं माने जाने तक वे राज्य सरकार के कार्य नहीं करेंगी। इस दौरान उन्होंने सचिवालय पर प्रदर्शन, विधानसभा सत्र के दौरान विधानभवन का घेराव, मुख्यमंत्री आवास का घेराव, सामूहिक इस्तीफा और आत्मदाह तक की चेतावनी दे चुकी हैं।
महिला सशक्तिकरण और बाल विकास सचिव सौजन्या बताती हैं कि उत्तराखंड में कुल 22,076 सामान्य और मिनी आंगनबाड़ी केंद्र हैं। इनमें 14 हज़ार सामान्य केंद्र हैं बाकी मिनी केंद्र। इन केंद्रों पर 37 हजार से अधिक आंगनबाड़ी, मिनी आंगनबाड़ी और सहायिकाएं काम कर रही हैं। आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के मानदेय बढ़ाने की मांग पर वह तुलना करती हैं कि हिमाचल में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता को 4,750 रुपये मिलते हैं, पंजाब में 6,600, उत्तर प्रदेश में 5,500 रुपये मिल रहे हैं जबकि उत्तराखंड में 7,500 रुपये दिए जा रहे हैं। उनके मुताबिक न्यूनतम मज़दूरी आठ घंटे कार्य कर रहे कर्मचारियों के लिए है। जबकि आंगनबाड़ियों को सुबह 9-12 बजे तक काम करना होता है।
इसके अलावा चुनाव से जुड़ा कोई कार्य हो तो उसके लिए बूथ लेवल ऑफिसर के कार्य के मुताबिक अलग से मानदेय मिलता है। यात्रा भत्ता उन्हें थोड़ा देर से ही लेकिन उपलब्ध करा दिया जाता है। सौजन्या कहती हैं कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता केंद्रों पर पहुंचती ही नहीं थीं और 5 तारीख को जब फूड पैकेट बांटने होते थे, तो वो बांट कर चली आती थीं। इसीलिए सेल्फी से अटेंडेंस लगाने की व्यवस्था शुरू की गई। इसके लिए आंगनबाड़ी कार्यकर्ता को 500 रुपये और सहायिका को 250 रुपये हर महीने दिए जाते हैं।
वर्ष 2019-20 के अंतरिम बजट में आंगनबाड़ी सेवाओं के लिए आईसीडीएस (इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेस) के तहत सिर्फ 19,834.37 करोड़ रुपये दिए गए। पिछले वित्त वर्ष की तुलना में यह सिर्फ 1944.18 करोड़ रुपये अधिक था। जबकि इससे पहले प्रधानमंत्री आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के मानदेय बढ़ाने का वादा कर चुके थे।
वर्ष 1975 में आंगनबाड़ी योजना शुरू की गई थी। उस समय से ही वे खुद को राज्य का कर्मचारी घोषित करने की मांग कर रही हैं। उस समय से अब तक करीब 43 वर्षों में वे पांच हज़ार या 6-7-8 हज़ार जैसे मानदेय पर कार्य कर रही हैं। इतने समय में महंगाई दर, या रुपये की कीमत, प्याज़ की कीमत, पेट्रोल की कीमत कहां से किधर चल गई।
तो जो आंगनबाड़ी कार्यकर्ताएं केंद्र और राज्य सरकार की कई हज़ार करोड़ों की योजनाएं चलाती हैं, शासन-प्रशासन के मुताबिक दस हज़ार के भीतर का वेतन उनके लिए पर्याप्त है, इसमें वो खूब मजे से जीवन गुजार सकती हैं।
आंगनबाड़ी कार्यकर्ता नारे लगाती हैं- होश में तुमको आना होगा....वरना तुमको जाना होगा...।
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