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पारिस्थितिकी संकट से किस क़दर जुड़ी होती हैं महामारियां

"चमत्कारिक" इलाज और "सुपरफ़ूड" और खाने-पीने की बदलती आदतों को लेकर मिथकों के साथ-साथ भोजन का वैश्वीकरण कहर ढा रहा है। इनमें से बहुत सारी चीज़ों को रोका जा सकता है।
कोरोना वायरस

हाल के वर्षों में जानवरों, पक्षियों और दूसरे कई तरह के प्राणियों से रोगाणुओं के संचरण के ज़रिये मनुष्य में होने वाली बीमारियों को इस तरीक़े से जोड़ दिया गया है कि यह वायरस दुनिया के हर क्षेत्र में रहने वालों के बीच होने वाली गंभीर बीमारी का कारण बनेगा। MERS, SARS, एवियन फ़्लू और स्वाइन फ़्लू जैसी बीमारियां ऐसी ही बीमारियों के उदाहरण हैं, जिन्हें पशुजन्य रोग कहा जाता है, और कोविड -19 भी इसी तरह का एक और उदाहरण है।

हालांकि पशुओं से पैदा होने वाली बीमारियों की बढ़ती आवृत्ति पर व्यापक रूप से बहस तो की जाती है, लेकिन उनके फैलने की एक महत्वपूर्ण वजह लगभग निश्चित रूप से उस पारिस्थितिक संकट और जैव विविधता के नुकसान से जुड़ी हुई है, जिसकी हालत पूरी दुनिया में बदतर कर दी गयी है।

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, 1990 से 2015 के बीच 290 मिलियन (29 करोड़) हेक्टेयर देशी जंगलों को ख़त्म कर दिया गया था, जो अरबों की संख्या में बड़े और छोटे जानवरों, पक्षियों और कीड़ों के निवास स्थल थे, इन प्राणियों को अपने निवास स्थल से वंचित कर दिया गया। इसे भारत के क्षेत्रफल के सिलसिले में समझा जा सकता है, क्योंकि भारत का पूरा क्षेत्रफल ही क़रीब-क़रीब 328 मिलियन  हेक्टेयर है।

वर्षों पहले, जैवविविधता पर दुनिया के अग्रणी जानकारों में से एक,एडवर्ड ओ विल्सन और हार्वर्ड विश्वविद्यालय में कीटविज्ञान के एक एमेरिटस प्रोफ़ेसर ने एक मामूली वाक्य में इस नुकसान की सीमा को संक्षेप में कुछ इस तरह बताया था: कम से कम इस धरती पर होमो सेपियन्स के आने से पहले की दुनिया भर की प्रजातियां 100 गुना तेज़ी से विलुप्त हो रही हैं। 

2009 में जोहान रॉकस्ट्रॉम और 26 अन्य वैज्ञानिकों द्वारा ‘प्लैनेटरी बाउंड्रीज़-इंसपायरिंग द सेफ़ ऑपरेटिंग स्पेस फ़ॉर ह्यूमैनिटी’ शीर्षक से लिखे गये एक शोध पत्र में भी पाया गया कि इस समय लगभग 25% प्रजातियों के विलुप्त होने का ख़तरा है, जिनमें 12% पक्षियों की प्रजातियां और 52% साईकैड प्रजातियां शामिल हैं। उनके शोध-पत्र में इस बात की अहमियत पर ज़ोर दिया गया है कि आख़िर किस तरह वैश्विक रूप से प्रजातियों के विलुप्त होने की दर जीवों के प्रजातीकरण की दर से कहीं अधिक है। इसका नतीजा यह हुआ है कि मौजूदा दौर में प्रजातियों के हो रहा नुकसान "वैश्विक जैव विविधता में हो रहे बदलाव का प्राथमिक संचालक" बन गया है। इस शोध पत्र के लेखकों ने मौजूदा भूवैज्ञानिक दौर का उल्लेख करते हुए कहा है कि इस दौर ने 1950 के दशक से पर्यावरण पर मानव-गतिविधि-संचालित प्रभाव की अभूतपूर्व तेज़ी को देखा है।

इन वैज्ञानिकों के मुताबिक़, मानव गतिविधियों ने एक ख़तरनाक दर से जैव विविधता को नुकसान पहुंचाया है – पहले के किसी भी भूगर्भीय युग के बनिस्पत इस युग में प्रजातियों के कम होने की दर 100 से 1,000 गुना ज़्यादा है। और इस हालत को तो अभी और भी बदतर होना है, क्योंकि उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि विलुप्त होने की औसत वैश्विक दर "10 गुना और बढ़ जायेगी।" जहां कहीं भी प्रजातियों का इस तरह का क्षरण सबसे तेज़ होता है, वहां अन्य रोग के पैदा होने वाली परेशानियों वाला संकट भी तेज़ी से बढ़ता है। ऐसे में इन क्षेत्रों पर "प्रलयंकारी प्रणालीगत बदलाव" से गुज़रने का ख़तरा अधिक व्यापक होता है। पारिस्थितिक दृष्टि से इसका मतलब यह होगा कि पृथ्वी और उसकी प्रणालियां जिस तरह से काम करती रही हैं, उनमें अचानक से गड़बड़ियां पैदा हो जाना। इस तरह की प्रणालीगत बदलाव से भोजन और स्वच्छ पानी की आपूर्ति में गड़बड़ी पैदा हो सकती है और जलवायु में खलल पड़ सकता है। हम सभी को इस बात को लेकर परेशान होना चाहिए कि इन लेखकों ने इस तरह के बदलावों और एक "विनाशकारी" प्रणाली की भी भविष्यवाणी की है।

पहले से ही ख़तरे के दबाव में मानी जाने वाली प्रजातियों की संख्या विलुप्तप्राय प्रजातियों की संख्या से अधिक है। इसका कारण वनों की कटाई और इस कटाई के पड़ने वाले प्रभाव हैं। वनीकरण के नाम पर रोपे जा रहे एक ही तरह के पौधे के वृक्षारोपण की तुलना प्राकृतिक वनों से नहीं की जा सकती है। इस तरह के वनीकरण में जीवन के विविध रूपों की रक्षा करने की व्यापक क्षमता भी नहीं होती है। खेतों में कृषि-रसायनों का भारी इस्तेमाल पक्षियों और जानवरों को लेकर पैदा होने वाले संकट को और बढ़ा देता है। जैसे ही वे अपने निवास स्थान और प्राकृतिक जीवन-पद्धतियों को खो देते हैं,  वैसे ही वे बड़ी संख्या में नष्ट हो जाते हैं और उन निवास स्थलों में इन्हें धकेल दिया जाता है,जो मानव बस्तियों के समीप होते हैं, जिससे पशु-मानव संघर्ष बढ़ जाता है।

कहा जाता है कि मनुष्य और बंदर जैसे मनुष्य की तरह की प्राणियों के बीच की टकराहट हर जगह बढ़ी है। लेकिन,ऐसे अन्य ख़तरे कहीं ज़्यादा हैं, जो दिखायी नहीं पड़ते हैं, मिसाल के तौर पर मानव आबादियों का उस जगह पर बस जाना,जहां चमगादड़ जैसे जीवों की आबादी रहती है। इसी तरह, जिन जानवरों को "विदेशी या बाहरी" जानवरों की तरह देखा जाता है, यह असल में इस बात को दर्शाता है कि वैश्वीकरण ने प्रकृति को देखने के तरीक़ो को किस तरह बदल दिया है। इस तरह के जानवरों और पक्षियों और यहां तक कि फलों और सब्जियों को भी अब पालना-उगाना, उपभोग के लिए इस्तेमाल करना, बोया जाना और फिर से बार-बार उगाया जाना आसान हो गया है। उन्हें दुनिया भर में  एक कोने से दूसरे कोने में अधिक आसानी से और अधिक व्यापक रूप से पहुंचाना मुश्किल नहीं रह गया है। एक बार जैसे ही वे अपने मूल निवास स्थल से बाहर कर दिये जाते हैं, जिनका कि वे एक स्वाभाविक हिस्सा थे, फिर तो वे बहुत दिनों तक प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा नहीं रह जाते हैं। इससे प्रकृति के चक्र में गड़बड़ी होने की हर तरह की संभावना बन जाती है। उनके मांस या उनसे प्राप्त होने वाले विभिन्न प्रकार के "दवाओं" को लेकर उनके "विदेशी" मूल्य के होने का वह लालच ही है, जो इस तरह के वैश्विक व्यापार को बढ़ावा दे रहा है। ऐसा करते हुए जैविक और पारिस्थितिक प्रभाव को समझने के पर्याप्त प्रयासों के बिना ही इन वस्तुओं को पूरी दुनिया में पहुंचाया जा रहा है।

इसके अलावा, विकसित देशों में कृषि पशुओं, ख़ास तौर पर चिकन और मुर्ग़ियों को अक्सर क्रूरता के साथ और गंदे कारखानों में रखा जाता है, और ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि उन्हें पालने की लागत को कम किया जा सके और उनसे हासिल होने वाले मुनाफ़े को बढ़ाया जा सके। विकासशील देशों में तेज़ी से बदलती खाने की आदतों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए मांस-उद्योग द्वारा जानवरों को कई तरह के सह-उत्पाद और रासायनिक उत्पाद खिलाये जा रहे हैं, ताकि उन्हें जल्दी से मोटा-ताज़ा किया जा सके। यहां सिर्फ एक उदाहरण के हवाले से कहा जा सकता है कि कुछ साल पहले इसी तरह के उत्पाद के खाने से यूनाइटेड किंगडम में "मैड काउ" नामक बीमारी फैल गयी थी।

इस तरह के उच्च जोखिम वाले हालात कई तरह की बीमारियों के फैलने के अनुकूल होते हैं और इनसे नयी बीमारियां भी उभरने लगती हैं। इस तरह की हरक़तों से जलवायु परिवर्तन का ख़तरा भी बढ़ जाता है, क्योंकि मनुष्य नये संसाधनों को खोजने और नये-नये क्षेत्रों में बसने के लिए जंगलों और घास के मैदानों में लूट-मार मचाता है और उन्हें जला देता है, जो मनुष्य को हमेशा के लिए जानवरों, पौधों, वायरस और अन्य रोगाणुओं की ज्ञात और अज्ञात प्रजातियों के क़रीब ले आता है। इस संपर्क का नतीजा यह होता है कि उनके ठिकाने अशांत हो जाते हैं और इससे जैव-विविधता को भारी नुकसान पहुंचता है। कई पारिस्थितिक तंत्रों के बीच रचे-बसे इस संतुलन के इस नुकसान से उन क्षेत्रों में रोग पैदा करने वाले मच्छरों और अलाभकारी सूक्ष्म जीवों से नये-नये ख़तरे पैदा हो जाते हैं, जिनके बारे में इससे पहले कुछ भी अता-पता नहीं होता है। यहां तक कि जलवायु परिवर्तन के गर्म प्रभाव के चलते बर्फ़ की चादरों और स्थायी बर्फ़ से जमी रहने वाली ज़मीन यानी पर्माफ्रॉस्ट के नीचे जमे हुए सूक्ष्मजीवों के वजूद का ख़तरा भी पैदा हो गया है।

इन जोखिमों में से कई पर तो रोक लगाये जा सकते हैं उन्हें कम किया जा सकता है; उदाहरण के लिए, जानवरों के ख़िलाफ़ क्रूरता,वन्य जीवों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और सीमाओं के आर-पार होने वाले पौधों की नयी प्रजातियों के लाने-ले जाने पर रोक लगायी जा सकती है। पशुओं और दूसरे प्राणियों के साथ होने वाले इस बर्ताव का औचित्य यह कहकर ठहराया जाता है कि इससे दवायें बनायी जाती हैं और भोजन का उत्पादन किया जाता है, लेकिन यह एक बहुत ही संकीर्ण दृष्टिकोण वाली मान्यता है। ज़्यादातर मामलों में इस तरह के दावे का कोई आधार नहीं होता है कि ऐसे जानवरों और पौधों से प्राप्त वैज्ञानिक रूप से बिना परीक्षण वाली "दवाओं" का कोई चिकित्सीय मूल्य भी हो। जहां तक विदेशी सब्ज़ियों और फलों के व्यापार का सवाल है, तो इनमें से कुछ पर तो हवाई और समुद्री मार्ग से लाने-ले जाने की वजह से भारी लागत आती है, लेकिन यह सब इसलिए किया जाता है ताकि "सुपर फ़ूड " के दावों के आधार पर पैदा होने वाली हालिया सनक को संतुष्ट किया जा सके। ग़ैर-स्थानीय खाद्य पदार्थों के इस तरह का ग़ैर-ज़रूरी कारोबार ग्लोबल वार्मिंग को भी बढ़ावा देता है, और ऐसे में स्थानीय खाद्य पदार्थों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और बढ़ती आबादी के भोजन और पोषण की ज़रूरत को पूरा करने के लिए वैज्ञानिक रूप से नयी क़िस्मों को विकसित किया जाना चाहिए।

वनों की कटाई को रोकने के लिए मज़बूत क़दम उठाये जाने चाहिए और जहां तक मुमकिन हो, बचे हुए प्राकृतिक वनों के हरे पेड़ों की कटाई नहीं होनी चाहिए। वाणिज्यिक-वृक्षारोपण दृष्टिकोण से अलग और प्राकृतिक जंगलों के हिसाब से ही वनीकरण में पर्याप्त सुधार की ज़रूरत है। यह समय सभी लुप्तप्राय प्रजातियों,न कि कुछ "दिखाऊ" माने वाली प्रजातियों को विशेष सुरक्षा मुहैया कराये जाने का है।

लक्ष्य के रूप में सुरक्षा के लिहाज से मांस, अंडा और दूध उत्पादन के सभी तरीक़ों की समीक्षा की जानी चाहिए। कृषि प्रौद्योगिकी में कृषि स्तर की जैव विविधता की रक्षा के लिए ज़हरीले कीटनाशकों और खरपतवार नाशकों के इस्तेमाल को कम करना चाहिए और संपूर्ण खाद्य श्रृंखला को विषाक्त होने से बचाया जाना चाहिए।

लेखक ‘कंपेन टू प्रोटेक्ट अर्थ नाऊ’ के मानद संयोजक हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक, ‘विमला और सुंदरलाल बहुगुणा-चिपको मूवमेंट एंड स्ट्रगल एगेंस्ट टिहरी डैम’ है। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख आप नीचे लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

How Pandemics are Linked with Ecological Crises

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