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ग्रामीण भारत में कोरोना-36: पूर्वी मेदिनीपुर में किसान धान को एमएसपी से भी नीचे दाम पर बेचने को मजबूर

इस रिपोर्ट में इस ओर भी देखने की कोशिश की गई है कि किस प्रकार से लॉकडाउन ने दिहाड़ी मजदूरों और डेयरी व्यवसाय से सम्बद्ध ग्रामवासियों के जीवन पर अपना असर डाला है।
ग्रामीण भारत में कोरोना
धान की कटाई करते खेत मजदूर।

यह जारी श्रृंखला की 36वीं रिपोर्ट है जो ग्रामीण भारत के जीवन पर कोविड-19 से संबंधित नीतियों से पड़ रहे प्रभावों की झलकियाँ प्रदान करती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च की ओर से जारी इस श्रृंखला में विभिन्न विद्वानों की रिपोर्टों को शामिल किया गया है, जो भारत के विभिन्न हिस्सों में गावों के अध्ययन को संचालित कर रहे हैं। रिपोर्ट उनके अध्ययन में शामिल गांवों में मौजूद प्रमुख उत्तरदाताओं के साथ लिए गए साक्षात्कार के आधार पर तैयार की गई है। यह रिपोर्ट पश्चिम बंगाल के पूर्वी मेदिनीपुर जिले में स्थित किस्मत पटना गाँव में रह रहे छोटे किसानों और झींगे की खेती से जुड़े किसानों के सामने पेश आ रही मुश्किलों के ब्योरे को रखती है। इस रिपोर्ट में इस ओर भी देखने की कोशिश की गई है कि किस प्रकार से लॉकडाउन ने दिहाड़ी मजदूरों और डेयरी व्यवसाय से सम्बद्ध ग्रामवासियों के जीवन पर अपना असर डाला है।

किस्मत पटना गाँव पश्चिम बंगाल के पूरबा मेदिनीपुर जिले में मुगबेरिया ग्राम पंचायत का हिस्सा है। यहाँ की लोलट जाँका सड़क जो कि कई सड़कों के नेटवर्क का एक हिस्सा है और राष्ट्रीय राजमार्गों से इसे जोड़ता है। यह सड़क गाँव की दक्षिणी सीमा से गुजरती है और इसे राज्य की राजधानी कोलकाता (133 किमी दूर) से जोड़ती है। सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन यहाँ से 10 किमी की दूरी पर हेनरिया है।

एक ग्राम पंचायत सदस्य के अनुसार वर्तमान में किस्मत पटना की जनसंख्या 989 लोगों की है और कुल मिलाकर यहाँ पर 237 घर हैं। गाँव में सामान्य या अगड़ी जाति के घरों (184 परिवारों) का वर्चस्व है, उसके बाद अनुसूचित जाति के घर (40 परिवार) और अंत में अन्य पिछड़ी जाति के घर (13 परिवार) बसे हैं। ज्यादातर अगड़ी जाति के घरों के पास खेती योग्य कुछ जमीनें हैं। गाँव में अनुसूचित जाति और ओबीसी श्रेणियों से आने वाले 20 भूमिहीन परिवार हैं। इन घरों के सदस्य खेतिहर मजदूरी, निर्माण श्रमिक, मछली पालन एवं बिक्री, डेयरी फार्मिंग, सब्जी विक्रेता, किराने की दुकान और खाने-पीने के ठेले लगाने का काम करने के साथ-साथ अपने पारंपरिक जातिगत पेशों से सम्बद्ध हैं। 16 अप्रैल 2020 तक गांव के करीब 20 लोग निर्माण मजदूर और इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग में काम करने के लिए मुंबई, बैंगलोर और केरल राज्य में गए हुए थे।

किस्मत पटना में खेती की स्थिति और लॉकडाउन का असर  

किस्मत पटना के अधिकांश ग्रामवासियों की आय का मुख्य स्रोत खेतीबाड़ी ही है। गाँव में सिंचाई की काफी अच्छी व्यवस्था है, खासकर उथले कुओं की वजह से। ऐसे कई किसान हैं जो साल में दो बार धान की खेती करते हैं: एक बार खरीफ (स्थानीय स्तर पर इसे अमन कहते हैं) की फसल के रूप में, जिसे मुख्य तौर पर घरेलू खपत के लिए उगाया जाता है और एक अन्य बार रबी (स्थानीय स्तर पर इसे बोरो के नाम से जानते हैं) के सीजन में उगाते हैं। जबकि कुछ किसान तो खरीफ-पूर्व में धान की तीसरी फसल (जिसे स्थानीय स्तर पर ऑस कहते हैं) तक उपजा पाने में सफल रहते हैं, जिसे मुख्य तौर पर बोरो सीजन के लिए बीज हासिल करने के लिए उगाया जाता है।

आमतौर पर अमन की फसल में चावल की किस्म संतोश्री या पदोश्री वाली होती है, जबकि बोरो की फसल में ज्यादातर हाइब्रिड चावल की किस्में होती हैं जैसे कि एन संकर या सुपर संकर। बोरो फसल की खेती में रिटर्न काफी अच्छा मिल जाता है क्योंकि हाइब्रिड धान उच्च उत्पादकता वाली होती हैं और उसका बाजार मूल्य भी हमेशा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से ऊपर ही बना रहता है। किसानों के अनुसार इस बार की बोरो की फसल काफी अच्छी रही है। आमतौर पर छोटे किसान अपने धान की फसल को मंडी में ले जाकर नहीं बेचते हैं। कटाई के सीजन में गाँव में ही व्यापारी और कमीशन एजेंट इन छोटे किसानों से धान खरीदने के लिए आ जाते हैं।

लॉकडाउन के कारण खेतिहर मजदूरों का अकाल पड़ गया है, क्योंकि उनमें से कई लोग अपने घरों और गांवों को छोड़कर काम पर जाने से डरते हैं। वर्तमान में इस कमी को देखते हुए ऐसा लगता है कि अगले कुछ हफ्तों में मजदूरों की मांग और मजदूरी के रेट इन दोनों में ही बढ़ोत्तरी हो सकती है। उत्तरदाताओं के साथ हुई बातचीत के अनुसार, कई किसान अपनी धान की फ़सल की कटाई के लिए अपने घरों से ही सामूहिक श्रम पर भरोसा करने के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं।

इसके साथ ही लॉकडाउन के दौरान यातायात के साधनों की कमी ने भी फसल की बिक्री को प्रभावित किया है। अतीत की तुलना में बेहद कम संख्या में ही कुछ कमीशन एजेंटों और व्यापारियों ने ही इस बार किसानों से उनकी फसल की खरीद के सम्बंध में संपर्क साधा है। कम माँग के चलते पहले से ही कीमतों में गिरावट देखने को मिल रही है। इस वर्ष अप्रैल के मध्य में किसानों को धान के लिए मिलने वाली कीमत प्रति 60 किलो के बैग पर 1,030 से 1,080 रुपये के बीच थी। ये कीमतें न सिर्फ पिछले साल अप्रैल में प्राप्त कीमत से कम हैं (पिछले साल इसी धान के 60 किलोग्राम के बैग के लिए 1,200 से लेकर 1,300 रुपये के बीच), बल्कि यह इस साल के लिए धान की घोषित एमएसपी से भी कम है। इस साल बंगाल में धान का एमएसपी एक क्विंटल के लिए 1,815 रुपये है, यानी 60 किलो के बैग के लिए 1,089 रुपये।

हालांकि धान कोई जल्दी खराब हो जाने वाली वस्तु नहीं है लेकिन यदि उसके भंडारण के लिए निर्मित ढाँचे की स्थिति दयनीय हो तो फसल को कीट-पतंगों से काफी अधिक नुकसान पहुँच सकता है। इसके अलावा जितने अधिक समय तक धान को स्टोर करके रखेंगे, उतना ही अनाज सूखेगा और उसके वजन में गिरावट दर्ज होगी, जिसका सीधा अर्थ है कि लाभ में कमी हो सकती है। यह एक चिंता का विषय है क्योंकि ज्यादातर छोटे किसानों के पास अपने अनाज के सुरक्षित भण्डारण की, जब तक कि कीमतों में सुधार नहीं हो जाता, के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचागत सुविधाएं नहीं हैं। जैसा कि एक उत्तरदाता ने इस बारे में टिप्पणी की थी कि "हम अच्छी कीमत के इंतजार में बैठे नहीं रह सकते, क्योंकि हमें अपनी फसल को बेचकर जल्द से जल्द उधार को चुकता करने के लिए नकदी की आवश्यकता होती है।

इसके अलावा सिंचाई, खाद और मजदूरों की मजदूरी का भी भुगतान करना पड़ता है।" जबकि आर्थिक तौर पर संपन्न किसानों के लिए जिनके पास तुलनात्मक रूप से बड़ी जोतें होती हैं,  यह कोई भारी चिंता का विषय नहीं है, क्योंकि उनके पास अपनी उपज को कुछ महीनों के लिए रोककर रखना और अच्छे दामों पर बेचने के लिए आमतौर पर भंडारण की सुविधा होती है। इसके अलावा 17 और 18 अप्रैल को बेमौसम भारी बरसात भी हुई थी। अपनी फसल को नुकसान से बचाने के लिए जो कि कटाई के लिए तैयार खड़ी थी, किसानों को अपने फसलों की कटाई के लिए अपेक्षाकृत अधिक संख्या में मजदूरों को भाड़े लगाना पड़ा था। मजदूरों की कमी को देखते हुए मजदूरी की दर 400 रुपये प्रतिदिन से बढ़कर 450 रुपये रोजाना की हो गई थी। इस प्रकार से छोटे किसानों को फसल की कटाई के लिए मजदूरी की ऊँची लागत और कम कीमत पर धान की बिक्री मूल्य के रूप में दोनों तरफ से भारी मार झेलनी पड़ी है।

झींगा पालन से जुड़े किसानों पर पड़ता असर

पूरबा मेदिनीपुर जिला राज्य में झींगे के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है। किस्मत पटना में कुछ लोग जिनके पास खुद की जमीनें हैं और पूँजी तक उनकी पहुँच है, उन्होंने झींगे की खेती को अपनाया है। झींगे की खेती की आपूर्ति श्रृंखला में बड़ी तादाद में लोगों के शामिल किये जाने की आवश्यकता होती है, जिसमें: बीज, चारे और दवाइयों के आपूर्तिकर्ता, तकनीकी विशेषज्ञ, किसान, मजदूर और व्यापारी शामिल हैं। झींगे की खेती अपेक्षाकृत गहन पूँजीगत व्यवसाय के तौर पर है– जिसके लिए अधिकतर किसानों को अपनी लागत के लक्ष्य को पूरा करने के लिए साहूकारों या बैंकों से पैसा उधार लेना पड़ता है। आम तौर पर साल में इसके दो कल्चर किये जाते हैं, और प्रत्येक कल्चर को पूरा होने में कम से कम तीन महीने से लेकर सौ दिन तक का वक्त लगता है। पहले कल्चर के लिए आमतौर पर किसान फरवरी के अंत और मार्च की शुरुआत में झींगे की खेती के लिए पानी तैयार करना शुरू कर देते हैं। यह ‘वेनामी’ झींगे के कल्चर के लिए सबसे उपयुक्त मौसम होता है, जिसकी घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों बाजारों में जबर्दस्त माँग है।

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निष्क्रिय झींगा पालन क्षेत्र

राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन को थोपे जाने और इसके विस्तार के क्या नतीजे निकलने वाले हैं के साथ-साथ इस महामारी से अंतरराष्ट्रीय माँग और कीमतों पर पड़ रहे प्रभाव भी झींगे की खेती से जुड़े किसानों के लिए चिंता का सबब बने हुए हैं। कच्चे माल की उपलब्धता में पहले से ही गिरावट देखने को मिल रही है, ऐसे में यदि लॉकडाउन को आगे बढ़ाया जाता है, तो इसकी वजह से मिड-कल्चर के दौरान आवश्यक वस्तुओं की कमी का सामना करना पड़ सकता है। आमतौर पर बीज, चारे, दवा और अन्य वस्तुओं के आपूर्तिकर्ता उधार पर इनकी आपूर्ति कर दिया करते थे, और किसान अपने फसल की बिक्री के बाद उसका नकद भुगतान कर दिया करते थे या खरीद के दौरान भुगतान में से कटौती कर दी जाती थी (यदि किसान उसी सप्लायर को अपना झींगा बेचते हैं, जिनसे उन्होंने चीजें उधार पर ली थीं)। लेकिन लॉकडाउन के दौरान इन सप्लायरों ने क्रेडिट पर माल देने या आंशिक तौर पर भुगतान स्वीकारने से मना कर दिया है।

झींगा किसानों के पास अभी भी पहले कल्चर के लिए कुछ हफ्तों का समय शेष है, लेकिन यदि इसमें किसी भी तरह की देरी की जाती है तो दूसरे कल्चर का काम खटाई में पड़ सकता है। क्योंकि (दूसरे कल्चर के दौरान) ठन्डे मौसम की स्थिति में झींगे की ग्रोथ में रुकावट पैदा होने लगती है और उनमें संक्रमण की संभावना भी बढ़ जाती है। लॉकडाउन से पैदा हो रही कठिनाइयों के बावजूद कुछ किसानों ने अपने पहले कल्चर के काम को शुरू कर दिया है लेकिन झींगे की मांग और कीमतों पर सवालिया निशान बने हुए हैं, जिसके चलते उन्होंने भी झींगे की खेती के एरिया को पहले की तुलना में सीमित रखा है। सरकार की ओर से भी लॉकडाउन के दौरान झींगे की खेती के संबंध में कोई आवश्यक दिशानिर्देश जारी नहीं किए गए हैं।

दिहाड़ी मजदूरों, दुग्ध उत्पादकों और दुग्ध विक्रेताओं पर पड़ता असर

लॉकडाउन के दौरान निर्माण कार्य के लिए आवश्यक सामग्री की उपलब्धता नहीं हो सकी है, जिसकी वजह से निर्माण क्षेत्र से सम्बद्ध दिहाड़ी मजदूरों के पास कोई काम नहीं रह गया था। ऐसे ही एक मजदूर ने सूचित किया है कि सरकार की ओर से कोई आय और वित्तीय सहायता न मिलने की वजह से उनके पास अपने लिए भोजन खरीदने का कोई साधन नहीं बचा है। वह उत्तरदाता जो ग्राम पंचायत के लिए काम कर रहा था, का कहना था कि उन्हें मनरेगा के तहत नए रोजगार के बारे में कोई जानकारी नहीं प्राप्त हुई है और लॉकडाउन के दौरान इस स्कीम के तहत कोई काम हाथ में नहीं लिया गया है।

गाँव में 13 ओबीसी परिवार रहते हैं जो डेयरी फार्मिंग और उससे संबंधित व्यवसायों, जैसे कि मिठाई-निर्माण और दूध बेचने के व्यवसाय से जुड़े हैं,  ये व्यवसाय उनके पारंपरिक जातीय व्यवसाय (ग्वाला-गोप) से सम्बद्ध है। इसमें पड़ोस के गांवों से गाय के दूध के संग्रहण करने और शादियों एवम धार्मिक समारोहों जैसे मौकों पर प्रचुर मात्रा में दही तैयार करना और उसे बेचने का काम शामिल है। ऐसे ही कामों से जुड़े एक दुग्ध संग्रहकर्ता के अनुसार “मेरे 26 सालों के दूध के कारोबार से जुड़े अनुभव में यह पहली बार हो रहा है कि पिछले 23 दिनों से अधिक समय से मैंने कुछ भी कमाई नहीं की है और हमारे पास जो कुछ बचत थी, उसी के आधार पर हमने खुद को अभी तक टिका कर रखा है। यदि यही स्थिति आगे भी बनी रही तो भविष्य में हमें काफी मुश्किलों का सामना करने के तैयार रहना होगा।”  यदि आगे चलकर लॉकडाउन हटा भी लिया जाता है तो इस उत्तरदाता को एक बार फिर से अपने व्यवसाय शुरू करने को लेकर भरोसा नहीं बन पा रहा है, क्योंकि गांव के दुग्ध उत्पादक किसानों ने इस दौरान सीधे मिठाई की दुकानों पर अपने दूध की आपूर्ति शुरू कर दी है।

फिलहाल बाजार में आवश्यक खाद्य वस्तुओं की कोई कमी नहीं है। हालांकि आवश्यक वस्तुओं के खुदरा मूल्य में तेजी देखने को मिल रही है जैसा कि नीचे दी गई तालिका में दर्शाया गया है।

तालिका 1: किस्मत पटना में लॉकडाउन से पहले और उसके दौरान आवश्यक वस्तुओं की कीमतें

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ग्राम पंचायत के एक सदस्य के अनुसार, ग्रामीणों को राज्य सरकार की ओर से उनके राशन कार्ड की केटेगरी के अनुसार राशन मुहैय्या कराया गया है। कुछ किसानों ने सूचित किया है कि केंद्र सरकार की ओर से जारी पीएम-किसान सम्मान निधि योजना के तहत उन्हें 1,800 रुपये प्राप्त हुए हैं।

एटीएम और बैंकिंग सुविधाएं गांव से 2 किमी की दूरी पर स्थित हैं। उत्तरदाताओं के कथनानुसार ग्रामीणों को सरकार या किसी गैर सरकारी संगठनों की तरफ से कोई दवा, सैनिटाइज़र या मास्क नहीं मिले हैं।

किस्मत पटना के उत्तरदाताओं की ओर से बताए गए उनके अनुभवों से एक महत्वपूर्ण बात निकलकर यह आ रही है कि इस महामारी से निपटने के लिए ग्रामीण भारत कहीं न कहीं खुद को तैयार नहीं कर सका है। भारत का कृषि क्षेत्र एक गंभीर संकट की स्थिति से गुजर रहा है, जिसमें खास तौर पर सीमांत और छोटे किसानों के सामने गंभीर चुनौतियाँ मुहँ बाए खड़ी हैं। इसके अलावा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि देशव्यापी लॉकडाउन में किये गए विस्तार ने जाड़े की फसल और उसकी बिक्री को गंभीर रूप से प्रभावित करने का काम कर डाला है।

छोटे किसान अपनी बेहतर हाइब्रिड धान की वैरायटी की फसल को घोषित एमएसपी की दर से भी कम पर बेचने पर मजूबर हुए हैं। किस्मत पटना में किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) का कोई नामोनिशान नहीं है और फसलों की खरीद के लिए सरकार की ओर से किसी भी प्रकार की कोई पहल नहीं ली गई है। इसकी सबसे बड़ी मार आर्थिक तौर पर कमजोर, छोटे और सीमांत किसानों पर पड़ने जा रही है। हालाँकि सरकार की ओर से उन लोगों के लिए सामाजिक दूरी को बनाए रखने और मास्क के उपयोग संबंधी आवश्यक दिशानिर्देश जारी किये गये हैं जो फसलों की कटाई जैसी गतिविधियों में लगे हैं, लेकिन उत्तरदाताओं ने वास्तविक धरातल पर इन्हें लागू करने संबंधी मुश्किलों को अपनी बात में इंगित किया है। किस्मत पटना में कई लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा और रोजगार की संभावना एक गंभीर चिंता का विषय बनी हुई हैं।

[यह रिपोर्ट चार किसानों के साथ लिए गए व्यक्तिगत साक्षात्कार पर आधारित है। इसमें दो छोटे किसान (दो बीघे से कम के मालिक), एक बड़े किसान (10 बीघा), और एक बटाई पर खेती का काम करने वाले किसान को शामिल किया गया था। उत्तरदाताओं में से एक दिहाड़ी मजदूर, एक दुग्ध विक्रेता, एक व्यक्ति जो मछली के चारे की दुकान पर काम करता है और ग्राम पंचायत के एक सदस्य भी शामिल थे। ये इंटरव्यू 15 से 20 अप्रैल 2020 के बीच में आयोजित किए गए थे।]

लेखक भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गुवाहाटी में मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभाग में पीएचडी स्कॉलर हैं।

अंग्रेज़ी में लिखा लेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

COVID-19 in Rural India-XXXVI: Farmers Forced to Sell Paddy Below MSP in Bengal’s East Medinipur

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