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कोविड-19 टीकाकरण : एक साल बाद भी भ्रांतियां और भय क्यों?

महाराष्ट्र के पिलखाना जैसे गांवों में टीकाकरण के तहत 'हर-घर दस्तक' के बावजूद गिने-चुने लोगों ने ही कोविड का टीका लगवाया। सवाल है कि कोविड रोधी टीकाकरण अभियान के एक साल बाद भी यह स्थिति क्यों?
covid
दूरदराज के आदिवासी अंचल में टीकाकरण से जुड़ी भ्रांतियों को दूर करने के लिए एक बड़े अभियान की आवश्यकता है। तस्वीर: प्रतीकात्मक, साभार: कलेक्टर कार्यालय नंदुरबार, महाराष्ट्र

कोरोना महामारी के खिलाफ कोविड-19 के वायरस को नियंत्रित करने के लिए हम तालाबंदी के दौर से बाहर आकर टीकाकरण के चरण में प्रवेश कर चुके हैं। टीकाकरण अभियान का सकारात्मक असर काफी हद तक हमारे जनजीवन पर दिखाई भी दे रहा है, लेकिन टीकाकरण अभियान को कई महीने बीतने के बावजूद भारत के दूरदराज के इलाकों में हालत यह है कि इसकी प्रक्रिया उतनी आसान नहीं है जितनी होनी चाहिए। इस अभियान को आज भी आम लोगों के डर से लेकर उनके बीच फैली कई तरह की गलतफहमियों तक कई बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है।

पिलखाना 25-30 परिवारों की आबादी वाला एक आदिवासी गांव है। यह महाराष्ट्र में यवतमाल जिले के कलंब तहसील से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। गांव का रास्ता बेहद संकरा है। उसी गांव में कोविड की दो लहरों के बीच 7-8 लोगों की मौत हो चुकी है। मौत के कारण क्या रहे, स्पष्ट नहीं हो सका है। मगर, माना यह जा रहा है कि उनकी मौत कोरोना की वजह से हुई, समय पर उनका उपचार नहीं हो सका, उनमें से कई अस्पताल जाने को तैयार न थे कि उन्हें लग रहा था यदि वे अस्पताल गए तो वहीं मर जाएंगे, उनकी लाश तक परिजनों को नसीब नहीं होगी। गांव कोविड की चपेट में था और ग्रामीणों में कोविड का भय व्याप्त था। इसके बावजूद उसी गांव में, जब भी राज्य सरकार की स्वास्थ्य प्रणाली ने कोविड टीकाकरण को लक्षित किया, लोगों ने टीकाकरण से इनकार कर दिया। क्योंकि, तीसरी लहर के बाद फरवरी, 2022 तक कोविड का डर शून्य हो गया था। उसके बाद सबसे अधिक आशंका टीकों के बारे में फैली गलत धारणाओं के कारण रहीं। राज्य या देश के कई आदिवासी बहुल या अन्य क्षेत्र हैं, जहां के कई गांवों में ऐसी या इसी तरह की परिस्थिति आज भी बनी हुई है। यह गांव तो महज एक उदाहरण है इस तस्वीर को समझने के लिए।

स्पष्टता, उत्तरदायित्व और शिक्षा का अभाव

पिलखाना जैसे गांवों में कोविड रोधी टीकाकरण अभियान 'हर-घर दस्तक' के तहत मात्र कुछ लोगों को ही टीके लगाए जा सके। जब उन कुछ लोगों से पूछा गया कि उन्होंने टीके क्यों लगवाए, तो उन्होंने जवाब दिया कि उन्होंने राशन, यात्रा और काम की समस्याओं से बचने के लिए टीका लगवाया है। पिलखाना की तरह ऐसे कई आदिवासी और दूरदराज के गांव हैं, जहां पेट के दर्द जैसी बीमारियों के उपचार के लिए लोगों को मीलों पैदल चलना पड़ता है। जब ऐसे गांवों तक टीकाकरण अभियान पहुंचा तो लोगों ने इस स्वास्थ्य सेवा को तात्कालिकता के दृष्टिकोण से देखा और उनके मन में डर था कि यदि टीका लगवाने के बाद उनकी तबीयत खराब हो गई, तो स्वास्थ्य कर्मचारियों को कहां ढूंढेंगे और ऐसी हालत में उन्हें मीलों पैदल चलना मुश्किल होगा। हालांकि, इन लोगों को गलतफहमियों से दूर करने का जिम्मा प्रशासन का था, लेकिन यह कहा जा रहा है कि स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों को छोड़कर अन्य विभागों ने कोविड सेवाओं को लेकर जैसे मुंह मोड़ लिया था। जिसमें स्थानीय सतर्कता व पंचायत समितियां भी शामिल रहीं। इसके चलते कोविड से संबंधित सेवाओं और व्यवस्थाओं में ढील हो गई। लिहाजा, इस अभियान में स्पष्टता, उत्तरदायित्व और शिक्षा का अभाव देखा गया।

दूसरी तरफ, धामनगांव गढ़ी अमरावती से 60 किलोमीटर की दूरी पर है, जहां लगभग  हजार की जनसंख्या को ध्यान में रखकर एक स्वास्थ्य केंद्र तैयार किया गया है। यहां के अस्पताल के बाह्य उपचार विभाग में प्रतिदिन 170-200 मरीज आते हैं। यहां के स्वास्थ्य कर्मचारी स्टाफ की कमी और अतिरिक्त काम के तनाव से जूझ रहे हैं। इसके बावजूद उन्होंने टीकाकरण अभियान के तहत डॉक्टरों के साथ मिलकर कोविड टीके लगाने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए काम किया।

अपर्याप्त साधन और संसाधन

वहीं, कोविड की दूसरी लहर के दौरान टीकाकरण और नियमित स्वास्थ्य सेवाओं पर किसी का ध्यान नहीं गया। इस दौरान संविदा कर्मचारियों को नियमित कर्मचारियों की जगह काफी काम करना पड़ा। उसके बाद जब यह पता लगा कि पिलखाना जैसे कई गांव के लोग कोविड रोधी टीके नहीं लगवा रहे हैं, तो उनसे इसके पीछे का कारण पूछा गया, उन्होंने कई तरह के उत्तर दिए, जैसे 'हमें कौन हवाई जहाज में बैठकर कहीं जाना है?', 'हमारे गांव में कोई कोविड नहीं है', या 'एक बार कोविड हो गया, अब दूसरी बार नहीं होगा'। इस तरह की कई सारी भ्रांतियां अब भी हैं, जो टीकाकरण की राह में रोड़ा बनी हुई हैं। दूसरी तरफ, यह भी देखा गया कि जिस दिन एनजीओ और स्वास्थ्य कर्मियों ने मिलकर ग्रामीणों को इस मुद्दे पर समझाने के लिए मुहिम चलाई, उसी दिन अकेले पिलखाना में 50 लोगों ने टीके लगवाए। 

लेकिन, सिस्टम के पास ग्रामीणों को इस मुद्दे पर समझाने के लिए अलग से मुहिम चलाने के लिए न तो समय है, न ही साधन और संसाधन, क्योंकि इसके लिए घर-घर जाकर लोगों को समझाना पड़ेगा, यानी जिसके लिए स्वास्थ्य-कर्मियों की फौज होनी चाहिए, जो नहीं है।

इस काम के लिए आशा वर्कर सबसे महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य पेशेवरों में से हो सकती थीं। लेकिन, वे लंबे समय से हड़ताल पर रही हैं। वहीं, बाकी मेडिकल स्टाफ दिन भर गांव-गांव चल फिर नहीं सकता है। इधर, स्वास्थ्य केंद्रों को बाह्य रोगी विभागों व अन्य सेवाओं के लिए सुविधाओं का इंतजार करना पड़ रहा है। हालत यह है कि किसी शहरी क्षेत्र में 80 प्रतिशत आबादी को टीका लगाने में जितना समय लगता था, उससे अधिक समय इस तरह के दूरदराज के क्षेत्र की महज 20 प्रतिशत आबादी को टीका लगाने में लग रहा है।  

पांच सूत्री रणनीति

बेशक, यह लोगों की जिम्मेदारी है कि वे अपना ख्याल रखें, अपनी खुराक और तारीख याद रखें, अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखें। यह सरकार के 'मेरा परिवार, मेरी जिम्मेदारी' अभियान का उद्देश्य रहा है। हालांकि, स्मार्टफोन डिजिटलीकरण की तरह सार्वभौमिक नहीं बन पाए हैं; कुछ नागरिकों ने तो ग्राम पंचायत के कर्मचारियों, पड़ोसियों, मालिकों आदि के फोन पर टीकाकरण के लिए पंजीकरण भी कराया। उनसे पिछले टीकाकरण का विवरण प्राप्त करना असंभव था। वहीं, सरकारी स्वास्थ्य सेवा कोविड 19 को लेकर लोगों का कड़वा अनुभव और वाट्सएप यूनिवर्सिटी में अफवाहें इतनी मजबूत हैं कि लोग अभी भी टीका लगवाने को लेकर संशय कर रहे हैं और इस संशय को दूर कर पाना स्वास्थ्य विभाग के लिए मुश्किल हो रहा है। यही वजह है कि पिछले दो साल में देश के साथ-साथ राज्य की सेहत भी लड़खड़ा गई है।

पांच सूत्री रणनीति के तहत जिन बातों पर ध्यान देने की आवश्यकता है उनमें पहला है, आवश्यकतानुसार साधन और संसाधन, लेकिन यह स्थायी होनी चाहिए। दूसरा है, गांव से तहसील स्तर तक स्वास्थ्य सुविधाओं को पूरी क्षमता से मजबूत करना। तीसरा है, नीति परिवर्तन में गांव में काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर नीतियों में बदलाव करने वाले सभी लोगों को शामिल करना। क्योंकि, अक्सर आदिवासी और ग्रामीण स्वास्थ्य विकास के मुद्दे गांव के बाहर सत्ता केंद्रित नीतियों के कारण पैदा होते थे। चौथा है, स्थानीय समितियां या जनप्रतिनिधि कोविड रोधी टीकाकरण अभियान में उतना शामिल नहीं रहे हैं, जितना कि कोविड के खिलाफ लड़ाई में शामिल रहे हैं, इसलिए ऐसी सभी समितियों को पहले पुनर्गठित, सशक्त और मजबूत किया जाना चाहिए। पांचवां है, गांव को जन स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त धन और संसाधन उपलब्ध कराना।

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