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कोविड-19 : मानसिक रूप से बीमार लोगों के इलाज में नीति और व्यवहार में फ़र्क़

समूचे भारत में ऐसे बेशुमार मामले मिल जाएंगे जिनके बारे में आंकड़ों का बेहद अभाव है और जिसका परिणाम हमारी जानकारी और रोगों की चिकित्सा के प्रबंधन में एक गंभीर अंतर के रूप में सामने आता है
कोविड-19 : मानसिक रूप से बीमार लोगों के इलाज में नीति और व्यवहार में फ़र्क़
केवल प्रतीकात्मक उपयोग के लिए। चित्र का स्रोत:  दि फेडरल न्यूज 

कोविड-19 जबकि एक ऐसी समस्या है, जो हर चेहरे को घूरती मिल रही है, लेकिन इस समय मानसिक स्वास्थ्य को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जा रहा है। दिल्ली की एक लड़की ने कोरोना से पीड़ित अपने चाचा के इलाज में आने वाले पीड़ादायक अनुभवों के बारे में बताया। उसके चाचा पिछले कुछ सालों से खंडित मनस्कता (स्किट्सअˈफ़्रीनीअ/) के मरीज रहे हैं। जब वे कोरोना से संक्रमित हुए तो परिवार के लोगों ने मर्ज के और बेकाबू होने के डर से अस्पताल में भर्ती होने पर जोर दिया। हालांकि वह ना-नुकुर करते रहे।

जब जांच के स्तर पर ही दिक्कत बढ़ने लगी तो उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। वहां उनके स्वाब का सेंपल लेना ही बहुत कठिन हो गया लेकिन डॉक्टरों ने किसी तरह इस काम को किया। जांच में पॉजिटिव आने पर उन्हें कोविड वार्ड में दाखिल कर दिया गया। उनके ऑक्सीजन के सेचुरेशन  लेवल में कमी को देखते हुए तुरंत ही ऑक्सीजन दिए जाने की जरूरत थी। हालांकि इसके आगे कई परेशानियां अभी बाकी थीं। वह वार्ड में रहते हुए अक्सर बेचैन हो जाते-कभी-कभार हिंसक भी हो उठते, ऑक्सीजन मॉस्क को हटा देते और यदाकदा किसी को अपने पास नहीं आने देते। उनके इन रवैये को देख कर डॉक्टर पसोपेश में थे। लगभग एक-डेढ़ घंटे की मशक्कत के बाद वे किसी मनोचिकित्सक को बुलाकर उन्हें दिखाने में कामयाब हो सके। उनकी दशा बिगड़ती गई और बाद में उन्हें एम्स में रेफर कर दिया गया, जहां ऑक्सीजन सेचुरेशन लेवल और भी नीचे आ गया। 

 उन्होंने कहा, “इस एक मामले के अलावा, मानसिक रूप से बीमार लोगों के कोरोना से संक्रमित होने के अनेक मामले सामने आए हैं और उनका इलाज एक मुश्किल कवायद बन गया है। गंगाराम अस्पताल की वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉक्टर अनिता महाजन ने न्यूजक्लिक से बातचीत में कोविड वार्ड में ऐसे मरीजों के बारे में बताया। “हमारे अस्पताल में अच्छी बात यह है कि जब कभी कोई डॉक्टर कोविड वार्ड में भर्ती मरीज में मनोविकार के लक्षण पाते हैं, वे तुरंत हमें बुलाते हैं।” 

ऐसा ही एक मामला आया जिसमें बिगड़ी समझदारी और याददाश्त कमजोर वाला मरीज कोरोना से संक्रमित हो गया था। उसके कोविड वार्ड में भर्ती कराया गया था। डॉ महाजन कहती हैं कि उसके मर्ज के लिए दवा शुरू करने में हमें काफी वक्त लगा। “मानसिक रूप से बीमार लोगों से निबटना एक बेहद संवेदनशील काम है और इसके लिए एक मनोचिकित्सक की जरूरत होती है।” उन्होंने यह भी कहा कि कोविड वार्ड के भीतर का वातावरण भी बड़ा असामान्य होता है। डॉक्टर और नर्सेज पीपीई किट्स पहने होते हैं और वहां की पूरी स्थिति बहुत यांत्रिक (रोबोटिक) लगती है। “यहां तक कि एक आम मरीज भी इस माहौल में अपने को असामान्य महसूस करने लगता है; ऐसे में जरा कल्पना कीजिए जो लोग मानसिक रूप से बीमार हैं, उन पर क्या बीतती है। हमें यह भी याद रखने की जरूरत है कि मानसिक रोगी समरूप नहीं होते हैं और उस जैसी स्थिति में उनका व्यवहार उनकी मानसिक बीमारी की दशा के मुताबिक हो सकता है,” उन्होंने समझाया।

उन्होंने कहा, “हालांकि इस बारे में एक गाइडलाइन है, जिसे नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ (निमहांस) ने मानसिक रोगियों के कोरोना संक्रमित हो जाने पर उनके इलाज के तौर-तरीकों के बारे में तैयार किया है। पर इस बारे में अधिक ब्योरे और विशेष गाइडलाइन की जरूरत है।” 

उसी विभाग की रेजिडेंट डॉ निकिता धूत ने भी कुछ इस तरह के अनुभव बताए। उन्होंने न्यूजक्लिक से कहा कि ऐसे मरीज के लिए अचूक दवा तय करने में एक डॉक्टर को कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। “उदाहरण के लिए, एक ऐसा मरीज जिसको कोविड-19 के संक्रमण के चलते सांस की दिक्कत बढ़ गई हो, उसके लिए मानसिक बीमारी की दवा देना बड़ा मुश्किल भरा फैसला हो जाता है। हमें दवाओं के चयन में अति सावधानी की जरूरत होती है,” उन्होंने यह कहते हुए इसका भी उल्लेख किया कि ऐसे मरीजों के लिए दवाओं को चुनने की भी एक सीमा है।

पूरे भारत में ऐसे मामले बेशुमार होंगे पर उनके बारे में डेटा का भारी अभाव है, जिसका नतीजा जानकारी एवं रोगों के इलाज की समुचित व्यवस्था में एक गंभीर फांक के रूप में हमारे सामने आता है। यह भी मालूम पड़ता है कि ऐसे मरीज के साथ निमहांस की गाइडलाइंस के मुताबिक इलाज पर भी चुप्पी है, जिसका एक ही मामले में उपयोग किया जा रहा है। 

इहबास (इंस्टिट्यूट ऑफ ह्यूमैन बिहेवियर एंड एलाएड साइंस), दिल्ली के निदेशक डॉ निमेष देसाई ने न्यूजक्लिक से कहा कि खास तरह के इलाज के बारे में गाइडलाइंस के अलावा अन्य बड़े मुद्दे हैं। वह यह कि ऐसे कई लोग अस्पताल या मनोचिकित्सा के केंद्र पर नहीं आते हैं, जब उनकी आवाजाही पर प्रतिबंध लगा दिए जाते हैं या अन्य उपायों के जरिए इसकी रोकथाम की जाती है। इसका उन लोगों के लिए परिणाम यह होता है कि इस दौरान उनकी दवाएं छूट जाती हैं और जिससे उनकी बीमारी फिर से वापस लौट आती है।

उन्होंने आगे कहा “मानसिक स्वास्थ्य एक अति उपेक्षित क्षेत्र है और इससे जूझ रहे लोगों के बारे में समाज का रवैया लांछित करने वाला है। यही रवैया हमारे यहां नीतियों के निर्माण में भी दिखता है।” इहबास और अन्य संस्थान, उदाहरण के लिए निमहांस, के पास मानसिक रोगियों के कोविड-19 संक्रमित होने की स्थिति में उनके इलाज के प्रावधान हैं।उनका मानना है कि इसके साथ कुछ केंद्रों एवं अस्पताल भी हैं, जहां उनकी देखभाल की जा रही है। हालांकि उनकी संख्या बहुत कम हैं।” 

डॉ देसाई ने मानसिक मरीजों का प्राथमिकता के स्तर पर टीकाकरण न किए जाने में नीतिगत अंतर को भी रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि इंडियन साइकेट्रिक सोसायटी ने केंद्र सरकार के पास ऐसे मरीजों के जल्द टीकाकरण के लिए अपने सुझाव भेजे हैं। लेकिन, दुर्भाग्यवश, इस प्रस्ताव पर अमल नहीं किया गया, इसकी क्या वजह हो सकती है, इसकी मुझे जानकारी नहीं है।”

डॉ देसाई ने यह भी कहा कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) की एक एडवाइजरी आठ अक्टूबर 2020 को प्रकाशित की गई थी। 'ह्यूमैन राइट्स एडवाइजरी ऑन राइट्स टू मेंटल हेल्थ इन कॉन्टेक्सट ऑफ कोविड-19' शीर्षक से प्रकाशित एडवाइजरी में मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल और कोविड-19 के इलाज के लिए अनेक सुझाव दिए गए थे। हालांकि, उन सुझावों पर कहीं अमल होता दिख नहीं रहा है। 

उन्होंने कहा कि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि मानसिक समस्या से पीड़ित लोगों को ओपीडी एवं इमरजेंसी सेवाएं लगातार उपलब्ध होती रहें। इहबास ने महामारी के बीच भी इन सेवाओं को कभी निलंबित नहीं किया है ताकि मानसिक समस्याओं से जूझ रहे लोगों को दवाएं जारी रखी जाए और उनका उपचार करते रहा जाए। 

निमहंस ने भी अपने यहां ऐसे मरीजों के कोविड-19 के भी इलाज के एक तरीका ईजाद किया है। यहां के एक मनोचिकित्सक डॉ सिडनी मोइरंगथेम ने न्यूजक्लिक से कहा कि वे मानसिक समस्या के साथ कोविड-19 के लक्षण वाले मरीज को पास के कोविड केयर सेंटर या अस्पताल में भेज देते थे। यह सिलसिला गत साल तक जारी था। हालांकि अधिकतर मामलों में, मरीजों को वापस निमहांस भेज दिया जाता था, जब उनसे निबटने में अन्य स्वास्थ्य केंद्रों के डॉक्टर को समस्या हो गई।

 डॉ मोइरंगथेम कहते हैं, “इस साल से हम लोग कोविड की चिकित्सा सुविधा-सेवाएं खुद निमहंस में ही शुरू कर दिया है। हमने वायरल संक्रमण के बारे में ट्रेनिंग देना शुरू किया है और हम कोविड-19 से अब काफी हद तक बेहतर तरीके से निपट सकते हैं। हालांकि, यदि अधिक समस्याएं होती हैं तो हम तत्काल पल्मोनोलॉजिस्ट और एनेस्थेसियोलॉजिस्ट जैसे विशेषज्ञों को बुलाते हैं।  हम कोविड का उपचार करने वाले अन्य केंद्रों के हेल्थ वर्कर्स को भी जहां तक संभव है, मानसिक रोगियों के इलाज में सहायता देने की कोशिश कर रहे हैं। हम वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग भी करते हैं और उनकी सहायता के लिए अन्य माध्यमों का सहारा लेते हैं। बेहतर होगा, अगर निमहंस में अमल में लाए जा रहे इन तरीकों को आगे राष्ट्रीय नीति के स्तर पर शामिल किया जाता। हालांकि, इसके लिए बहुत काम करना होगा और अधिक परीक्षण की जरूरत पड़ेगी। लेकिन, यह असंभव नहीं है।”

दिल्ली के अम्बेडकर विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की प्रो. हनी ओबराय वैश्विक महामारी के दौरान मानसिक स्वास्थ्य पर स्पष्ट चुप्पी को लेकर अपनी पीड़ा जाहिर करती हैं। 

प्रो. ओबराय कहते हैं, “यह वास्तव में बहुत दुखद और त्रासदी का समय है। हम जबकि कोविड से तीन लाख लोगों की मौत की समस्या से जूझ रहे हैं, लेकिन वास्तविकता यह भी है कि भारत एक ऐसा देश है, जहां सालाना खुदकुशी दर सबसे अधिक है। प्रति वर्ष लगभग 3,50,000 लाख लोग आत्महत्या कर लेते हैं। जहां तक मानसिक समस्या का संबंध है, इससे पीड़ितों की गिनती लगभग असंभव है क्योंकि हर छह में से चार लोग अपने जीवन में किसी समय एक या अधिक बार मानसिक स्वास्थ्य संकट या टूटन से गुजरते हैं। तिस पर भी, मनोवैज्ञानिक देखभाल और मानसिक स्वास्थ्य प्राथमिकता में सबसे निचले बिंदु पर है।”

 प्रो. ओबराय आगे बताते हैं, “पिछले साल से ही मनोवैज्ञानिक टूटन, चिंता, अवसाद और दर्दनाक आघातों में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। जिन लोगों को कभी मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं से जूझना नहीं पड़ा है, वे भी अभी संकट से गुजर रहे हैं और मदद मांग रहे हैं। जिन लोगों के मानसिक स्वास्थ्य का पहले से इलाज चल रहा था, उनकी बीमारी फिर से पलट गई है और मानसिक टूटन (साइकोटिक ब्रेकडाउन), लगातार उन्मत्त अवसाद (मैनिक डिप्रेसिव एपिसोड) और अवसाद (डिप्रेशन) के शिकार मरीज की तो गिनती नहीं है। महामारी के दौरान इन मरीजों को मदद के लिए पहुंचने में अतिरिक्त कठिनाइयां उठानी पड़ी हैं। उनके परिवार के भीतर और यहां तक कि प्रोफेशनल दायरे में समर्थन पाने में दिक्कतें होती रही हैं।” 

इन लोगों के लिए एक अलग वार्ड बनाने की आवश्यकता के बारे में प्रो ओबराय ने कहा: “मुझे नहीं पता कि केवल गंभीर रूप से परेशान मरीजों– मानसिक प्रकरण (साइकोटिक एपिसोड)  या पागलपन के लक्षण (पैरानॉयड सिम्प्टमटालजी) वाले मरीजों को छोड़ कर बाकी मानसिक रोगियों के लिए एक अलग वार्ड बनाने की जरूरत है या नही । यह बात जरूर है कि वैसे तो सभी की मानसिक देखभाल के लिए चिकित्सा क्षेत्र में व्यापक संवेदनशीलता बरतने की जरूरत है, लेकिन उनके लिए विशेष रूप से, जो मानसिक बीमारी के पूर्व निदान से जूझ रहे हैं।” 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें.

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