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ग्रामीण भारत में कोरोना-21: बिहार के बक्सर में कृषि बुरी तरह प्रभावित

जहां बक्सर में बाहर से लौट रहे प्रवासियों को संदेह की नज़रों से देखा जा रहा है वहीं किसानों को समझ नहीं आ रहा कि खेतों में खड़ी फसल की बिक्री वे कैसे करें और अगले सीजन की फसल के लिए खेत तैयार कैसे करें।
ग्रामीण भारत
प्रतीकात्मक तस्वीर

यह इस श्रृंखला की 21वीं रिपोर्ट है जो कोविड-19 से संबंधित नीतियों के चलते ग्रामीण भारत के जीवन पर पड़ रहे प्रभावों की तस्वीर पेश करती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा जारी की गई इस श्रृंखला में विभिन्न विद्वानों की रिपोर्टों को शामिल किया गया है, जो भारत के विभिन्न गांवों का अध्ययन कर रहे हैं। ये रिपोर्ट उनके अध्ययन में शामिल गांवों में मौजूद लोगों के साथ हुई टेलीफोनिक साक्षात्कार के आधार पर तैयार की गई है। इस लेख में खेतीबाड़ी पर निर्भर बिहार के बक्सर ज़िले पर लॉकडाउन के चलते पड़े प्रभाव की चर्चा की गई है जहां एक तरफ तो वापस लौट रहे प्रवासियों को संदेह की नज़रों से देखा जा रहा है तो वहीँ दूसरी ओर किसान अपनी रबी की फसल को बेच पाने और अगले सीजन की तैयारी को लेकर चिंता में डूबे हुए हैं।

मुरारपुर, चंदूदेहरा और गरहिया गांव बिहार के बक्सर ज़िले के दो समीपवर्ती ब्लॉकों इतरही और नवानगर में स्थित हैं। जहां पहले वाले दो गांव इतरही ब्लॉक में पड़ते हैं और एक दूसरे से सटे हैं, वहीं गरहिया नवानगर ब्लॉक में पड़ता है। इतरही और नवानगर नामके ये दोनों ब्लॉक इस क्षेत्र में जलोढ़ (कछार) क्षेत्र का हिस्सा हैं और ज़िले के दक्षिणी ब्लॉक में पड़ते हैं। इतरही में कुल 160 गांव और पंद्रह पंचायत हैं जबकि नवानगर में 104 गांव और सोलह पंचायत हैं।

जहां तक बिहार के अधिकांश अंदरूनी हिस्सों की बात ऐसे में कहा जा सकता है इस ज़िले में भी शहरीकरण काफ़ी कम देखने को मिलता है। ज़िले में शहरी आबादी का हिस्सा मात्र 9.7% ही है और ज़िले की कुल ग्यारह ब्लॉकों में से नौ ब्लॉक पूरी तरह से ग्रामीण क्षेत्र हैं जिनमें एक शहर तक नहीं है। प्राकृतिक संरचना और आर्थिक गतिविधियों के लिहाज से ये सभी ग्रामीण ब्लॉक क़रीब क़रीब एक जैसे हैं। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि खेतीबाड़ी यहां की मुख्य आर्थिक गतिविधि का हिस्सा है, जिसमें अनाज और दालें यहां की मुख्य उपज हैं।

बक्सर राज्य का प्रमुख गेहूं उत्पादक ज़िला है और 2012-13 के (बिहार सरकार के अर्थशास्त्र और सांख्यिकी निदेशालय, आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट 2015-16) आधार पर कुल भौगोलिक क्षेत्र के 82.7% में इसे बोया जाता है। हालांकि जब से लॉकडाउन लागू हुआ है तब से यहां के गांवों में कोई ख़़ास ग़ैर-खेतिहर काम के अवसर नहीं पैदा हो सके हैं। मनरेगा से संबंधित कार्य मुरारपुर और चंदूदेहरा में चल रहे थे लेकिन अब वे भी बंद कर दिए गए हैं।

खेती की स्थिति

कई अन्य आर्थिक गतिविधियों के विपरीत, खेती के काम-काज के लिए मज़दूरों को अपने-अपने घरों से निकलकर बाहर जाना पड़ता है और यह काम भी सीजन के हिसाब से ही मिलता है। वैसे तो रबी की मुख्य फसल यहां गेहूं ही है, लेकिन सरसों, आलू, दाल और पुदीना की भी खेती की जाती है। अप्रैल की शुरुआत में खेतों में गेहूं और सरसों की फसल कटने के लिए तैयार थी, जबकि चना और मसूर जैसी दालें मुसलाधार बेमौसम बारिश के कारण बर्बाद हो गई थीं। बारिश का होना मार्च के मध्य तक जारी था। किसानों का कहना था कि इस सीजन में चने और दाल को काफ़ी नुकसान पहुंचा है इसलिए उनके पास बेचने के लिए कुछ भी शेष नहीं है। वे अप्रैल के पहले सप्ताह में गेहूं की फसल काटने पर विचार कर रहे थे क्योंकि कटाई में किसी भी प्रकार की देरी अगले सीजन की तैयारी को प्रभावित कर सकती है।

हाल के वर्षों में पुदीना ही वह एकमात्र नक़दी फसल है, जिसकी खेती इस मौसम में की जाती है। लेकिन इसे केवल छोटे से भूभाग में कम मात्रा में ही उगाया जाता है, और इसका प्रचलन विशेषकर बड़े भू-मालिकों के बीच सीमित है। गेहूं के फसल की कटाई के बाद, खेतों में आग लगा दी जाती है और उसे छोड़ दिया जाता है जबतक कि अगली फसल की तैयारी शुरू करने का समय न हो जाए। ज़िले में साल में दो फसल उगाने का चलन है, रबी के सीजन में गेहूं और खरीफ के सीजन में धान की खेती की जाती है, साथ में दलहन, तिलहन और आलू की भी खेती करने का चलन है।

रबी फसल की कटाई

देश के इस हिस्से में गेहूं की कटाई का काम क़रीब-क़रीब मशीनों से होता है, इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि आप भूस्वामी हो या छोटे-मोटे काश्तकार, दोनों ही अब मशीन से कटाई और थ्रेशिंग पर निर्भर हैं। हर एक पंचायत में कुछ ऐसे स्थानीय जमींदार मौजूद हैं जिनके पास खुद के हार्वेस्टर हैं, जिन्हें आम तौर पर इस दौरान भाड़े पर इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि इन मशीनों के ऑपरेटर, जिनमें इसके ड्राईवर, तकनीशियन और मशीनों की रिपेयरिंग करने वाले लोग शामिल हैं, वे इस सीजन के दौरान पंजाब से मंगाए जाते हैं और इन लोगों की नियुक्ति की जिम्मेदारी मशीन मालिकों की होती है। लेकिन लॉकडाउन के चलते ये लोग अभी तक बिहार नहीं आ सके हैं, और इस वजह से गेहूं की कटाई में देरी हुई है। यह एक चिंता का विषय है।

इस बीच कुछ किसानों ने महिला मज़दूर लगाकर सरसों की फसल की कटाई शुरू कर दी थी। इस तरह के काम के लिए दी जाने वाली मज़दूरी कुल फसल का दसवां हिस्सा होता है।

फसलों के भंडारण का प्रश्न

अब चाहे भले ही देर-सबेर से गेहूं की कटाई हो भी जाये तो इसके बाजवूद फसल के भंडारण की समस्या किसानों के लिए नई मुसीबत बनी हुई है। भंडारण सुविधाएं होती तो किसान बाद में अच्छे दामों पर अपनी उत्पाद बेच सकते, लेकिन किसानों की शिकायत है कि प्रशासन ने कटाई और भंडारण जैसे उनके प्रमुख मुद्दों पर समुचित ध्यान नहीं दिया। समूचे गांव, पंचायत या ब्लॉक स्तर पर भंडारण कर सकने का कोई बुनियादी ढांचा विकसित नहीं किया जा सका है। इन गांवों से वेयरहाउस और पीएसीएस गोदामों की दूरी दस से पंद्रह किलोमीटर के बीच की है, जबकि ज़िला मुख्यालय लगभग 30 किमी या उससे अधिक की दूरी पर है। और लॉकडाउन में जब यातायात का कोई साधन उपलब्ध नहीं है तो यहां तक पहुंच पाना मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव है। जहां कुछ बड़ी जोतों के मालिक अपनी फसल को अपने घरों में स्टोर करके रख सकते हैं, छोटे और सीमांत किसानों के लिए ऐसा कर पाना संभव नहीं है। इसके साथ ही इस समय स्थानीय स्तर पर फसल की बिक्री भी नहीं की जा सकती।

वित्तीय मुश्किलें

लॉकडाउन के कारण एक अनिश्चितता का माहौल सा बन गया है कि फसल कब और किस प्रकार से बेची जा सकेगी। हालांकि सरकार द्वारा गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय कर दिया गया है, लेकिन किसान अपनी उपज नहीं बेच पा रहे हैं। मुरारपुर के एक बड़े किसान का कहना था कि “गेहूं पर सरकार ने एमएसपी वैसे तो 1,800 रुपये प्रति क्विंटल तय कर दी है, लेकिन लॉकडाउन में इसका खरीदार कहां से मिलेगा? इस बारे में तो सरकार ने किसी भी प्रकार की घोषणा की नहीं, जबकि हमें पैसों की सख्त ज़रूरत है।”

ऐसे मामलों में जैसा कि आम तौर पर देखने को मिलता है कि स्थानीय बनिया गांवों से अनाज की ख़रीद कर उसे ख़रीद केंद्रों या अन्य जगहों पर ले जाते हैं, लेकिन लॉकडाउन के कारण वे भी ऐसा कुछ कर पाने में असमर्थ हैं। किसानों को अगले सीजन के लिए खाद बीज एवं अन्य इनपुट के साथ खेतों की तैयारी करने के लिए नक़दी की ज़रूरत पड़ेगी। इसी तरह जो छोटी जोत वाले या पट्टे वाले किसान हैं, जिन्होंने खेती के लिए ज़मीन पट्टे पर ली हुई थी उन्हें भी पट्टा चुकाने के लिए थोड़े समय के लिए पैसे की आवश्यकता होती है।

ग्रामीण बिहार में बैंकों से नक़द निकासी की सुविधा के बारे में जब किसानों से पूछा गया तो उनका कहना था कि पंचायतों में बैंक मित्र केंद्र (मध्य बिहार ग्रामीण बैंक की एक सहायक इकाई) चालू हैं, लेकिन इससे सिर्फ 5,000 रुपये तक ही निकाले जा सकते हैं, जबकि कोई नई डिपॉजिट स्वीकार नहीं की जा रही है। हालांकि महत्वपूर्ण सरकारी योजनाओं के तहत यदि कोई लेनदेन का प्रश्न है तो ग्रामीण बैंक के खाताधारकों के लिए यह सुविधा मौजूद है।

दुग्ध उत्पादन और पशुधन

अधिकतर लोग जिनके पास पशुधन है वे अपने दूध और डेयरी उत्पादों को निकटतम छोटे-मोटे बाज़ार के डेयरी संग्रह इकाइयों को बेच दिया करते थे। लॉकडाउन के दौरान काफ़ी हद तक यह आपूर्ति श्रृंखला भी बाधित हो चुकी है। उदाहरण के लिए गरहिया गांव के एक पशुपालक ने बताया कि “हमारे गांव से औसतन क़रीब पचास किलो पनीर की आपूर्ति रोज़ाना पास के सिकरौल बाज़ार में की जाती थी, जो अब लॉकडाउन होने के कारण पूरी तरह से ठप है। दूध की आपूर्ति भी नियमित तौर पर कलेक्शन सेंटरों तक नहीं हो पा रही है”।

वे आगे बताते हैं कि लॉकडाउन के दौरान "जो भी दूध निकाला जा रहा है उसे घर में ही उपयोग करना पड़ रहा है, जिससे आय के सभी स्रोत बंद हो चुके हैं।“ दूसरे शब्दों में कहें तो "आवश्यक सेवा" के रूप में वर्गीकृत होने के बावजूद गांव से दुग्ध संग्रह और डेयरी उत्पादों की बिक्री का काम पूरी तरह से ठप पड़ा हुआ है। जहां तक पशुओं के चारे का प्रश्न है तो फिलहाल यह पर्याप्त है और आने वाले दिनों में फसल कटाई के बाद यहां चारे की कमी नहीं रहने वाली है।

जिला प्रशासन की ओर से उठाये गए क़दम

जब इन मुद्दों पर ज़िला प्रशासन और अन्य स्थानीय अधिकारियों से क़दम उठाए जाने के बाबत पूछा गया तो नवानगर ब्लॉक के एक किसान ने बताया कि: “कई ग्राम पंचायतों के लोगों के किसान समूह ने मिलकर ज़िला प्रशासन से संपर्क साधा था, ताकि गेहूं की फसल की कटाई के लिए हार्वेस्टर चलाने के लिए पंजाब से ऑपरेटर और अन्य कर्मचारी बुलाने की अनुमति मिल सके। क्योंकि कटाई का समय आ चुका था इसलिये हमने इस मुद्दे पर मजिस्ट्रेट को पत्र लिखा था।“

इसके कुछ दिन बाद ज़िला प्रशासन की ओर से एक सर्कुलर जारी किया गया था, जिसमें कृषक समूहों या हार्वेस्टर के मालिकों के लिए पास हासिल करने की अनुमति दे दी गई थी। आदेश के हिसाब से उन्हें अपने वाहनों के साथ पंजाब जाने और अपने साथ मशीन ऑपरेटरों को बिहार लाने की अनुमति दी गई थी। लेकिन इन सब में लगने वाले खर्चों व अन्य कारणों को देखते हुए लगा कि यह प्रस्ताव तो काफी महंगा पड़ने जा रहा है। बहरहाल उनके पास कोई अन्य विकल्प नहीं है, और किसान चाहते हैं कि वे इस ओर क़दम बढाएं, ताकि जिन मुसीबतों में वे घिरे हुए हैं उसे कम से कम किया जा सके।

वस्तुओं की क़ीमतों में स्थिरिता बनाए रखने के लिए और दुकानदारों में जमाखोरी की प्रवित्ति और दाम बढाने से रोकने के लिए, जिला परिषद द्वारा आवश्यक वस्तुओं की अधिकतम खुदरा क़ीमतों की एक सूची जारी कर दी गई थी। लॉकडाउन के पहले हफ्ते के दौरान कुछ हद तक इसका असर देखने को मिला था। हालांकि इसके बाद आवश्यक खाद्य पदार्थों की क़ीमतें इसके विक्रेताओं द्वारा ही पूरी तरह से तय की जा रही हैं। केंद्र सरकार द्वारा न्यूनतम दर पर राशन की आपूर्ति के संबंध में की गई घोषणा से उन परिवारों पर कोई असर नहीं पड़ने जा रहा है जिनके पास राशन कार्ड नहीं हैं। वैसे भी गांव में किए गए पिछले सर्वेक्षणों से पता चलता है कि ज़िले में सार्वजनिक वितरण प्रणाली में काफ़ी धांधली देखी गई है।

प्रवासियों की घर वापसी

देश के अन्य क्षेत्रों में सबसे ज़्यादा प्रवासी बिहार से हैं। जबसे लॉकडाउन की घोषणा हुई है, राज्य में लौटकर आने वाले प्रवासियों की बाढ़ सी आ गई है। बक्सर ज़िले की पश्चिमी सीमा उत्तर प्रदेश से सटी हुई है, और वे प्रवासी जो कि दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र से आ रहे हैं, वे इसी रास्ते से प्रवेश कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश से लगी ज़िला सीमाओं पर कई पॉइंट्स पर चेक-पोस्ट बनाए गए हैं और सभी आने वाले लोगों की स्क्रीनिंग चल रही है। इसके उपरांत ज़िला प्रशासन इन प्रवासियों को क्वारंटीन क्षेत्रों में रख रहा है जो ज्यादातर ज़िला शहर के सार्वजनिक विद्यालयों और कुछ गांवों में बनाए गए हैं।

उदाहरण के लिए चार प्रवासी मज़दूर दिल्ली से लगभग 950 किलोमीटर लंबी पैदल यात्रा कर चंदूदेहरा गांव पहुंचे थे। उनके आते ही उन्हें चौदह दिनों के लिए कैथना हाई स्कूल में क्वारंटीन के लिए रख दिया गया था। ग्रामीणवासी भी इस वैश्विक महामारी और इसके प्रसार को लेकर सचेत हैं, जब कहीं उन्हें किसी नए प्रवासी के आने की ख़बर मिलती है वे फौरन स्थानीय प्रशासन को इसकी सूचना दे रहे हैं ताकि उन्हें अलग-थलग किया जा सके।

यह महामारी भी कई मायनों में जाति और वर्ग की सीमाओं को फिर से परिभाषित कर रही है। छुआछूत भिन्न-भिन्न स्वरूपों में इन गांवों में विभिन्न जातियों के बीच अभी भी मौजूद है, लेकिन महामारी ने इस परिघटना को पुनर्परिभाषित करने का काम किया है। यह भेदभाव अब एक ही जाति और परिवारों के भीतर तक नज़र आ रहा है। जो प्रवासी वापस लौट कर आए हैं उन्हें अपने पड़ोसियों और यहां तक कि अपने परिवारों तक से सामाजिक लांछन और विरोध का शिकार होना पड़ रहा है। जो लोग दूसरे राज्यों से आ रहे हैं ग्रामीण उन्हें अपने लिए ख़तरा समझ रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि ये लोग वायरस के संभावित वाहक हो सकते हैं। प्रवासियों के परिवार वाले तक उन्हें अपने घरों में घुसने की इजाज़त नहीं दे रहे हैं और प्रशासन से अनुरोध कर रहे हैं कि वे उन्हें कहीं और ले जाकर क्वारंटीन करें।

दीप्ति टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में एम.फिल-पीएचडी स्कॉलर हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

COVID-19 in Rural India-XXI: Agriculture takes a Battering in Bihar’s Buxar

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