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COVID-19 लॉकडाउन : मोदी सरकार के असहनीय और आधे-अधूरे क़दम

WHO द्वारा कोरोना वायरस को एक वैश्विक महामारी घोषित किए जाने के दो महीने बाद ग़रीबों के कल्याण के लिए एक अपर्याप्त आर्थिक पैकेज की घोषणा की गई है।
COVID-19 लॉकडाउन

प्रधानमंत्री मोदी ने भारत में कोरोना वायरस संक्रमण के जवाब में 24 मार्च को पूरे भारत में अचानक 21 दिनों के लॉकडॉउन की घोषणा कर दी। यह वायरस पूरी दुनिया के 175 देशों में फैल गया है। इससे क़रीब 4.75 लाख लोग संक्रमित हुए हैं, जिनमें से 21,000 की जान जा चुकी है।

दो दिन बाद, 26 मार्च को वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने वित्त प्रावधानों के पैकेज की घोषणा की, जिसके ज़रिये ग़रीब और वंचित तबके से संबंधित लोगों को राहत देने की कोशिश की गई है। नई दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में सीतारमण ने दावा किया कि ''ग़रीब कल्याण योजना'' नाम के इस पैकेज में 1.7 लाख करोड़ रुपये ख़र्च किए जाएंगे। इसमें 80 करोड़ लोगों को लाभ मिलेगा और इसे तुरंत लागू किया जाएगा।

संक्षिप्त में, इस पैकेज के तहत: MGNREGA की मज़दूरी 182 रुपये से बढ़ाकर 202 रुपये कर दी गई, इनकम समपोर्ट स्कीम के तहत दर्ज सभी किसानों को 2000 रुपये दिए जाएंगे, जन धन योजना अकाउंट होल्डर महिला को तीन महीने तक 500 रुपये प्रति महीने के हिसाब से पैसा दिया जाएगा, ग़रीब विधवा-विकलांगों और बुजुर्ग लोगों को एकमुश्त एक हज़ार रुपये दिए जाएंगे, उज्जवला का लाभ लेने वालों को फ्री सिलेंडर उपलब्ध कराए जाएंगे। इसके अलावा कुछ दूसरे उपाय भी किए गए हैं।

जैसे-100 लोगों से कम श्रमशक्ति वाली यूनिट, जिसमें 90 फ़ीसदी कर्मचारी 15,000 रुपये महीने से कम कमाते हों, इन यूनिट में तीन महीने तक कर्मचारी और नियोक्ता के हिस्से वाले EPF को सरकार ज़मा करेगी। स्व-सहायता समूहों के लिए ''कोलेटरल फ्री लोन'' को 20 लाख रुपये से बढ़ाकर 63 लाख रुपये कर दिया गया और EPF के ''नॉन रिफंडेबल एडवांस'' को कुल राशि का 75 फ़ीसदी तक बढ़ाया गया है।

निर्मला सीतारमण ने अपनी घोषणा में कहा कि ग़रीबी रेखा से नीचे के राशन कॉर्ड धारकों को अगले तीन महीने तक प्रति व्यक्ति के हिसाब से पांच किलो चावल और प्रति परिवार एक किलो दाल उपलब्ध कराई जाएगी।

प्रेस मीट में लगातार पूछे गए सवालों के बावजूद निर्मला सीतारमण ने यह नहीं बताया कि पैकेज के लिए पैसा कहां से लिया गया है। हांलाकि उन्होंने इतना जिक्र ज़रूर किया कि इमारत और निर्माण कर्मचारी निधि, डिस्ट्रिक्ट मिनरल फंड जैसी योजनाओं से पैसा इसमें शामिल किया जा रहा है।

एक ऐसे दौर में जब 75 फ़ीसदी आर्थिक गतिविधियां पूरी तरह रुक चुकी हैं, तब ग़रीबों के पास सीधे पहुंचने वाले इन फ़ायदों से राहत ज़रूर मिलेगी। लेकिन इस पैकेज में कुछ चीजों की कमी है, जो इस सरकार द्वारा किसी समस्या को हल करने के लिए उठाए जाने वाले क़दमों की विशेषता बन चुकी हैं। जैसे- देर से विचार करना, फिर तुरत-फुरत में क़दम उठाना (नोटबंदी याद कीजिए), आंशिक राहत देना, खुलकर पैसा ख़र्च करने की जगह पैसे के साथ निरर्थक तरीक़े से पेश आना और सबसे अहम समस्याओं पर आँख बंद कर लेना, फिर ज़्यादा नुकसान और देरी के बाद उसका समाधान करने की कोशिश करना। चलिए इन सबको देखने की कोशिश करते हैं, शुरूआत उन चीजों से करते हैं, जिनका समाधान नहीं किया गया। 

रबी की फसल को भूल गए

देश के अलग-अलग हिस्सों में गेहूं, सरसों और विभिन्न दालों की फसल पक कर कटने के लिए तैयार हैं या अगले दो हफ़्तों में तैयार हो जाएंगी। लॉकडॉउन का मतलब है कि किसान ज़रूरी संख्या में मज़दूरों से काम नहीं ले पाएंगे, न ही अपने दोस्तों और परिवारों को फ़सल काटने के लिए ले जा पाएंगे। ऐसी खबरें आना शुरू हो गई हैं कि किसान लॉ़कडॉउन को फ़सल काटने के लिए तोड़ रहे हैं।

तो किसान क्या करें? खड़ी फ़सल को सड़ने के लिए छोड़ दे? वह ऐसा कभी नहीं होने देंगे, फसल उनके खून से उपजाई हुई होती है। प्रति परिवार दो हज़ार रुपये की मदद, फ़सल के दाम की तुलना में कुछ भी नहीं है। ऐसी अफवाहें चल रही हैं कि सरकार कृषि कार्यों की छूट दे सकती है। लेकिन अब तक कुछ भी साफ़ नहीं हो पाया है। यह आपको नोटबंदी की याद नहीं दिलाता? उसमें भी ऐसे ही विघटनकारी प्रभाव सामने आए थे।

अगर किसान फसल काट भी लेते हैं, तो उन्हें आगे थ्रेसिंग और फटकने जैसी क्रियाएं भी करनी होंगी। इसके बाद उन्हें स्थानीय मंडियों या व्यापारियों तक पहुंचाना होगा। वह लॉकडॉउन में ऐसा कैसे करेंगे?

किसानों के लिए एक सही राहत यह होती कि सरकार सीधे गांवों या उनके समूहों से फ़सल ख़रीदती। ऐसा नहीं है कि ऐसा नहीं हो सकता। पंजाब में कई बार इसी तरीक़े से गेंहू की ख़रीद की जाती है। लेकिन सरकार को इस पूरी प्रक्रिया का ठीक ढंग से प्रबंधन करना होता है। इससे किसानों को मंडियों तक आने की जरूरत नहीं पड़ेगी, ना ही वे कोरोना वायरस के फैलाव में हिस्सेदार बनेंगे। लेकिन सरकार सोचती है कि दो हज़ार रुपये ख़र्च करने से उसकी ज़िम्मेदारी खत्म हो गई। 

मनरेगा में मज़दूरी का मज़ाक़

मनरेगा के तहत मज़दूरी में महज़़ बीस रुपये की बढ़ोत्तरी की गई। जब निर्मला सीतारमण ने दावा किया कि ग्रामीण इलाकों में हर मज़दूर को इससे दो हज़ार रुपये मिलेंगे, तब दरअसल उन्होंने फ़र्ज़ी तस्वीर बनाने की कोशिश की। यह दो हज़ार रुपये तब मिलेंगे, जब पूरे 100 दिनों तक काम मिलता रहेगा। ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक़, इस साल औसतन एक मज़दूर को 48 दिन का काम मिल रहा है। पिछले साल यह औसत 51 था। पिछले कुछ सालों से यह आंकड़ा इसी के आसपास घूमता है। इसलिए यह संभव ही नहीं है कि मज़दूरों को दो हज़ार रुपये की अतिरिक्त आय होगी।

ऊपर से मज़दूरी में साल दर साल अनियमित तरीक़े से देर होती रही है। यह देर 45 दिनों की तक हो सकती है। फिर इस पैसे का संबंधित लोगों को क्या फायदा होगा? रिपोर्ट्स के मुताबिक़, इस साल 27 जनवरी तक, उस महीने की 91 फ़ीसदी मज़दूरी (2,803 करोड़ रुपये) लंबित पड़ी थी। 2019 के दिसंबर महीने की 53 फ़ीसदी मज़दूरी नहीं दी गई थी। इससे पता चलता है कि मज़दूरी का पैसा देने में कितनी लेट-लतीफ़ी होती है।

किसी भी तरह से सोचें, मज़दूरी में किया गया इज़ाफा महज़़ प्रतीकात्मक है। क्योंकि जब तक काम नहीं दिया जाएगा, किसी भी तरह की मज़दूरी नहीं दी जाएगी, न ही कोई फायदा मिलेगा। क्या लॉकडॉउन की स्थिति में किसी भी तरह का काम दिया जाएगा? बहुत कम संभावना है।

एक बेहतर तरीक़ा यह होता कि सभी तरह के लंबित पैसे को अकाउंट में पहुंचाया जाता और इसमें कम से कम तीन हज़ार रुपये भी जो़ड़े जाते। यह जरूरी लोगों के लिए एक सामाजिक सहायता का अनुदान होता।

क्या 500 रुपये परिवार चलाने के लिए काफ़ी हैं?

महिला जन धन अकाउंट होल्डर को 500 रुपये दिया जाना एक अज़ीबो-ग़रीब़ फ़ैसला है।  क्या वो 500 रुपये प्रति महीने में अपना घर चला पाएगी? क्या हम बीसवीं सदी के मध्य में रह रहे हैं?

केवल किसानों के परिवारों को ही दो हज़ार रुपये मिल सकते हैं? गेंहू, चावल और दाल तो उपलब्ध रहेगा। लेकिन परिवारों की दूसरी ज़रूरतों का क्या? खाना बनाने के तेल से लेकर सब्ज़ियों तक, किराये से लेकर दवाईयों तक, दूध से लेकर मसालों तक, क्या इन सब चीज़ों का पांच सौ रुपये में प्रबंध किया जा सकता है।

चूंकि खाते पहले ही खोले जा चुके हैं और वित्त हस्तांतरण का तंत्र मौजूद है, इसलिए इस कठिन समय में सरकार आसानी से बड़ी मात्रा में सीधे पैसा ट्रांसफर कर सकती थी।

गैस सिलेंडर का मुफ़्त प्रावधान काफ़ी राहत देने वाला है। बशर्ते इसकी लगातार आपूर्ति की जाए। औसत तौर पर 6 उज्जवला सिलेंडर एक साल में उपयोग किए जाते हैं। इसलिए तीन महीने में लगभग दो सिलेंडर की जरूरत होगी। यह एक राहत होगी, लेकिन यह ठोस मदद नहीं है।

लेकिन यहां हर चीज में दिखावे की कोशिश की गई है। इसलिए हर योजना का फायदा उठाने वालों की संख्या अलग-अलग कर जोड़ी गई है। मतलब अगर किसी व्यक्ति को दो योजनाओं से लाभ मिल जाता है, तो उसे दो बार जोड़ा गया है। इसी से फायदा उठाने वाले लोगों की संख्या 80 करोड़ आई है।

बुज़ुर्गों और दिव्यांगों के लिए महज़़ एक हज़ार रुपये

जैसे महिलाओं को पांच सौ रुपये दिए जा रहे हैं, यह उसी तरीक़े की बात है। अंतर इतना है कि यह हज़ार रुपये एकमुश्त दिए जा रहे हैं, हर महीने नहीं। इतने कम पैसे में कोई परिवार से बेघर विधवा या शारीरिक तौर पर अक्षम व्यक्ति, जो दयादान पर जिंदा रहता है, वे अगले तीन महीने तक कैसे जिंदा रहेंगे? चाहे उन्होंने भीख मांगी हो या नौकरानी के तौर पर घरों में काम किया हो या फिर उनका गुजारा परिवारों को भलमनसाहत पर निर्भर करता रहा हो, दरअसल इस लॉकडॉउन में यह सभी खत्म हो जाएंगे।

ध्यान रहे इन लोगों में कोरोना वायरस फैलने की सबसे ज़्यादा गुंजाइश होगी। यह लोग बुजुर्ग हैं, लगातार एक दूसरे से मिलते हैं और शायद दूसरी बीमारियों से भी ग्रस्त हो सकते हैं। सभी तरह के ज़ोखिम उनके साथ हैं।

कोई भी दयावान सरकार (जैसा मौजूदा सरकार का दावा रहा है) बड़ी राशियों की घोषणा करती, साथ में दूसरे स्वास्थ्य, सामाजिक और आर्थिक फायदे भी देती। लेकिन यहां ''समस्या आने पर पैसा ख़र्च करो, तालियां बजवाओ और क़रीबी रास्ते से बाहर निकल जाओ'' जैसी प्रवृत्ति नज़र आ रही है। 

कुल-मिलाकर यह कुप्रबंधित पैकेज भारत की नौकरशाही और डिजिटल ट्रांसफर चैनल से होता हुआ, समाज के कुछ ग़रीब तबकों तक पहुंचेगा और कुछ को छोड़ देगा। इससे थोड़ी राहत मिलेगी, लेकिन यह पर्याप्त नहीं होगी। यह मोदी की एक और पीआर एक्सरसाइज है। आने वाले दिनों में कॉरपोरेट को मिलने वाली छूटों से इस पैकेज की तुलना करना दिलचस्प होगा।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

COVID-19 Lockdown: Unbearable Half Measures of Modi Government

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