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कोविड-19: महामारी के बाद हमारा पर्यायवास कैसा होगा?

‘एक स्थायी पर्यायवास अभिशासन के मॉडल को जन-भागीदारी और उनकी सहभागिता से जोड़ा जाना चाहिए। इसे निश्चित रूप से विकेंद्रीकृत एवं लोकतांत्रिक बनाये जाने की आवश्यकता है। लोगों को उनके शहरी भविष्य को तय करने का मौका दिया जाना चाहिए।’
कोविड-19: महामारी के बाद हमारा पर्यायवास कैसा होगा?
मात्र प्रतीकात्मक उपयोग।

महामारी के बाद हमारे निवास-स्थान को कैसा होना चाहिए? यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर योजनाकारों, वास्तुकारों और शासन के विभिन्न ढांचों को समान रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है। कोविड-19 महामारी ने पहले से ही जंग लग चुकी व्यवस्था के खोखलेपन को उजागर कर दिया है, जो सिर्फ इसके ताबूत में आखिरी कील वाली कहावत को चरितार्थ कर रहा है। इसकी वजह से जो उथल-पुथल हुई है, उसे आम लापरवाही वाले रवैये से नहीं सुधारा जा सकता है, जिसके चलते ही अभी तक हमारे शहरों को टिकाऊ नहीं बनाया जा सका है।

संयुक्तराष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के एक अध्ययन में उल्लेख किया गया है कि महामारी के शुरूआती तीन महीनों में लगभग 95% मामले शहरों और शहरी केन्द्रों में पाए गये थे। महामारी ने 20 करोड़ लोगों को भयानक गरीबी की ओर धकेलने का भी काम किया है। 

इसने शहरों को मजबूत, पर्यावरणीय दृष्टि से स्थायी आस-पड़ोस को निर्मित करने के लिए बाध्य किया है। सार्वजनिक, नागरिक समाज और निजी के बीच एक ‘सामाजिक अनुबंध’ को सुनिश्चित करने के जरिये शहरों को क्षमतावान बनाया जा सकता है। इस सामाजिक अनुबंध में कमजोर लोगों के स्वास्थ्य, आवास और सुरक्षा को निश्चित तौर पर प्राथमिकता दिए जाने की जरूरत है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शहरों में समुदायों और विभिन्न वर्गों के लोगों के भूमि के मालिकाना हकों को सुरक्षित किया जाना चाहिए।

यह वह मानसिकता है जिसे समूचे विश्व के शहरों को अपनाने की जरूरत है। यदि संवैधानिक तौर पर नहीं तो कम से कम भावना के स्तर पर तो निश्चित ही। हालाँकि, हमें इसका ठीक उल्टा देखने को मिल रहा है। हमारे वर्तमान आवास टिकाऊ नहीं हैं। ऐसे 17 सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) हैं, जिनमें से छह सीधे तौर पर शहरों से संबंधित हैं।

हमारे वर्तमान निवास-स्थान हमें वांछित परिणाम नहीं दिला सकते। भारत में पिछले कुछ दशकों में  सबसे महत्वपूर्ण पृवत्ति श्रम को पूरी तरह से हाशिये पर डाल देने और शहरी मामलों के बढ़ते निगमीकरण की रही है। इसके चलते आवास एवं सामाजिक सुविधाओं के मामले में गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है, जबकि शहरों में रहने वाले लोगों की आय लगातार संकटग्रस्त बनी हुई है। महामारी ने इस समस्या को और भी अधिक घनीभूत बना डाला है। 

पूंजी निवेश को आकर्षित करने के लिए बनाई जाने वाली योजनाओं में सारा ध्यान बड़ी पूंजी-गहन प्रौद्योगिकियों पर देकर, आम लोगों की जरूरतों को दरकिनार कर दिया गया है। लोगों ने खेल के मैदानों की मांग की; इसके बजाय, उनके लिए व्यावसायिक स्टेडियमों की व्यवस्था कर दी गई। इसी प्रकार, नजदीकी स्वास्थ्य केन्द्रों के स्थान पर सुपर-स्पेशलिटी अस्पताल खोले गए। इस प्रकार की सुविधाओं तक आम लोगों की पहुँच को दुष्कर बना दिया गया, जबकि इन सुविधाओं के नाम पर उनके साझा शहरी आम जगहों को हड़प लिया गया है।

इस प्रकार का मॉडल शहरी क्षेत्रों में घर उपलब्ध करा पाने में पूरी तरह से विफल साबित हुआ है। सबसे पहले, रियल एस्टेट डेवलपमेंट को निजी पूंजी को आकर्षित करने के लिए बढ़ावा दिया गया, यह अहसास किये बिना कि ऐसे मॉडल लंबे समय तक कारगर साबित नहीं होने वाले हैं, उन्हें कई रियायतें प्रदान की गईं। भारत में लगभग 40% लोग एक कमरे वाले घरों में निवास करते हैं। शहरी जमावड़े में 40% लोग झुग्गी-झोपड़ियों में निवास करते हैं जहाँ न तो भूमि के अधिकार और न ही बुनियादी जरूरत की सुविधाएं ही मौजूद हैं। आवास का यह मॉडल हमारे शहरों को चिरस्थायी नहीं बनाए रख सकता है।

गगनचुंबी इमारतों और हवादार व्यवस्था में व्यापक स्तर पर कांच के इस्तेमाल ने संकट को गहरा दिया है क्योंकि खराब हवादार व्यवस्था वायरस के प्रसार के लिए बेहद अनुकूल है।

बीमा-संचालित शहरी स्वास्थ्य प्रणाली भी चरमरा चुकी है। केरल और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों जिन्होंने अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन किया है, ने अपनी मजबूत सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली पर भरोसा बनाये रखा। इसलिए, हमारे शहरों में स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के अनियमित निजीकरण पर जोर देने पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। 

शासन के मॉडल पर पुनर्विचार की जरूरत  

शहरी शासन का वर्तमान मॉडल, शासक-शासित उक्ति का एक लक्षण है, जो लोगों को उनकी सहभागिता वाली भूमिका को निभाने से दूर करता है। भारत में पहला शहरी आयोग 1985 में चार्ल्स कोर्रेया के तहत गठित किया गया था। इसने भारत में शहरीकरण की अपनी परिकल्पना में विनिर्माण को इसके प्रेरक शक्ति के तौर पर रखा था। इसके साढ़े तीन दशक बाद ही शहरी गतिशीलता में भारी बदलाव आ चुका है। शहरों में पूंजी संचयन को तरजीह दिए जाने की पृवत्ति लगातार बढ़ी है, जबकि असमानता की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। तकरीबन 85% कामगारों के पास अपने नियोक्ताओं के साथ कोई लिखित करार नहीं है।

स्मार्ट सिटीज मिशन (एससीएम) की शुरुआत के साथ स्थानीय निकायों एवं संस्थानों की भूमिका और भी अधिक हाशिये पर खिसक गई है। नगर परिषदें अब नकारा हो चुकी हैं, जबकि एसपीवी (स्पेशल परपज व्हीकल) द्वारा एससीएम के तहत वित्तपोषित सार्वजनिक कार्यों के बारे में फैसले लिए जाते हैं। लोगों की इच्छाओं के विरुद्ध, एससीएम विफल साबित हुए हैं। मिशन अपने अंत के करीब है लेकिन 50% प्रोजेक्ट्स भी पूरे नहीं हो पाए हैं।

एक टिकाऊ आवास अभिशासन के मॉडल को लोगों की भागीदारी और उनके जुड़ाव से जोड़े जाने की जरूरत है। इसे निश्चित तौर पर विकेन्द्रीकृत एवं लोकतांत्रिक बनाये जाने की जरूरत है। लोगों को निश्चित तौर पर अपने शहरी भविष्य को तय करने का अवसर दिया जाना चाहिए। तटीय क्षेत्र में जिस प्रकार के घरों का निर्माण किया जाता है उसे लद्दाख और किन्नौर जैसे क्षेत्रों में नहीं दुहराया जा सकता है, जहाँ तापमान शून्य से 20 डिग्री नीचे तक चला जाता है।

महामारी ने न सिर्फ वर्तमान बहस का पर्दाफाश करके रख दिया है, बल्कि हमें लीक से हटकर सोचने के लिए भी प्रोत्साहित किया है। हमें इस बात का अहसास होना चाहिए कि शहरों का अस्तित्व सिर्फ पूंजी निर्माण के लिए ही नहीं है, बल्कि उनके लोगों को प्रकृति के साथ सद्भाव के साथ जीने की जरूरत भी बेहद अहम है। इन क़दमों पर तत्काल ध्यान दिए जाने की और समाधानों को तत्काल लागू किये जाने की आवश्यकता है। हमें सामूहिक तौर पर इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि यदि हम सतत वर्तमान को हासिल कर पाने में सफल रहते हैं, तभी हमारा भविष्य बेहतर रह सकता है।

लेखक शिमला के पूर्व डिप्टी मेयर रहे हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। 

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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