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समीक्षा: भाकपा नेता डी राजा की नई किताब में भारत की दक्षिणपंथी राजनीति को लेकर चिंता

पुस्तक 'डिफेंडिंग डेमोक्रेसी' क़रीब-क़रीब सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों को कवर करते हुए मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार की नीतियों, निर्णयों और कार्रवाईयों के कलंक का एक दस्तावेज़ है।
 D Raja
फ़ोटो साभार: पीटीआई

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के महासचिव डी राजा भारतीय लोकतंत्र के सच्चे सिपाही रहे हैं। अपने पूरे जीवन में उन्होंने पार्टी और मुख्यधारा के समाचार पत्रों द इंडियन एक्सप्रेस, द हिंदू, द न्यू इंडियन एक्सप्रेस, नेशनल हेराल्ड और न्यू एज में लिखकर बड़े पैमाने पर दख़ल दिया है। अब, पीपल्स पब्लिशिंग हाउस (पीपीएच) ने डिफेंडिंग डेमोक्रेसी: राइटिंग्स ऑफ डी. राजा की नई किताब में उनके लेखों का संग्रह निकाला है।

इस संग्रह का संपादन और संकलन विवेक शर्मा ने किया है। सभी अध्यायों को छह खंडों में विषय के अनुरूप विभाजित करने में संपादक ने अच्छा काम किया है। संपादक के आठ पन्नों का परिचय पुस्तक के खाका को व्यापक रूप से प्रस्तुत करता है। परिचय को छोड़कर, 179 पृष्ठों वाली इस पुस्तक में छोटी और सूचनात्मक सामग्री है।

ये संकलन भारतीय लोकतंत्र के नाज़ुक ताने-बाने को तोड़ने की कोशिश कर रहे दक्षिणपंथी प्रोपगैंडा का क़रारा जवाब है। यह क़रीब-क़रीब सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में फैली मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार की नीतियों, निर्णयों और कार्यों के कलंक से भरा एक दस्तावेज़ है।

हमारे गणराज्य की नींव शीर्षक वाला पहला खंड धर्मनिरपेक्षता पर आधारित एक अध्याय से शुरू होता है। यह प्रधानमंत्री द्वारा काशी विश्वनाथ कोरिडोर के उद्घाटन की पृष्ठभूमि में लिखा गया है। यह जनता के समर्थन को बढ़ाने के लिए धार्मिक प्रतीकों का ज़िक्र करते हुए सत्तारूढ़ सरकार पर कटाक्ष करता है। राजा लिखते हैं कि "आरएसएस और एकरूपता के प्रति उसके जुनून ने उन्हें ब्राह्मणवादी ग्रंथों के कुछ पहलुओं की व्याख्या करने के लिए प्रेरित किया है, जिसे वे इस अत्यंत विविध समाज पर थोपना चाहते हैं।"

दूसरे खंड में 'लोकतंत्र पर भगवा की घेराबंदी' में अयोध्या फ़ैसले के बाद धर्मनिरपेक्षता और न्याय वाले अध्याय में डी. राजा ने सामाजिक-राजनीतिक और न्याय के क़ानूनी विश्लेषण को प्रस्तुत किया है और इसके संभावित निहितार्थ पर चर्चा की है। इसी खंड में, एक और अध्याय है जिसका शीर्षक 6 दिसंबर: अंबेडकर को लुप्त करन है। इस शीर्षक में उन्होंने काफी बारीकी से काम किया है। चूंकि 6 दिसंबर को डॉ बाबा साहेब अंबेडकर के निधन की तारीख़ है। इस अध्याय में भारत में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के महानायक के बारे में विस्तार से बताया गया है। राजा इस बात का ज़िक्र करते हैं कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस डॉ अंबेडकर की राजनीतिक विरासत को क्रूर तरीक़े से नष्ट करना था।

बाद के खंडों और अध्यायों में राजा संवैधानिकता के विचार और भारतीय संविधान द्वारा गारंटीकृत स्वतंत्रता की रक्षा करने में मज़बूत स्थिति को व्यक्त करते हैं। नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी), नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और कृषि क़ानूनों जैसे अधिनियमों का इस्तेमाल लोगों के विवेक को बदलने और बुनियादी आर्थिक अधिकारों के एक बड़े वर्ग से वंचित करने के लिए किया जा रहा था। इन अधिनियमों को लेकर राजा के विश्लेषण ने सच्चाई को और इस तरह के अधिनियमों के नापाक इरादे को उजागर कर दिया। अपने पूरे लेखन के दौरान यह स्पष्ट है कि डी राजा ने आरएसएस-भाजपा गठबंधन के नापाक मंसूबों का विरोध करने और भारत में प्रगतिशील ताक़तों को एकजुट करने का प्रयास किया है।

इस किताब के पांचवें खंड में 'जस्टिस, लिबर्टी, इक्वैलिटी, फ्रेटरनिटी: द स्ट्रगल इज ऑन' है जिसके आवर इंडिपेंडेंस एंड इंडिया टुडे नामक अध्याय में डी राजा ने भारत की क्रांतिकारी परंपरा और भारतीय राष्ट्रीय संघर्ष में कम्युनिस्टों की बड़ी भूमिका का वर्णन किया है। कानपुर में भाकपा की पहली पार्टी कांग्रेस में हसरत मोहानी द्वारा 'इंकलाब ज़िंदाबाद' का नारा गढ़ने से लेकर संविधान सभा की मांग का नेतृत्व करने और 1944 में संविधान का मसौदा प्रकाशित करने, यानी स्वतंत्र भारत के संविधान के प्रकाशन के साथ, राजा ने भारतीय कम्युनिस्ट संघर्ष के एक बड़े और गौरवशाली इतिहास को शामिल किया है। राजा ने सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए अधिक समावेशी दृष्टिकोण का प्रस्ताव रखा है जो सड़क से संसद तक आएगा और कम्युनिस्ट व अन्य वाम-प्रगतिशील ताक़तें इसके अग्रणी होंगे।

इस पुस्तक का अंतिम खंड में गाइड्स टू अवर पाथ नामक जीवनी संबंधी निबंधों को समर्पित किया गया है। यहां डी. राजा ने महात्मा गांधी, भगत सिंह, डॉ अंबेडकर, वी आई लेनिन और के आर नारायणन जैसे महान नेताओं की वसीयत पर चर्चा की है। प्रगतिशील नेताओं और उनके योगदान का उल्लेख सभी खंडों में बार-बार मिलता है। एक खंड स्पष्ट रूप से इतिहास के दिग्गजों को समर्पित है जिनके योगदान को भारत और दुनिया में भारतीय लोकतंत्र की प्रकृति को क़ायम रखने के लिए विकसित किया जाना चाहिए।

यह किताब आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा में 24वीं भाकपा पार्टी कांग्रेस से ठीक पहले आई है। दुर्भाग्य से, डी राजा के भाषणों को पुस्तक में संकलित नहीं किया गया है। लेकिन केरल के कन्नूर में आयोजित 23वीं पार्टी कांग्रेस में कम्युनिस्ट नेता के उस संबोधन को शामिल किया गया है जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मीडिया को दिए गए साक्षात्कार का ज़िक्र किया था। मोदी ने इसमें कहा था कि "साम्यवाद एक ख़तरनाक विचारधारा है"। डी राजा ने पीएम मोदी की इस टिप्पणी की खिंचाई की और कहा कि वह इस बात से सहमत हैं कि साम्यवाद एक ख़तरनाक विचारधारा है लेकिन यह केवल आरएसएस-भाजपा की ज़हरीली सांप्रदायिक विचारधारा के लिए ख़तरनाक है।

कुल मिलाकर, यह पुस्तक उन लोगों के लिए एक अच्छा संग्रह है जो मौजूदा सरकार के कृत्यों को जानने की तलाश में हैं। जैसा कि वी आई लेनिन ने अपने किताब 'व्हाट हैज टू बी डन' (पृष्ठ संख्या 42) में लिखा है, "राजनीतिक आंदोलन के आवश्यक विस्तार के लिए एक बुनियादी शर्त व्यापक राजनीतिक प्रदर्शन का संगठन है"। डी राजा की पुस्तक एक कम्युनिस्ट चश्मे के माध्यम से समकालीन राजनीति का व्यापक विश्लेषण करके उसी मार्ग का अनुसरण करता है। यह पुस्तक वामपंथी राजनीति के सभी सहानुभूति रखने वालों, अकादमिक शोधकर्ताओं और भारत के धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी नागरिकों को अवश्य पढ़ना चाहिए।

ऋषभ शर्मा नई दिल्ली में स्थित एक क़ानूनी पेशेवर हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Review: CPI Leader D Raja’s new Book Tears Into India’s Right-wing Politics

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