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COVID-19: क्यों भारत को संक्रमण रोकने के लिए ''स्वीडन जैसे तरीक़ों'' से परहेज़ करना चाहिए

जब कोरोना वायरस से निपटने की बात आती है, तो बहुत अलग संस्कृति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाले स्वीडन की नक़्ल करना भारतीय परिस्थितियों के हिसाब से नुक़सानदेह हो सकता है।
COVID-19
दो दिन पहले कोरोना से लड़ने के लिए स्वीडन का रास्ता भारत के लिए आदर्श बताया जा सकता था। लेकिन अब नहीं।

जब कोरोना वायरस से निपटने की बात आती है, तो बहुत अलग संस्कृति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाले स्वीडन की नकल करना भारतीय परिस्थितियों के हिसाब से नुकसानदेह हो सकता है। 

बढ़ती महामारी और आर्थिक झटके से निपटने के लिए एक विशुद्ध भारतीय तरीका अपनाना चाहिए। भारत का व्यापार जगत और उद्योग अपनी गतिविधियों को शुरू करने के लिए छटपटा रहे हैं। लॉकडाउन पर मुख्यमंत्रियों के साथ प्रधानमंत्री की चार घंटे चली मीटिंग से बने एग्ज़िट प्लान में सभी भारतीय तत्व मौजूद हैं। यह पूरी तरह बहुमत के नज़रिये पर निर्भर है।  

स्वीडन में अपनाया गया यह रास्ता: पहला, सोशल डिस्टेंसिंग के तहत उठाए कदमों में कोरोना के खिलाफ़ पूरी जंग नहीं छेड़ी गई। दूसरा, स्वीडन में कुछ प्रतिबंध जरूर थे, बहुत सारे लोगों ने व्यक्तिगत स्तर पर सुरक्षा के उपाय भी अपनाए। वहां के प्रशासन को लगा कि पूरी तरह शटडॉउन करने के बजाए देश के ज़्यादातर हिस्से को सामान्य तरीके से चलने दिया जाए। 

तीसरा तरीका: वहां लॉकडाउन को सरकार ने नकार दिया। स्वीडन की मुख्य रणनीति ''हर्ड इम्यूनिटी'' की प्रक्रिया में निहित है। जब ज़्यादातर आबादी में संक्रमण के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है, तो उसे हर्ड इम्यूनिटी कहा जाता है। हालांकि यह स्वीडन की आधिकारिक राज्य नीति नहीं है। 

आज स्वीडन एक बहुत बड़ी मुसीबत में फंस गया है। 9 अप्रैल तक स्वीडन में प्रति व्यक्ति मृत्यु दर, दूसरे स्केनडिनेवियन देशों या अमेरिका से ज़्यादा हो चुकी थी। अस्पतालों में भीड़ है। स्वास्थ्यकर्मियों को अतिरिक्त घंटों तक काम करना पड़ रहा है। सेना ने स्टॉकहोम समेत बड़े शहरों में अस्पताल खोलना भी शुरू कर दिया है।

स्वीडिश सरकार आगे प्रतिबंध लागू करने के लिए बहुत ज़्यादा शक्तियां हासिल करने की कोशिश कर रही है। वहां मौतों का आंकड़ा एक हजार पहुंचने वाला है। सरकार के नए कदम से राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन लागू किया जा सकेगा। स्वीडन की सामाजिक-लोकतांत्रिक-राजनीतिक संस्कृति बिलकुल दूसरे फलक की ओर मुड़ रही है। ताजा प्रस्ताव से सरकार को बिना संसद की अनुमति से कार्रवाई करने की शक्ति मिल जाएगी।

कहा जाता है कि लॉकडाउन से व्यापार और अर्थव्यवस्था पर असर पड़ता है, जब लॉकडाउन नहीं है, तब भी स्वीडन की अर्थव्यवस्था पर कोरोनावायरस के संक्रमण का प्रभाव पड़ रहा है। देश में इतने बड़े स्तर पर नौकरियों में छंटनी की जा रही है, जितनी 2008 या 1990 के दशक में आए आर्थिक संकट में भी नहीं हुई।

''नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इकनॉमिक रिसर्च'' के मुताबिक़, स्वीडिश एजेंसी ने वित्त मंत्रालय को रिपोर्ट दी है। इसमें बताया गया है कि विकास दर में इस साल 3.4 फ़ीसदी की गिरावट आएगी। यह अमेरिकी आंकड़े से भी भयावह है, जहां विकास दर में 2.9 फ़ीसदी गिरावट की संभावना बताई गई है। भविष्य में होने वाली घटनाओं पर अनिश्चित्ता बरकरार है और सरकार द्वारा अपनाए जा रहे तरीकों से आर्थिक दिक्क़तों के आगे बढ़ने की ही संभावना है।

''हर्ड इम्यूनिटी'' रणनीति के साथ सबसे बड़ी दिक्क़त है कि इसमें 80 साल से ऊपर के कोरोना वायरस संक्रमित लोगों और 60 साल की उम्र पार कर चुके लोग, जो कई अंगों के काम न कर पाने (मल्टीपल आर्गन फेलियर) से जूझ रहे हैं, उन्हें आईसीयू में प्राथमिकता नहीं दी जाती। कुलमिलाकर, जब अस्पतालों में जगह नहीं बचेगी, तब प्रशासन आईसीयू में भर्ती करवाने लायक लोगों की पहचान करेगा, यह ऐसे लोग होंगे, जिनके कोरोना वायरस से  बचने की संभावना ज़्यादा रहेगी। 

मतलब, अगर किसी के आईसीयू में रहने के दौरान कई अंग काम करना बंद कर देते हैं, तो उसे बाहर भी निकाला जा सकता है। इसका नैतिक पक्ष भयावह है। मतलब सरकार तय करेगी कि किसको बचाना है, किसको नहीं। मतलब आने वाली गाइडलाइन के तहत मरीज़ की ''जैविक उम्र'' उसकी ''क्रमिक उम्र'' पर भारी पड़ेगी। 

दुख की बात है कि आने वाले हफ़्तों में स्वीडन में स्थिति और खराब होने वाली है। स्वीडन में दस हजार से ज़्यादा मामले सामने आ चुके हैं और 887 लोगों की मौत हो गई है। सोशल डिस्टेंसिंग के तहत दी गई छूटों पर अब फिर विचार किया जा रहा है। इन छूटों में रेस्तरां और बार को खुला रखने और लोगों के इकट्ठा होने की अनुमति शामिल थी।

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प्रधानमंत्री स्टीफन लोफवेन ने माना है कि यह तरीका अब तक सफल साबित नहीं हुआ है। प्रशासन ने लंबा इंतजार किया और संक्रमण को रोकने की कोशिश नहीं की (क्या आपको कुछ समानता दिखाई देती है)। इस प्रवृत्ति की महामारी के लिए तैयार न रहने पर लोफवेन को आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। स्वी़डन में इमरजेंसी दवाईयों का भंडारण नहीं किया गया, ना ही पर्याप्त संख्या में आईसीयू बेड उपलब्ध हैं (इसमें भी आपको समानता नज़र आ रही होगी?)। 

हर्ड इम्यूनिटी की थीसिस उस विचार से आती है, जिसके तहत कहा जाता है कि अगर किसी आब़ादी का बड़ा हिस्सा बीमारी में जिंदा रह जाता है, तो आम जनता में उस संक्रमण के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है।  फिर यह जानना अहम नहीं रह जाता कि कितने लोग संक्रमित हुए हैं! स्वीडन का मक़सद स्वास्थ्य ढांचे पर भार को कम करने और अर्थव्यवस्था को सुचारू और लोगों में फैलने वाली संक्रमण दर को कम करने का है।

यह एक मानने लायक तथ्य है कि हर्ड इम्यूनिटी एक ऐसी चीज है, जिससे कोरोना वायरस के संक्रमण को धीमा किया जा सकता है। ज्याद़ातर एपिडेमियोलॉजिस्ट इस बात पर सहमत हैं। यह दो में से एक तरीका है- पहला, कोई समुदाय हर्ड इम्यूनिटी हासिल कर ले। इसके लिए बड़ी संख्या में लोगों का संक्रमित होकर ठीक होना जरूरी है। दूसरे तरीके के तहत वैक्सीन लगाकर लोगों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर दी जाए।

जाने-माने संक्रमण नियंत्रक विश्लेषक प्रोफेसर लोथर वीलर का कहना है कि महामारियां कई लहरों में आती हैं। कोरोना वायरस कैसे फैलेगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि कितने लोग वायरस से संक्रमित होने के बाद ठीक होते हैं और कितने जल्दी वैक्सीन बनता है। वीलर, बर्लिन के रॉबर्ट नॉक इंस्टीट्यूट के हेड हैं। यह संस्थान महामारी और कोरोना वायरस पर देश का प्रतिनिधि शोध संस्थान है। 

उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि कोरोना वायरस का संक्रमण दो साल तक चल सकता है। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि एक प्रभावी वैक्सीन कितने वक़्त में बन सकेगा और लोग संक्रमित होने के बाद कितने दिन में प्रतिरोधक क्षमता विकसित करेंगे। 

लेकिन यहां सबसे ज़्यादा डर उन चीजों का है, जिनके बारे में हम नहीं जानते। ''हर्ड इम्यूनिटी'' से जुड़े किसी भी तरह के आंकड़े हमारे पास नहीं हैं। इतनी ख़तरनाक महामारी के दौर में ऐसे प्रायोगिक कदम के पक्ष में हमारे पास जरूरी सबूत नहीं हैं। इस रास्ते पर आगे बढ़ने के बाद वापसी मुश्किल होगी। इस बीच स्वीडन में मृत्युदर पड़ोसी देशों से तेज़ चल रही है। स्वीडन की रणनीति उल्टी पड़ गई है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक पर पढ़ सकते हैं।

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

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