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कोविड-19: क्या नौजवान मोदी सरकार से मुंह मोड़ रहे हैं ?

बीजेपी की हमेशा चुनावी अभियान के अंदाज़ में रहने’ की आज़माई और सोची-परखी रणनीति अभी हाल ही में उल्टी पड़ती दिख रही है। यह कुछ ऐसे ही सबक हैं, जिन्हें बीजेपी ने सीखा नहीं है।
मोदी
फ़ोटो: साभार: वनइंडिया

भारत में ब्रिटिश राज के दिनों के दौरान औपनिवेशिक सरकार ने राज के ब्रिटिश उच्च अधिकारियों के पास लाये गये हर मरे हुए कोबरा (काला नाग) के लिए एक इनाम देने की नीति लागू की थी; दरअसल यह क़दम दिल्ली के नागरिकों को परेशान करने वाले ज़हरीले कोबरे की आबादी को नियंत्रित करने की एक कोशिश थी। वह नीति शुरू में कामयाब होती दिखी, जिसमें सांप पकड़ने वाले पेशेवर इनाम पाते रहे और शहर में कोबरे की संख्या में गिरावट आने की बात कही जाती रही। हालांकि, बीतते समय के साथ इनाम की ख़ातिर पेश किये जाने वाले मृत कोबरों की संख्या में कमी आने के बजाय हर महीने बढ़ोत्तरी ही होती गयी। ऐसा क्यों हुआ, किसी को नहीं पता।

आख़िर इसकी वजह क्या थी? असल में लोगों ने इनाम पाने की ख़ातिर कोबरों का पालन शुरू कर दिया था! जैसे ही इस बात का पता चला, इस योजना को समाप्त कर दिया गया और नये-नये पाले जा रहे कोबरे इसलिए जहां-तहां छोड़ दिये गये क्योंकि इन कोबरों को पालने वालों के लिए ये कोबरे आय के स्रोत नहीं रहे। इस तरह समस्या और बढ़ गयी। सालों बाद 'कोबरा इफ़ेक्ट' शब्द चलन में आ गया; इस शब्दावली का इस्तेमाल किसी समस्या के एक ऐसे हल के लिए किया जाने लगा जिसकी वजह से ऐसे नतीजे सामने आये जिसने समस्या को और भी बदतर बना दिया हो।

अभी हाल ही में कोबरा इफ़ेक्ट का शिकार केंद्र सरकार भी हुई है। मौजूदा व्यवस्था की एक स्पष्ट ख़ासियत अपने हिसाब से किसी परिघटना को छोटा-बड़ा दिखाने का रहा है। इस सरकार का उपहास एक ऐसी सरकार के तौर पर होता रहा है, जिसकी दिलचस्पी और निवेश पीआर और हेडलाइन-प्रबंधन में ज़्यादा है और शासन या आपदा-प्रबंधन के मामले में कम है। मोदी सरकार कोविड-19 महामारी की इस दूसरी लहर से निपटने में जिस तरह के प्रबंधन या कुप्रबंधन का सहारा ले रही है, उसे लेकर इस सरकार की ज़बरदस्त आलोचना हो रही है। मामले बद से बदतर हो रहे हैं और सरकार अपने को प्रदर्शित करने की लड़ाई को भी हारती हुई दिख रही है।

धारणा या छवि गढ़ने-बिगाड़ने के प्रबंधन जैसी कला के बूते मोदी सरकार ने हाल के सालों में ज़बरदस्त राजनीतिक फ़ायदा उठाने में महारत हासिल कर ली है। लेकिन अब वह कला फिलहाल काम नहीं कर पा रही है। धारणा बनाने की लड़ाई को नियंत्रित करने में सक्षम होने के लिए इस सरकार ने आलोचना और प्रेस के हमले से निपटने के लिए जो बेहद हमलावर और तानाशाही रवैये अपनाये हैं, वे बुरी तरह से उलटे पड़ते दिख रहे हैं। लगता है कि कोबरा इफ़ेक्ट ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। महामारी से निपटने में सरकार की विफलता को लेकर सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर किये जा रहे पोस्ट के हटाये जाने को लेकर सरकार की तरफ़ से होने वाली ज़ोर-ज़बरदस्ती और निरंकुश रणनीति या फिर दुनिया के अग्रणी अख़बारों में तीखे संपादकीय के जवाब में लिखी जा रही नाराज़गी से भरे जवाब ने इस पीआर संकट को और भी बदतर कर दिया है।

जिस समय देश कोविड-19 की दूसरी लहर की घातक चपेट में है उस समय भी प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ऐसा ही कुछ करने में व्यस्त थी जिसके लिए वह जानी जाती रही है और वह है-इवेंट मैनेजमेंट और ब्रांड बिल्डिंग। 7 अप्रैल को जब दूसरी लहर ने पूरे देश में कहर बरपाना शुरू कर दिया था, केंद्र सरकार तब भी बेड, वेंटिलेटर, ऑक्सीज़न और वैक्सीन की खुराक को लेकर एकदम बेपरवाह थी। उस समय, प्रधानमंत्री बोर्ड परीक्षाओं के मौसम के पहले छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों के साथ अपनी बातचीत के चौथे और 'परिक्षा पे चर्चा' के पहले वर्चुअल संस्करण  का आयोजन कर रहे थे।

हालांकि परीक्षा के दौरान आसान सवाल से पहले मुश्किल सवालों के जवाब देने की प्रधानमंत्री की पारंपरिक ज्ञान-परायण सलाह की सोशल मीडिया पर व्यापक रूप से खिल्ली उड़ायी गयी थी। अगर किसी की नज़र घटना के इस ग़लत समय पर नहीं जा रही है, तो इसका मतलब है कि वह उस घटना को समग्रता में नहीं देख पा रहा हैं। प्रधानमंत्री ने छात्रों के साथ बातचीत में उन्हें मुश्किल विषयों से दूर भागने के बजाय उससे जूझने की सलाह दी थी, इसके ठीक एक हफ़्ते बाद प्रधानमंत्री ने शिक्षा मंत्रालय और सीबीएसई के अधिकारियों के साथ एक उच्च-स्तरीय बैठक की अध्यक्षता की। उस बैठक में कोविड-19 मामलों में उछाल के बीच परीक्षा आयोजित करने को लेकर देशव्यापी हाहाकार के बाद कक्षा 10 की परीक्षाओं को रद्द करने और कक्षा 12 की परीक्षाओं को स्थगित करने का फ़ैसला लिया गया। इस तरह, ‘परीक्षा पे चर्चा’ का जो समय चुना गया, उससे कुछ अहम सवाल पैदा होते  हैं: क्या प्रधानमंत्री को 7 अप्रैल तक कोविड मामलों में उछाल और उन परीक्षाओं को आयोजित किये जाने का भान तक नहीं था, जब वह छात्रों के साथ अपनी वार्षिक बातचीत को लेकर आगे आये थे ? इससे भी बुरी बात यह है कि क्या पीएम ने यह जानने के बावजूद अपने वार्षिक पीआर हथकंडे के साथ आगे बढ़ने का फ़ैसला किया कि बोर्ड परीक्षा रद्द करनी पड़ेगी? इससे इस पूरे प्रकरण में गंभीर संकट के समय हर लिहाज़ से सरकार की बेरहमी दिखायी देती है।

यहां तक कि लोग अपने परिजनों के लिए बेड और ऑक्सीजन सिलेंडर की तलाश में मारे-मारे फिर रहे हैं और सोशल मीडिया एसओएस कॉल से अटा-पड़ा है, लेकिन सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता छवि प्रबंधन की बनी हुई है। 5 मई को द हिंदुस्तान टाइम्स ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि महामारी के संकट को देखते हुए केंद्र सरकार के तक़रीबन 300 शीर्ष अधिकारियों ने एक वर्चुअल वर्कशॉप में भाग लिया,जिसका मक़सद "सरकार की सकारात्मक छवि बनाने", "सकारात्मक कहानियों और उपलब्धियों को प्रभावी ढंग से सामने लाते हुए सरकार के प्रति धारणा" का प्रबंधन करने और सरकार को "संवेदनशील, साहसी, त्वरित, ज़िम्मेदार, कठोर परिश्रमी आदि के रूप में दिखाने" में मदद पहुंचाना था।

जिस आपदा से देश इस समय दो-चार है, उससे ठीक ढंग से नहीं निपट पाने के चलते मोदी सरकार पिछले एक महीने से देश और विदेश, दोनों ही के निशाने पर रही है। इससे इस नज़रिये को मज़बूती मिली है कि यह सरकार हमेशा चुनावी अभियान के मोड में रहती है और इसे शासन की ओर से आंखें मूंद रहने का भी कोई पछतावा नहीं है। इससे सरकार की दिखावे की प्रवृत्ति की पोल पट्टी भी खुल गयी है। सरकार हमेशा राजनीतिक दिखावे के मामले में अव्वल रही है और यही एक चीज है जो उसके लिए मायने रखती है। ऐसे में सवाल उठता है कि उसके हालिया पीआर ग़लतियां क्या इशारा करती हैं?

इन क़दमों के पीछे के राजनीतिक तर्क को समझने के लिए हमें 2014 के उस चुनावी फ़ैसले पर फिर से नज़र डालना होगा जिसमें 'ब्रांड मोदी' को ज़बरदस्त बढ़ावा दिया गया था। 2014 में अपने राजनेताओं और ख़ासकर सत्ता में बने हुए नेताओं की बढ़ती सनक के बीच एक नौजवान और बेचैन भारत को नरेंद्र मोदी में अपनी आशाओं और आकांक्षाओं के फलने-फूलने की संभावना नज़र आयी और पहली बार वोट दे रहे मतदाताओं ने उनकी पहली जीत पर मुहर लगा दी।

भगवा पार्टी को पहली बार वोट दे रहे मतदाताओं के बीच से कांग्रेस से दोगुने वोट मिले थे। यहां तक कि 2019 में भी अन्य आयु वर्ग के मतदाताओं से कहीं ज़्यादा नौजवान मतदाताओं ने भाजपा को बड़ी और पुरानी पार्टी के मुक़ाबले ज़्यादा पसंद किया था,हालांकि 2014 के चुनावों के मुक़ाबले इस चुनाव में पहली बार वोटिंग कर रहे मतदाताओं के बीच से मोदी के नेतृत्व में भाजपा को जो वोट मिले, वह कम थे। लेकिन, यह इस हक़ीक़त को मानने में कोई दिक़्क़त नहीं कि नौजवान मतदाताओं ने 2014 और 2019 में भाजपा की दोहरी जीत में अहम भूमिका निभायी थी।

जिस समय यूपीए-2 सरकार एक घोटालेबाज़ सरकार के तौर पर अपनी आख़िरी सांसें गिन रही थी,उसी समय मोदी राष्ट्रीय परिदृश्य पर ‘सही समय पर सही आदमी तौर पर सही बयानबाज़ी करते हुए दिखाये दिये थे’, उन्होंने नौजवानों के वोट पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया था। सात साल और दो बड़े जनादेशों के बाद  बढ़ती बेरोज़गारी, कोविड-19 महामारी और अर्थव्यवस्था की अस्थिर स्थिति से पैदा हुए असंतोष के हालात के मददेनज़र बीजेपी पहली बार धारणा बनाने की अपनी लड़ाई हारती हुई दिख रही है और अपने ख़िलाफ़ उसे ज़बरदस्त ख़तरा दिख रहा है।

संख्या के लिहाज़ से देखा जाये  तो यह एक ऐसा चुनावी मतदाता वर्ग है जिसे नज़रअंदाज़ करना बहुत महंगा साबित हो सकता है। 2019 में 13 करोड़ 30 लाख नौजवान पहली बार मतदान कर रहे थे। 2024 में, ज़ेड जेनरेशन (1995 के बाद पैदा हुए लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला बोलचाल का एक शब्द) एक शक्तिशाली चुनावी ताक़त होगी। सेंटर फ़ॉर पॉलिसी रिसर्च के एक हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक़, तक़रीबन 46% जनरेशन ज़ेड के मतदाता अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति को लेकर चिंतित हैं। इस सर्वेक्षण में बताया गया है कि जनरेशन जेड़ के मतदाताओं के बीच मौजूदा सरकार की CAA और NRC जैसी विवादास्पद वैचारिक परियोजनाओं को लेकर शायद सबसे ज़्यादा असहमति है। उनमें से ज़्यादातर (लगभग 42%) मतदाताओं ने जामिया और जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों में पुलिस की दमनात्मक कार्रवाई से अपनी असहमति जतायी थी। इस आयु वर्ग के नौजवान अपने से ज़्यादा आयु-वर्गों मतदाताओं के ठीक उलट है, जो अभी भी मोदी सरकार का साथ दे रहे हैं या कम से कम संदेह का लाभ तो दे ही रहे हैं।

भाजपा धीरे-धीरे अपनी चमक खो रही है और धारणा बनाने के जंग में लड़खड़ा रही है। मोदी के कई साल तक सत्ता में रहने के बाद, इस बात की संभावना नहीं रह गयी है कि यह प्रमुख चुनावी मतदाता वर्ग भाजपा के '60 साल के कांग्रेस के कुशासन' या नेहरू-गांधी परिवार के' पापों' के झांसे में आ पायेगा।

नौजवान भारतीयों के बीच अपने सिकुड़ते जनाधार को देखते हुए सरकार अपने समर्थन को बनाये रखने के लिए दोहरे तरीक़े अपना रही है। हर तबके से आने वाले छात्रों और नौजवान कार्यकर्ताओं की असहमति की आवाज़ को ख़ामोश करने के लिए मोदी सरकार देशद्रोह से सम्बन्धित या यूएपीए जैसे सख़्त क़ानूनों का इस्तेमाल करते हुए निरंकुश रवैया अपना रही है। एक 21 साल की जलवायु के लिए काम करने वाली कार्यकर्ता पर देशद्रोह, आपराधिक साज़िश,भारत सरकार के ख़िलाफ़ असंतोष फैलाने और किसानों के विरोध प्रदर्शन के समर्थन में सिर्फ़ एक टूलकिट का संपादन करते हुए राज्य के ख़िलाफ़ शत्रुता को बढ़ावा देने का आरोप का लगाया जाना उस निर्लज्जता का ही प्रतीक है, जिसके ज़रिये मौजूदा व्यवस्था की योजना निर्बाध रूप से राजनीतिक नौजवान भारतीयों के बेलौस आदर्शवाद और वैध राजनीतिक विरोध से निपटने की है। कथित रूप से अराजनीतिक या तटस्थ नौजवान भारतीयों को लुभाने के लिए पीएम के पास ‘परीक्षा पे चर्चा’ जैसे कई पीआर विचार और कार्यक्रम हैं।

राजनीतिक पंडितों ने बीजेपी की चुनावी लड़ाई जीतने की कभी नहीं ख़त्म होने वाली भूख और उसकी अच्छी तरह से संचालित होने वाली चुनाव मशीनरी की भूरी-भूरी प्रशंसा की है। प्रशासन को नज़रअंदाज़ किये जाने की क़ीमत पर भगवा पार्टी के चुनाव जीतने के जुनून का सरल और बार-बार किया जाने वाला यह विश्लेषण एक अहम पहलू को देखने से चूकता रहा है। किसी भी क़ीमत पर चुनावी कामयाबी हासिल करना मौजूदा बीजेपी का एक तात्कालिक लक्ष्य है, हालांकि वास्तविक और बड़ा निहित लक्ष्य देश की विचारधारा को हिंदुत्व के ढांचे में ढालना है, और इसके लिए लम्बे समय तक सत्ता में बने रहना ज़रूरी है,ताकि संघ के 'हिंदू राष्ट्र' की स्थापित के संजोये सपने को साकार किया जा सके।

लेकिन, बीजेपी की हमेशा चुनावी अभियान में रहने के अंदाज़ की आज़मायी और परखी हुई रणनीति अभी हाल ही में उल्टी पड़ती दिख रही है। हालांकि,इसे पार्टी के हालिया चुनावों के विपरीत नतीजों से जोड़कर देखा जा सकता है ,लेकिन दिखावे के लिहाज़ से हमेशा अव्वल रहने वाली मोदी सरकार मुश्किलों का एक अहम सबक सीख रही है और वह है- पीआर या छवि प्रबंधन तभी काम करता है,जब सरकार काम करना शुरू कर देती है !

मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी जितनी जल्दी इस हक़ीक़त को समझ लेगी, पार्टी और राष्ट्र, दोनों के लिए उतना ही बेहतर होगा। युवाओं के वोट पाने के लिए जो विरोधाभासी और दोतरफ़ा रणनीति अपनायी गयी है, वह कितनी सफल होगी, यह देखा जाना अभी बाक़ी है। फिलहाल, उम्मीद है कि भारतीय प्रधानमंत्री ने मुश्किल विषयों से दूर नहीं भागने की जो सलाह छात्रों की दी है, उसका पालन वह ख़ुद भी करेंगे। प्रधानमंत्री के लिए इसकी पहल करने का एक अच्छा तरीक़ा तो यही होगा कि वे एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करें, ताकि व्यावहारिक रूप से इस बात को दिखाया जा सके कि आख़िर इम्तिहान के तनाव से निपटा कैसे जाता है!

लेखक मुंबई स्थित एक फ्रीलांसर हैं और मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज के पूर्व छात्र हैं। उनकी दिलचस्पी राजनीति, भाषाविज्ञान और पत्रकारिता से लेकर इलाक़ाई भारतीय सिनेमा तक में है। उनका ट्विटर एकाउंट है- @Omkarismunlimit

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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