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ग्रामीण भारत में कोरोनावायरस का प्रभाव-40: एमपी के रोहना गांव में पीडीएस के अनाज में हो रही देरी से ग्रामीणों की खाद्य सुरक्षा खतरे में

इस बीच ज़्यादातर किसानों को अपनी गेहूं की उपज की बिक्री के बाद 18 से 20 दिनों तक अपने खातों में इसके भुगतान के लिए इंतज़ार करना पड़ा है।
ग्रामीण भारत में कोरोनावायरस का प्रभाव-40
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: द हिन्दू

यह एक जारी श्रृंखला की 40वीं रिपोर्ट है जो ग्रामीण भारत के जीवन पर कोरोनावायरस से संबंधित नीतियों से पड़ रहे प्रभावों की झलकियाँ प्रदान करती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च की ओर से जारी इस श्रृंखला में विभिन्न विद्वानों की रिपोर्टों को शामिल किया गया है, जो भारत के विभिन्न हिस्सों में मौजूद गाँवों के अध्ययन को संचालित कर रहे हैं। रिपोर्ट उनके अध्ययन में शामिल गांवों में मौजूद प्रमुख उत्तरदाताओं के साथ संचालित टेलीफोनिक साक्षात्कारों के आधार पर तैयार की गई है। इस रिपोर्ट में एमपी के रोहना गांव में किसानों द्वारा काटी गई गेहूं की उपज को बेचने और मूंग की फसल के लिए की जा रही तैयारियों के सन्दर्भ में पेश आ रही चुनौतियों पर चर्चा करती है। इसके साथ ही इस रिपोर्ट में गांव में खेतीबाड़ी के साथ-साथ रोहना निवासियों के बीच गैर-खेतिहर कामकाज की उपलब्धता, खाद्य सुरक्षा और अन्य चुनौतियों पर भी चर्चा की गई है।

रोहना गांव मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में स्थित है। कोरोनावायरस महामारी की वजह से खेती-किसानी और गैर-कृषि गतिविधियों पर महामारी से प्रेरित लॉकडाउन से पड़ रहे प्रभावों और उस पर सरकार द्वारा उठाये जा रह क़दमों पर यह दूसरी रिपोर्ट है।

खेती-बाड़ी से संबंधित कामकाज पर पड़ता असर

रबी के सीजन के दौरान रोहना में 95% खेती योग्य भूमि को गेहूं की फसल उगाने में इस्तेमाल किया जाता है। अप्रैल की शुरुआत तक यहाँ पर गेहूं की कटाई का काम पूरा हो चुका था। रोहना के करीब-करीब सभी किसानों ने अपने गेंहूँ की फसल राज्य सरकार को या गांव में इसके खरीद केंद्र के तौर पर काम कर रहे सहकारी समिति को बेच दिया था। चूँकि फसल खरीद की प्रक्रिया इस साल देरी से शुरू हो पाई थी, इसलिए इस बार किसानों को अस्थायी तौर पर अनाज को या तो अपने घरों में या खलिहान में प्लास्टिक की चादरों से ढककर रखना पड़ा था ताकि इसे बारिश से बचाया जा सके।

सरकारी खरीद की प्रक्रिया अंततः 15 अप्रैल से शुरू हो सकी थी, लेकिन पिछले साल की तुलना में यह काफी धीमी रफ्तार से आगे बढ़ रही है।

उदाहरण के लिए पिछले साल जहाँ 9 मई, 2019 तक 61,000 क्विंटल उपज की खरीद की जा चुकी थी, वहीं 2020 में इसी तारीख तक मात्र 31,000 कुंतल गेंहूँ की ही खरीद की जा सकी है। इसकी एक वजह तो ये है कि अनाज तौलने और ट्रकों में बोरियों की लदाई का काम काफी धीमी रफ्तार से चल रहा है। आमतौर पर ये कार्य बिहार से आने वाले प्रवासी मजदूरों द्वारा संपन्न किये जाते थे, जो लॉकडाउन की वजह से इस साल गांव नहीं आ सके थे। इसकी भरपाई के लिए खरीद केंद्र ने गांव के भीतर से ही कुछ नौजवानों को इस काम के लिए नियुक्त किया था, लेकिन चूँकि वे इस काम के अभ्यस्त नहीं हैं, जिसके कारण खरीद का काम काफी धीमी गति से आगे बढ़ रहा है।

इसके साथ ही ज्यादातर किसानों को अपने गेहूं की बिक्री के बाद उसके भुगतान के लिए 18 से 20 दिनों तक का इंतजार करना पड़ रहा है। उदाहरण के लिए एक किसान जिसके पास 2.5 एकड़ की जमीन है, ने औपचारिक सरकारी खरीद की शुरुआत की घोषणा के चार दिन बाद ही 18 अप्रैल को अपना गेहूं बेच डाला था। इसका भुगतान उसके खाते में 9 मई को ही जाकर हो सका था। इस प्रकार की देरी से किसानों के आगे का काम-काज काफी हद तक प्रभावित होता है, जिसमें उसके घरेलू उपभोग के लिए की जाने वाली आवश्यक वस्तुओं की खरीद के साथ-साथ अगले फसल के लिए जरुरी कृषि इनपुट की खरीद का काम व्यापक पैमाने पर प्रभावित होने लगता है। इन्हीं जरूरतों को ध्यान में रखते हुए कुछ छोटे किसानों ने अपने अनाज का एक हिस्सा स्थानीय किराने की दुकानों पर काफी कम रेट पर (1,925 रुपये प्रति कुंतल के न्यूनतम समर्थन मूल्य के बजाय 1,500 से 1,600 रुपये प्रति क्विंटल) बेच डाला है।

आमतौर पर गेहूं की कटाई और मूंग की बुवाई के बीच में 15 से 20 दिनों का अंतर बना रहता है। इस दौरान अक्सर किसान सूखे पुआल की कटाई का काम करते हैं, जो गेहूं की फसल से निकलने वाला एक महत्वपूर्ण सह-उत्पाद है जिसे गांव के लोग अपने पशुओं को खिलाने के लिए चारे के तौर पर इस्तेमाल में लाते हैं। ये परिवार आमतौर पर पूरे साल भर के लिय इस समय पर्याप्त सूखे चारे का स्टॉक जमा कर रख लेते हैं। लेकिन इस साल गेहूं की कटाई में हुई देरी की वजह से पुआल की कटाई का समय भी घटकर मात्र 8-10 दिन का रह गया था। गांव में पुआल काटने वाली अतिरिक्त मशीनों की भी कमी देखने को मिली थी। इसकी वजह से कई परिवारों में आवश्यकतानुसार पर्याप्त पुआल की कटाई नहीं हो सकी थी, और साल के अंत में जाकर उन्हें इसे ऊँचे दामों पर खरीदने के लिये बाध्य होना पड़ेगा।

मूंग एक महत्वपूर्ण नकदी फसल है जिसकी खेती रोहना के करीब 50% किसानों द्वारा की जाती है, और इन सभी के पास अपने खुद के सिंचाई के साधन मौजूद हैं। इस साल इस बात को लेकर चर्चा थी कि तवा नदी पर बने बांध से पानी छोड़ा जाएगा, जिससे नहर के पानी से सिंचाई संभव सकेगी, जिसकी वजह से इस बार कई अन्य किसान भी मूंग की खेती को लेकर उत्साहित थे। कुछ अनिश्चितताओं के बाद आख़िरकार 10 अप्रैल को बांध से पानी छोड़ दिया गया था। कई किसानों ने इस बात की शिकायत की है कि पानी की आपूर्ति अनियमित बनी हुई थी, लेकिन उनका कहना था कि चूँकि सरकारी महकमा इस दौरान महामारी की समस्या से निपटने में व्यस्त था, इसलिये उन्होंने इस मुद्दे पर इस समय ज्यादा तूल देना उचित नहीं समझा। वहीँ कुछ किसानों ने गेहूं की कटाई में हुई देरी के चलते मूंग की खेती की अपनी योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया है।

एक किसान जिसके पास 3.5 एकड़ जमीन है ने बताया कि उसने मूंग की खेती के लिए बीज खरीदकर रखे थे, लेकिन जब लगा कि मानसून से पहले फसल के उगने के लिए पर्याप्त वक्त (करीब 60 दिन) नहीं मिल सकेगा तो उसने इसकी खेती करने के विचार को इस साल त्याग दिया है। अन्य किसान भी देर से फसल बो सके हैं, लेकिन उनकी योजना है कि फसल कटाई के दौरान वे एक ऐसे रसायन का उपयोग करेंगे जिसके इस्तेमाल से रातोंरात पौधों को सुखाना संभव हो सकेगा।

मूंग की फसल में तीन से चार दफा कीटनाशक के छिड़काव की आवश्यकता पड़ती है। ये कीटनाशक तुलनात्मक तौर पर महँगे होने की वजह से उधार पर नहीं उपलब्ध हो पा रहे हैं। जबकि ऐसे बहुत से किसान हैं जिनकी गेहूं की फसल तक अभी नहीं बिक पाई है, जिसके चलते वे इन आवश्यक कीटनाशकों की खरीद कर पाने में अनेकों मुश्किलों का सामना कर रहे हैं। वहीं कुछ ने इसके लिये अपने जान-पहचान के लोगों से अल्पकालिक ऋण लेने का सहारा लिया है, लेकिन कईयों को कर्ज मिल पाना तकरीबन नामुमकिन सा लग रहा है, क्योंकि आज के हालात को देखते हुए जो लोग अपेक्षाकृत संपन्न परिवार हैं वे भी अनिश्चित माहौल को देखते हुए उधार पर पैसे देने को लेकर अनिक्छुक बने हुए हैं। वहीं एक अच्छी बात यह भी देखने को मिली है कि कुछ किसानों ने फिलहाल के लिए खाद और कीटनाशकों को आपस में साझा करने का प्रबंध कर लिया है।

गांव के कई किसानों को इस बात का अंदेशा है कि मूंग की फसल को काटने में लागत इस बार पहले से कहीं ज्यादा आने वाली है। यहाँ के कई घरों के पास अपने कंबाइन-हार्वेस्टर हैं, इसलिए किसानों को नहीं लगता कि इन मशीनों की उपलब्धता को लेकर कोई परेशानी होने जा रही है, हालाँकि उन्हें आशंका है कि इसके मालिकान इस बार कटाई के दामों में बढ़ोत्तरी कर सकते हैं। उदाहरण के लिए एक हार्वेस्टर मालिक ने इस साल 1,600 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से अपनी मशीनों से फसल कटाई की योजना बना रहा है, जबकि पिछले साल उसने आस-पास के जिलों में 1,200 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से हार्वेस्टर का किराया वसूला था। और जिस तरह की विकट परिस्थितियाँ बनी हुई हैं, उसे देखते हुए किसानों के पास कोई और चारा भी नजर नहीं आ रहा है।

गैर-खेतिहर श्रमिकों पर पड़ता दुष्प्रभाव

गांव में मौजूद भूमिहीन परिवारों में से अधिकांश पुरुष और कुछ महिलाएं प्रतिदिन होशंगाबाद शहर में निर्माण मजदूरों के बतौर या शहर की दुकानों में काम के सिलसिले में जाया करते हैं। रोजाना के हिसाब से ये लोग करीब 250 से 300 रुपये की कमाई कर लेते हैं। पिछले 50 दिनों से इन श्रमिकों के पास कोई काम नहीं बचा है और इनमें से अधिकांश के पास इस बीच गांव में भी आय का कोई वैकल्पिक स्रोत नहीं बन सका है। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया था कि कुछ युवाओं को सहकारी समिति ने अपने पास रोजगार पर रखा है, लेकिन किसी भी महिला या वृद्ध पुरुष को रोजगार नहीं मिल सका है।

नीचे तीन लोगों के अनुभवों का सार-संकलन पेश किया गया है जो महामारी और उससे निपटने के लिए अपनाए गए लॉकडाउन की मियाद को बढ़ाते जाने से विभिन्न उद्योगों और परिस्थितियों में फँसे श्रमिकों पर पड़ रहे प्रभाओं के बारे में बताती है।

बीस वर्षीय राजेश पिछले 18 महीनों से होशंगाबाद के एक थोक कपड़ा विक्रेता की दुकान पर नौकरी कर रहा है। अपने परिवार का वह एकमात्र कमाऊ सदस्य है और महीने में उसे 4,000 रुपये वेतन के तौर पर मिलते हैं। 22 मार्च से यह दुकान बंद पड़ी है जबकि 17 मार्च को उसे अपनी अंतिम तनख्वाह मिली थी। उसके सहकर्मियों ने दुकान के मालिक से अनुरोध किया था कि उन्हें अप्रैल के महीने के लिए कुछ पैसे या उनके वेतन का एक हिस्सा दे दिया जाए, लेकिन दुकानदार ने इसे देने से साफ़ इंकार कर दिया था। सहकारी समिति की ओर से गांव में जो अस्थायी रोजगार उपलब्ध कराया गया था (दो महीने के कीमत का), उसे राजेश ने उसे लेने से इंकार कर दिया था। क्योंकि लॉकडाउन कितने समय तक और चलेगा, इसको लेकर वह असमंजस में था। उसे इस बात का डर बना हुआ था कि यदि इस बीच लॉकडाउन खुल जाता है, और यदि वह काम पर वापस नहीं जा सका तो ऐसे में उसे अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है।

लॉकडाउन की शुरुआत के फौरन बाद ही उसने एक स्थानीय किराने की एक दुकान में 5,000 रुपये जमा करा दिए थे। 30 अप्रैल तक उसके परिवार ने इस दुकान से 3,000 रुपये तक की कीमत का किराने का सामान खरीद लिया था। राजेश के पास अब किराने की दुकान पर जमा 2,000 रुपये की रकम के अलावा कोई अन्य बचत नहीं है। यदि कपड़े की दुकान इसी प्रकार से बंद पड़ी रहती है, तो वह इस बात को लेकर फिक्रमंद है कि आगे के लिए उसे कर्ज लेना पड़ सकता है। उसका कहना है कि इस परिस्थिति में उसके परिवार को 1,500 से 2,000 रुपये से अधिक उधार नहीं मिलने वाला क्योंकि उसके अधिकांश परिचित लोग भी आर्थिक तौर पर बेहद कठिन दौर से गुजर रहे हैं।

पचपन वर्षीय रहीम होशंगाबाद शहर में अपने भतीजे की दुकान में दर्जी के बतौर कार्यरत हैं। यह दुकान पिछले 22 मार्च से बंद पड़ी है और तीन सदस्यों वाला उनका परिवार सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत मिलने वाले राशन पर निर्भर है, जो उन्हें मार्च के मध्य में मिला था और अब खत्म होने के कगार पर है। पिछले महीने रहीम के पास जरुरी दवाओं की खरीद तक के लिए पैसे नहीं बचे थे। घर में जन धन खाता न होने की वजह से उन्हें सरकार द्वारा घोषित 500 रुपये का नकद हस्तांतरण नहीं हो सका। रहीम की पत्नी को स्वयंसेवी समूह द्वारा एक दाई के तौर पर नौकरी पर रखा गया था, जो स्थानीय स्कूल के लिए दोपहर का भोजन तैयार करता है। अब चूंकि वह इस संस्था में स्थायी तौर पर काम नहीं करतीं, इसलिए मार्च के बाद से उसे कोई वेतन नहीं दिया गया है।

33 वर्षीय करुणा जोकि एक महिला हैं, वे अपनी सात वर्षीय बेटी, माता-पिता और दो भाइयों के साथ रहती हैं। उनके दोनों भाई निर्माण क्षेत्र में दिहाड़ी मजदूरी करते हैं, लेकिन लॉकडाउन लागू हो जाने के बाद से उनके पास कोई रोजगार नहीं है। करुणा घर पर ही रहकर सिलाई का काम करती हैं और इस कामकाज से उन्हें हर महीने लगभग 6,000 रुपये की कमाई हो जाती थी। आमतौर पर अप्रैल और मई का महिना उनके सिलाई के काम के लिहाज से काफी मायने रखता है क्योंकि आमतौर पर यह शादियों का सीजन होता है। लेकिन इस बार लॉकडाउन की वजह से सिलाई का कोई नया काम नहीं आया है, और इन हालात में लोग कपड़ों पर खर्च करने को अनिक्छुक हैं। उनके माता-पिता ने खेतों की सफाई के काम से एक क्विंटल गेहूं इकट्ठा किया था और इसके अलावा जो भी थोड़ी-बहुत बचत घर में थी उसे परिवार ने पिछले महीने अन्य आवश्यक खाद्य पदार्थों की खरीद में इस्तेमाल कर लिया था। करुणा के अनुसार गांव में कृषि आधारित रोजगार उपलब्ध होने में काफी मुश्किलें हैं, क्योंकि कई किसान अब खेतों में अपने घर के लोगों से ही काम चला रहे हैं ताकि काम पर रखने वाले श्रमिकों को दिए जाने वाली मजदूरी से बचा जा सके।

कुछ ग्रामीण पास के जिले की दो कताई मिलों में नौकरी किया करते हैं। इन मजदूरों को 23 मार्च के दिन फैक्ट्री गेट से ही वापस भेज दिया गया था और अभी तक काम पर वापस आने के लिए नहीं कहा गया है। तकरीबन आठ दिनों तक बंद रहने के बाद फैक्ट्री ने प्रशासन से एक बार फिर से परिचालन की इजाजत हासिल कर ली थी। इसके बाद से इसे 33% की क्षमता पर ही उन श्रमिकों की मदद से चलाया जा रहा है, जो शहर के भीतर ही फैक्ट्र परिसर में बने क्वार्टरों में रहते हैं। इन कारखानों में काम करने वाले आधे से ज्यादा मजदूर ऐसे हैं जो आसपास के इलाकों से यहाँ पर काम के लिए आते हैं। उन सभी को अभी तक काम पर वापस नहीं बुलाया गया है। एक कारखाने में सुपरवाइजर के पद पर काम करने वाले व्यक्ति ने बताया कि प्रबंधन ने अपने मजदूरों को अप्रैल माह की तनख्वाह का भुगतान करने का फैसला तो ले लिया है, लेकिन इसके वितरण में अभी एक सप्ताह की देरी है। उसके विचार में जब तक सार्वजनिक परिवहन सेवाएं सामान्य दिनों की तरह बहाल नहीं हो जातीं, तब तक कारखानों के परिचालन का काम अपनी पूरी क्षमता से नहीं शुरू होने जा रहा है। उनका यह भी मानना है कि इस अनिश्चितता के वातावरण को देखते हुए प्रबंधन फैक्ट्री में उत्पादन बढाने के लिए और पूँजी निवेश को लेकर इच्छुक नहीं है।

गांव में मौजूद कई छोटी-मोटी दुकानें जिनमें खाने-पीने की दुकानों के साथ-साथ नाई की दुकान, टेलरिंग शॉप और राशन की दुकानें जिन्हें ग्रामवासी चलाया करते थे, वे सभी लॉकडाउन के बाद से बंद पड़ी हैं, और इन दुकानों के मालिक एक बार फिर से काम-धाम शुरू करने को लेकर काफी बैचेन हैं।

गांव के भीतर रोजगार की माँग काफी तेज हुई है, लेकिन इसके बावजूद मनरेगा के तहत अभी तक कोई काम नहीं शुरू हो पाया है। यदि ऐसा हो जाता तो इससे भूमिहीन परिवारों को बेहद जरूरी मदद मिल सकती थी।

खाद्य सुरक्षा और घरेलू वित्त पर पड़ता असर

अधिकांश परिवारों को मार्च के मध्य में पीडीएस के तहत जो राशन मिला था, वह खत्म हो चुका है और वे उसकी अगली किस्त के मिलने के इंतजार में हैं। लेकिन इस सम्बंध में अभी तक कोई सूचना नहीं मिल सकी है कि इस कार्य को कब तक किया जायेगा। लॉकडाउन की घोषणा के बाद से ही गांव में स्थित दोनों आंगनबाड़ी केंद्र बंद पड़े हैं। हर मंगलवार के दिन आंगनवाड़ी कार्यकर्ता गर्भवती महिलाओं के बीच सिर्फ सत्तू (भुना हुए चने) के वितरण को सुनिश्चित कर पा रही हैं, क्योंकि किसी भी अन्य खाद्य पदार्थों की खरीद के लिए उन्हें कोई धनराशि मुहैया नहीं कराई गई है। इसी तरह मध्याह्न भोजन योजना भी स्कूलों के बंद होने के बाद से ठप पड़ी है।

गांव में आर्थिक तौर पर कमजोर परिवार अक्सर उधारी पर सामान्य कीमतों से ऊँची दर पर अपनी जरूरत की वस्तुओं को स्थानीय किराने की दुकानों से खरीदा करते थे। लेकिन आजकल इन किराने की दुकानों में उधार पर खाद्य सामग्री नहीं दी जा रही है। इसकी वजह से कई दिहाड़ी मजदूरों के घरों में आर्थिक संकट काफी तीव्र हो चुका है। इसके साथ ही बार-बार लॉकडाउन के बढाते जाने से अधिकतर वस्तुओं की कीमतों में तेजी देखने को मिल रही है। उदाहरण के लिए खाद्य तेल की कीमत जो पहले 95 रुपये प्रति लीटर हुआ करती थी, वह अब 110 रुपये प्रति लीटर हो चुकी है, मूंगफली की कीमत 100 रुपये प्रति किलोग्राम से बढ़कर 126 रुपये प्रति किलोग्राम, चीनी की कीमत 38 रुपये प्रति किलोग्राम से बढ़कर 45 रुपये प्रति किलोग्राम के आसपास हो चुकी है। हालाँकि दूध और सब्जियों की कीमतों में कोई ख़ास फर्क देखनी को नहीं मिला है, लेकिन आर्थिक तंगी के चलते कई परिवारों ने इन वस्तुओं की खपत में की जा रही कमी के बारे में सूचित किया है।

अधिकांश परिवारों में तम्बाकू और बीड़ी पर भी रकम खर्च की जाती है, जो कि एक अतिरिक्त खर्चा है और इन वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोत्तरी की दर काफी तेज रही है। एक बंडल बीड़ी की कीमत जो लॉकडाउन से पहले 22 रुपये हुआ करती थी, उसे अब 50 रुपये में बेचा जा रहा है। एक पाउच तंबाकू जो 40 रुपये की कीमत पर मिल जाया करता था, अब 60 रुपये या उससे अधिक दाम पर बिक रहा है। लॉकडाउन के दौरान भी शराब की खपत का क्रम बना हुआ था। ग्रामीणों ने सूचित किया है कि लोग पड़ोस के गांव में बनाई जा रही देशी शराब (महुए के पेड़ के फूलों से निकाली गई) खरीद रहे हैं।

कई छोटे किसानों और मेहनत मजदूरी करने वाले लोगों ने मासिक किस्तों पर मोबाइल फोन, टेलीविजन सेट और कुछ अन्य घरेलू सामानों की खरीद कर रखी है। अब इन परिवारों में से जिन्हें इस लॉकडाउन के दौरान कोई काम नहीं मिल पाया या जिनकी आय में गिरावट दर्ज हुई है, इनकी किस्तों को समय पर न भरने पर लगने वाली पेनल्टी से बचने के लिए और अधिक वित्तीय बोझ का सामना करना पड़ रहा है।

निष्कर्ष के तौर पर कह सकते हैं कि गेहूं की खरीद में हुई देरी, खेतीबाड़ी के कामों में इस दौरान पैदा हुई कुछ प्रमुख रुकावटों और आवश्यक कृषि इनपुट्स की खरीद में हुई कमी आदि ये कुछ ऐसी महत्वपूर्ण समस्याएं बनी हुई थीं, जिनसे रोहना के किसान त्रस्त हैं। कोरोनावायरस सम्बंधी प्रतिबंधों का यदि किसी तबके पर सबसे भयानक असर पड़ा है तो वे भूमिहीन मजदूर हैं: इनमें से अधिकतर लोगों के पास इस बीच कोई रोजगार उपलब्ध नहीं हो सका था, और इनके पास पहले का बचा जो भी कुछ थोडा बहुत था, उसे खर्च कर उन्होंने किसी तरह खुद को अभी तक जिन्दा रखा हुआ है।

[यह रिपोर्ट 1 मई से लेकर 13 मई 2020 के बीच 17 उत्तरदाताओं के साथ की गई बातचीत के आधार पर तैयार की गई है।]

लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ रीजनल डेवलपमेंट, जवाहरलाल नेहरु विश्विद्यालय में रिसर्च स्कॉलर हैं।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

COVID-19 in Rural India-XL: In MP’s Rohna Village, PDS Delays Challenge Food Security of Villagers

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