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उत्तर प्रदेश : बिजनौर के निज़ामतपुरा गांव में कोविड-19 ने जीवन को पीछे ढकेला

निज़ामतपुरा में आर्थिक तौर पर कमज़ोर परिवार बेहद गंभीर स्तर की ग़रीबी का सामना कर रहे हैं। इस साल कोरोना की दूसरी लहर के दौरान स्वास्थ्य आपात ज़रूरतों और बुनियादी खपत की पूर्ति को लिए गए क़र्ज़ को चुकाने में उन्हें दिक़्क़तों का सामना करना पड़ रहा है।
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निज़ामतपुरा बिजनौर: उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों में कुछ ही दिन बचे हैं, नेताओं ने अधिकतम समर्थन जुटाने के लिए अपने अभियान शुरू कर दिए हैं। लेकिन निजामतपुर गांव से आने वाले 26 साल के मोहम्मद फिरोज की चिंता अलग है। फिरोज की सबसे बड़ी चिंता उस कर्ज़ को चुकाने की है, जो उन्होंने अपने चाचा के कोविड-19 से संक्रमित होने के बाद इलाज़ करवाने के लिए चुकाने को लिया था। उनके चाचा कोरोना की दूसरी लहर में संक्रमित हुए थे।

फिरोज पहले मुंबई की एक ब्रे़ड बनाने वाली फैक्ट्री में काम कर रहे थे। लेकिन इस साल जून में कोरोना की दूसरी लहर द्वारा तबाही मचाने के बाद उन्हें वापस आना पड़ा। उन्होंने अपने गांव के लिए तब ट्रेन पकड़ी, जब महाराष्ट्र सरकार ने राज्य में कोरोना के प्रसार को रोकने के लिए लॉकडाउन लगा दिया था। फिरोज को क्या पता था कि घर पहुंचने के बाद उनकी परेशानियां और भी ज़्यादा बढ़ने वाली हैं।  

प्यू का एक शोध अध्ययन बताता है कि 2020 में महामारी द्वारा लाई गई मंदी के चलते भारत का मध्यम वर्ग करीब़ एक तिहाई कम हो चुका है। जबकि गरीब़ लोगों की संख्या दोगुनी हो चुकी है, मतलब यह लोग प्रतिदिन 150 रुपये से कम कमा रहे हैं।

जैसे ही फिरोज घर आए, उनके एक चाचा जो महाराष्ट्र में उनके साथ फैक्ट्री में काम करते थे, उन्हें ग्राम परिषद के चुनाव में एक प्रत्याशी के लिए चुनाव प्रचार करने के दौरान कोरोना हो गया। 

निज़ामतपुरा में करीब़ 300 परिवार रहते हैं, जिनमें से ज़्यादातर मुस्लिम समाज के आर्थिक तौर पर कमजोर तबके से आते हैं। इस गांव के युवा दिल्ली, मुंबई, अम्बाला और अहमदाबाद जैसे शहरों में रोज़गार की तलाश में प्रवास करते हैं। गांव की मुखिया के पति सरफराज अहमद के मुताबिक गांव की साक्षरता दर भी काफ़ी ज्यादा कम है। सरफराज खुद एक साल पहले मुंबई में काम कर रहे थे। 

फिरोज के छोटे से घर में उसके कुछ चाचा और उनका परिवार रहता है। ऐसे ही एक चाचा बरामदे में बेहद गर्मी के चलते एक बिस्तर पर लेटे हुए हैं। उनके चेहरे पर ऑक्सीजन मास्क लगा हुआ है और 60 लीटर का सिलेंडर बिस्तर के बगल में रखा हुआ है। इन्हें कोरोना वायरस हो गया था और इन्हें एक प्राइवेट हॉस्पिटल में भर्ती करवाना पड़ा था। कोरोना का टेस्ट नेगेटिव आने के बाद उन्हें अस्पताल से रिलीज कर दिया गया था, लेकिन पोस्ट-कोविड दिक्कतों के चलते उन्हें बिस्तर पर ही रहना पड़ रहा है। 

फिरोज कहते हैं, "मेरे चाचा बीमार पड़ गए और हमें उन्हें एक निजी अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा, क्योंकि हमने उनका कोविड-19 टेस्ट नहीं करवाया था और सरकारी अस्पताल पूरी तरह मरीज़ों से अटे पड़े हुए थे। उनका एक निजी सुविधा केंद्र पर टेस्ट करवाया गया और फिर उन्हें एक निजी अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया। हमने उन्हें सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाने की पूरी कोशिश की, लेकिन हम असफल हो गए। हर कोई जानता है कि जब वायरस ने हमला किया था, तो स्थिति कैसी थी।"

वह आगे कहते हैं, "परिवार ने इलाज कर करीब़ 12 लाख रुपये खर्च किए। यह पैसा रिश्तेदारों और एक ज़मीन का टुकड़ा गिरवी रखकर जुटाया गया था।"

भोजन खपत घटी

फिरोज कहते हैं, "कोविड के बाद पैदा हुई दिक्कतों के चलते हमें बहुत खर्च उठाना पड़ रहा है। लेकिन हमारा लक्ष्य मेरे चाचा की जान बचाना है। हमने दूध, ब्रेड और बिस्किट की खपत बढ़ा दी है। अब हम सिर्फ़ सूखे राशन पर जी रहे हैं। गांव के मुखिया ने भी सूखा अनाज़ उपलब्ध करवाकर हमारी मदद की है। हमें नहीं पता कि हम यह पैसा कैसे चुकाएंगे।" परिवार में 11 सदस्य हैं और उसमें बीमार पड़े चाचा को मिलाकर 3 कमाऊ सदस्य हैं।

गांव में रहने वाले नौशाद, जो मुंबई में दर्जी का काम करते हैं, उन्होंने कहा कि आर्थिक दिक्कतों के चलते उन्होंने भी अपनी दूध की प्रतिदिन की खपत 500 मिलिलीटर से घटाकर 250 मिलिलीटर कर दी है। 

वह कहते हैं, "लॉकडाउन के दौरान मैं अपने गांव वापस आ गया और चार महीने से बिना काम के रह रहा था। अपनी आजीविका चलाने के लिए हमने कुछ रिश्तेदारों से कर्ज़ लिए थे, मैं उन्हें वापस नहीं चुका पाया हूं। अब मेरा काम फिर से चालू हो चुका है, तो मैं उन्हें चुकाने की कोशिश कर रहा हूं। पिछले महीने मैं 5000 रुपये बचाने में कामयाब हो गया। लेकिन वह पर्याप्त नहीं है क्योंकि लॉकडाउन के दौरान अपने परिवार का पेट भरने के लिए मैंने जो पैसा लिया था, वह काफ़ी ज़्यादा है।"

नौशाद आगे बताते हैं, "लॉकडाउन के दौरान हमें जो एकमात्र मदद मिली, वो सूखे अनाज की थी। लेकिन एक बड़े परिवार के लिए वह पर्याप्त नहीं था, इसलिए मुझे बाज़ार से सामान खरीदना पड़ा। सब्जियां, खाने का तेल, दूध और एलपीजी को खरीदना पड़ता है। यह सारी चीजें हमारी मुश्किलें बढ़ाती हैं। मैं अपनी गरीबी को इस स्थिति के लिए जिम्मेदार ठहराता हूं।" 

उत्तर प्रदेश के 6 दर्जन से ज़्यादा परिवारों में रॉयटर्स द्वारा किए गए सर्वे के मुताबिक़, "उत्तर प्रदेश सरकार ने बताया है कि मार्च, 2020 में महामारी के आने के बाद से कर्ज़ लेने की दर तीन गुना ज़्यादा बढ़ चुकी है और इनमें से आधे कर्ज़ पिछले 6 महीनों में लिए गए हैं।" 

रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक़, "बढ़ती हुई बेरोज़गारी, राज्य द्वारा लागू लॉकडाउन, बड़े पैमाने पर अस्पतालों में मरीज़ों के भर्ती होने और तीसरी लहर की संभावना के चलते कई लोग अपने ख़र्च को कम कर रहे हैं।" रिटेल एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया के मुताबिक़, चप्पल-जूतों, किराना और सौंदर्य उत्पादों की बिक्री अप्रैल 2021 में 49 फ़ीसदी कम हो गई थी।

31 मार्च, 2021 को ख़त्म हुए वित्त वर्ष में भारत का सकल घरेलू उत्पाद भी 7.3 फ़ीसदी तक कम हो गया था। सरकार ने अंदाजा लगाया था कि 2021-22 में विकास दर 10.5 फ़ीसदी रहेगी। लेकिन कोरोना की दूसरी लहर ने संभावना को ख़त्म कर दिया और कई अर्थशास्त्रियों को अपने अनुमान में कटौती करनी पड़ी।

अहमद ने न्यूज़क्लिक को बताया, "गांव की 80 फ़ीसदी आबादी रोज़गार के लिए दूसरे शहरों पर निर्भर करती है। जब कोरोना के चलते स्थिति बदतर होनी शुरू हुई, तो हर कोई गांव लौट आया। चूंकि हर कोई कमज़ोर आर्थिक तबके से आता है, तो कई परिवारों को कर्ज़ लेना पड़ा। मैंने व्यक्तिगत स्तर पर भी कई लोगों की मदद की। अब जब स्थिति सामान्य हो रही है, तो इन लोगों ने कर्ज़ लौटाना शुरू कर दिया है। लेकिन इससे इनकी क्रय क्षमता में कमी आ गई है और दूध, दही जैसी चीजों की ख़पत कई गुना कम हो गई है।"

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

How COVID-19 Pandemic Pushed Life Backwards in Uttar Pradesh's Nizamatpura Village

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