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कोविड-19: कैसे और क्यों इस महामारी की जंग भारत हार रहा है

देश में इस महामारी के देर से दाखिल होने और देश की युवा आबादी के बावजूद, कई मामलों में भारत कोरोनोवायरस के ख़िलाफ़ लगातार लड़ाई हारता जा रहा है।
कोविड-19

यह कहना बड़ा आम हो गया है कि अपनी विशाल आबादी को देखते हुए भारत अमेरिका या यूरोप के मुक़ाबले बहुत बेहतर कर रहा है। उसी अंदाज़ में आधिकारिक तौर पर कुल पुष्ट मामलों (29 अगस्त को 34 लाख से ज़्यादा, 31 अगस्त को 36 लाख से ज़्यादा) और कुल मौतों (29 अगस्त क़रीब 63,000, 31 अगस्त 64 हज़ार 469) की चौंकाने वाली उच्च संख्या को बताये जाने की कोशिश चल रही है। इन दोनों ही मामलों में भारत विश्व स्तर पर अमेरिका और ब्राजील के बाद तीसरे स्थान पर है।

हालांकि, यह तुलना वास्तव में ठीक नहीं है। भारत की तुलना अमेरिका और यूरोप से नहीं,बल्कि दुनिया के उन क्षेत्रों से की जानी चाहिए,जहां आबादी की उम्र, आर्थिक मानक और स्वास्थ्य देखभाल की पहुंच समान है। इस तरह की तुलना से ही यह पता चलता है कि वास्तव में भारत अन्य विकासशील देशों के मुक़ाबले काफ़ी खराब प्रदर्शन कर रहा है।

समान समूह के साथ तुलना

आइये,हम आबादी के अनुपात में संक्रमण के मामलों और इससे होने वाली मौतों के साथ इस तुलना की शुरुआत करें। यह कोविड के ख़िलाफ़ किसी देश के प्रदर्शन का एक बेहतर मापन है, क्योंकि देश-वार आबादी काफ़ी अलग-अलग होती है और ऐसे में यूनाइटेड किंगडम (क़रीब सात करोड़) या स्वीडन (क़रीब एक करोड़) के साथ भारत (138 करोड़ की आबादी) की तुलना करना ठीक नहीं है।

आबादी को समायोजित करने वाला सामान्य और स्वीकृत तरीक़ा प्रति 10 लाख (एक मिलियन) जनसंख्या के संक्रमण मामलों और इससे होने वाली मौतों की गणना करना है। नीचे दिये गये चार्ट में बायीं तरफ़ की सूची में संक्रमण के मामलों की संख्या और दाहिनी तरफ़ होने वाली मौतों की संख्या को दिखाया गया है, दोनों को प्रति मिलियन में दिखाया गया है। यह आकड़ा वर्ल्डोमीटर (Worldometers’) वेबसाइट से दिये गये 213 देशों / क्षेत्रों से जुटाया गया है।

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प्रति मिलियन जनसंख्या में संक्रमण के मामले: इस लिहाज से भारत की 2,454 की यह संख्या यूरोप की आधी है, उत्तरी अमेरिका का छठा भाग और दक्षिण अमेरिका का क़रीब सातवां भाग है। ज़ाहिर है, भारत इन तीन क्षेत्रों के मुक़ाबले कहीं बेहतर कर रहा है। लेकिन,वास्तविक तुलना तो एशिया और अफ़्रीका के साथ किये जाने की ज़रूरत है। इसे ऊपर दिये गये चार्ट में देखा जा सकता है- भारत की हालत पूरे एशिया (1,453 मामले प्रति मिलियन) और अफ़्रीका के मुकाबले 2.5 गुना ज़्यादा ख़राब है। ये ऐसे क्षेत्र हैं, जहां के देशों के प्रति व्यक्ति जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद), औसत आयु, ग़रीबी और भूख के स्तर और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच भारत के समान हैं।

अगर सही मायने में प्रति मिलियन मामलों में एशिया और अफ़्रीका के इन 106 देशों को ऊपर से नीचे तक श्रेणीबद्ध किया जाये,तो भारत की स्थिति बहुत ख़राब दिखायी देती है और भारत 80वें पायदान पर आ जायेगा।

प्रति मिलियन जनसंख्या में मृत्यु दर: इस मामले में भारत की स्थिति उतनी बुरी तो नहीं है। प्रति मिलियन 45 मौतों के साथ भारत उस यूरोप के मुक़ाबले बहुत बेहतर है, जिसकी यह दर 277 है, जबकि उत्तर और दक्षिण अमेरिका दोनों का यह आंकड़ा लगभग 10 गुना ज़्यादा हैं। लेकिन, जब आप भारत की एशिया और अफ़्रीका से तुलना करते हैं, तो असली तस्वीर एक बार फिर सामने आ जाती है: प्रति मिलियन एशियाई मृत्यु दर महज़ 30 है, जबकि अफ़्रीका की यह दर उससे भी कम 21 है। सभी एशियाई और अफ़्रीकी देशों की रैंकिंग में भारत इन 106 देशों में से 76वें पायदान पर है।

पड़ोसी देशों के साथ तुलना

महामारी का मुकाबला करने की भारत की क्षमता अपने निकटवर्ती पड़ोसियों के मुक़ाबले और भी ख़राब दिखायी देती है। प्रति मिलियन मामले में चीन (59); पाकिस्तान (1,332); बांग्लादेश (1,860); नेपाल (1,248); श्रीलंका (139); और अफ़ग़ानिस्तान (976), इस मामले में भूटान और मालदीव को शामिल नहीं किया गया है, क्योंकि उनकी आबादी बहुत ही कम हैं।

इसी तरह, इन देशों में प्रति मिलियन मौत के मामले में चीन (3); पाकिस्तान (28); बांग्लादेश (25); नेपाल (7); श्रीलंका (0.6); और अफ़ग़ानिस्तान (36) की तुलना में भारत की स्थिति बदतर है।

इसके पीछे का कारण

इस बात को निर्धारित करने में कई कारक काम करते हैं कि भारत इस समय कुछ विकसित देशों की तुलना में बेहतर, लेकिन एशिया और अफ़्रीका की तुलना में बदतर क्यों है। उत्तरी अमेरिका, यूरोप और यहां तक कि दक्षिण अमेरिका के साथ तुलना इसलिए ठीक नहीं है, क्योंकि कोरोनोवायरस ने एशिया (चीन को छोड़कर) और अफ़्रीका की तुलना में इन क्षेत्रों को बहुत पहले (फ़रवरी-मार्च में) ही अपनी चपेट में ले लिया था।

स्पष्टता के लिए नीचे दिये गये चार्ट एक महीने के अंतराल पर लिये गये साप्ताहिक नये मामलों के आधार पर एशिया, अफ़्रीका, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में फैले महामारी की बढ़ोत्तरी को दर्शाता है। इनके आंकड़े ‘आवर वर्ल्ड इन डेटा’ नामक पोर्टल से लिये गये हैं, जिसकी तुलना यूरोपीय सीडीसी (सेंटर फ़ॉर डिसीज कंट्रोल) डेटा से की गयी है।

ग़ौर करें कि यह महामारी किस तरह यूरोप को फ़रवरी में ही अपनी चपेट में ले लेती है और उत्तरी अमेरिका में यह थोड़ी देर बाद पहुंचती है। इन दोनों ही क्षेत्रों में अप्रैल के मध्य तक एशिया और अफ़्रीका के मुक़ाबले संक्रमण के मामले ज़्यादा होते हैं।

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एशिया में संक्रमण के मामले में लगातार तेज़ी आ रही है, जिनमें कभी कोई तीव्र ढलान नहीं देखी गयी है और कभी कोई सपाट रेखा भी नहीं मिली है। जून के अंत तक उत्तरी अमेरिकी और एशियाई मामलों में इसी तरह की छलांग के साथ साप्ताहिक बढ़ोत्तरी देखी जा रही है, जबकि यूरोप में संक्रमण के मामलों में गिरावट देखी जा रही है। अफ़्रीकी मामले बहुत ही कम हैं, फिर भी जुलाई के अंत तक लगातार बढ़ोत्तरी देखी गयी है,जिसके बाद एक आश्चर्यजनक गिरावट आयी है।

साफ़ तौर पर कोरोनोवायरस एशिया (चीन को छोड़कर) और अफ़्रीका में बाद में फैलता है और यह बढ़ता ही जा रहा है। चीन में मार्च के बाद मामलों की संख्या में गिरावट आती है, फिर भी एशियाई मामलों में वृद्धि जारी है, क्योंकि भारत में इसकी घातकता बढ़ती ही जा रही है। उत्तरी अमेरिका में जून और जुलाई में इसकी दूसरी लहर आती है, जबकि यूरोप इस समय इसकी दूसरी लहर से गुज़र रहा है। ख़ास तौर पर भारत के चलते एशिया में यह बढ़ोत्तरी जारी है।

इसलिए, भारत की उत्तरी अमेरिका और यूरोप के साथ तुलना अतार्किक है। वायरस ने अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग समय पर चोट की है, और इसमें हुई फिर से बढ़ोत्तरी को भी इसी तरह से देखा जा सकता है।

इसके अलावा, जनसंख्या आयु भी एक प्रमुख कारक है। भारत की औसत आयु 28 वर्ष है, यानी आधी आबादी इस उम्र से भी कम है। इसकी तुलना यूरोप (42.7 वर्ष), अमेरिका (38.3 वर्ष) और यूके (40.8 वर्ष) से करें। कम विकसित देशों (चीन को छोड़कर) की औसत आयु 26 वर्ष है, जबकि ज़्यादा विकसित देशों की औसत आयु 42.1 वर्ष है। शायद यही वजह है कि यूरोप और उत्तरी अमेरिका की ज़्यादा उम्रदराज़ आबादी के मुक़ाबले एशिया और अफ़्रीका में कोविड -19 के चलते होने वाली मौतें कम हैं।

तो फिर भारत में महामारी क्यों इतनी बुरी तरह से बढ़ रही है ?

देश में महामारी के देर से दाखिल होने और देश में नौजवान आबादी होने के बावजूद भारत लगातार महामारी के ख़िलाफ़ लड़ाई में अपनी पकड़ खोता जा रहा है। इसकी वजह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली भारत सरकार की ओर से बिना सोचे-समझे और बेरहमी के साथ इस महामारी से निपटने की शैली है।

एक रात पहले महज़ चार घंटे की नोटिस पर 25 मार्च से विध्वंसात्मक तरीक़े से लॉकडाउन का विचार करने और फिर उसे लागू कर देने; कम आय और नगण्य बचत वाली विशाल आबादी की ज़रूरतों पर ग़ौर नहीं फ़रमाने; ठोस ज़मीनी काम के बजाय नाटकीय ऐलानों और उपदेश देने की शैली वाला रवैया; राजनीतिक फ़ायदे के लिए महामारी के इस्तेमाल और बड़े-बड़े अमीरों को रियायत देने की ज़बरदस्त लगन; स्वास्थ्य सुविधाओं पर ग़ौर किये जाने की कमी; संपूर्ण सत्ता के केंद्रीकरण की कोशिश और पैसे ख़र्च करने में मुट्ठी को कड़ा कर लेने; और राज्य सरकारों की मदद नहीं करने जैसे तमाम कारण ने इस बदहाली को आगे बढ़ाने में अपनी भूमिका निभायी है।

ऊपर गिनाये गई तमाम वजह से देश में इस महामारी ने न सिर्फ़ तबाही मचायी है, बल्कि अर्थव्यवस्था भी तेज़ी से गोता लगा रही है। इसके साथ ही अगले साल आर्थिक विकास के 10.5% तक घट जाने का अनुमान है। यह एक दोहरी मार है और लोग इसे बेहद दर्द के साथ सहन करते जा रहे हैं।

हालात अभी और बदतर होने वाले हैं,क्योंकि महामारी का ख़ात्मा अभी कोसों दूर है!

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

COVID-19: How and Why India is Losing the Battle

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