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कोरोना वायरस पूंजीवाद की गंभीर कमज़ोरियां सामने लेकर आया है

क्या हम पूंजीवाद का ऐतिहासिक क्षरण देख रहे हैं? क्या यह संकेत है कि लोगों को अब पूंजीवाद ग़ैर ज़रूरी लगता है और वे इसे सहने के लिए अब तैयार नहीं हैं?
 पूंजीवाद

यह मूर्खता देखिए: अमेरिकी सरकार पूंजीवादी ढांचे के ढहने के दौर में ऐसी नीति अपना रही है, जिससे अर्थव्यवस्था कोरोना वायरस से पहले वाले दौर में पहुंच जाए। आख़िर इसका मतलब क्या है? ''सामान्य'' व्यवस्था में निजी पूंजीवादी लोग जब कोरोना जैसा संकट आता है, तो टेस्ट, मास्क, वेंटिलेटर, बेड और दूसरी जरूरी चीजें न बनाकर मुनाफ़ा कमाते हैं। इसकी तैयारी में जितना पैसा लगता, अब महामारी के चलते उससे कहीं ज़्यादा नुकसान हो चुका है। पूंजीवाद में नियोक्ताओं की बहुत छोटी संख्या उत्पादन पर नियंत्रण के साथ ज़्यादातर सामानों और सेवाओं के वितरण से जुड़े सारे बड़े फ़ैसले (कब, कहां और किस चीज का उत्पादन करना है, फिर उसका आगे क्या करना है) लेती है। बहुसंख्यक कर्मचारी और उनके परिवार नियोक्ताओं के साथ रहने को मजबूर होते हैं, लेकिन फैसले लेने की प्रक्रिया में वो शामिल नहीं होते। आखिर इतने ग़ैर-लोकतांत्रिक ''सामान्य'' में लौटने की ज़रूरत क्या है? फिर क्यों पूंजीवादी व्यवस्था अपनाई जाए, जबकि यह ढांचागत स्तर पर तय समय के बाद विखंडित होती है और हर बार इसकी कीमत चुकानी पड़ती है।

इस मूर्खता पर दूसरे नज़रिये से देखिए- जब पूंजीवादी कोर्पोरेशन ढहते हैं, तो खुद को दिवालिया घोषित कर देते हैं। इसके बाद आमतौर पर कोर्ट मौजूदा नेतृत्व को हटाकर, उद्यम को दूसरे नेतृत्व के हवाले कर देते हैं। दिवालिया होने के अलावा, एक असफल होते पूंजीवादी उद्यम में अक्सर इसके शेयरहोल्डर किसी नेतृत्व, किसी बोर्ड ऑफ डायरेक्टर को हटाकर उसकी जगह दूसरे नेतृत्व को सौंपते नज़र आते हैं। इससे पुष्टि होती है कि पूंजीवादी अकसर असफल होते हैं, लेकिन कानून के तहत इतना ही होता है कि नियोक्ता की बदली हो जाती है। दिवालियापन कभी पूंजीवादी ढांचे या उद्यम को नहीं बदलता। लेकिन ऐसे पूंजीवादी 'सामान्य' को बरकरार रखने की क्या जरूरत है? समस्या दरअसल ढांचागत् है, व्यक्तिगत नहीं। मतलब दिक़्क़त किसी उद्यम को चलाने वाले नौकरशाह से नहीं है।

अमेरिका में दो करोड़ लोग बेरोज़गार हो चुके हैं और उन्होंने बेरोज़गारी फायदों के लिए आवेदन किया है। यह मूर्खता भरा है। अब नियोक्ताओं के बजाए हम नागरिकों को नौकरी से हाथ धो बैठे लोगों के वेतन-भत्तों का भार उठाना होगा। बेरोज़गार लोग अपने-आपको दोष ठहराते रहते हैं। कई लोग अपनी कुशलता, अपने पूर्व नियोक्ता और सहकर्मियों से हाथ धो बैठेंगे। कई लोग पुरानी नौकरी को वापस पाने की चिंता में रहेंगे। कई बड़ी मात्रा में उधार लेंगे। लोग बढ़ते उधार से तनाव में रहेंगे। इन लोगों की स्थिति बेहतर होती, अगर उन्हें कोई सामाजिक मदद करने वाला काम मिल पुराने वेतन पर ही मिल जाए। केवल सरकार ही ऐसी नियोक्ता हो सकती है, क्योंकि निजी पूंजीवादी फिलहाल नौकरियों में भर्तियां नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा करने में किसी तरह का मुनाफ़ा नहीं होगा।

लेकिन पूंजीवादी हमेशा सरकारी नौकरियों का विरोध करते रहे हैं। उन्हें डर होता है कि सरकारी निजी रोज़गार, सरकारी रोज़गार से पिछड़ जाएगा। जो लोग सरकारी नौकरियों में जाएंगे, वो निजी रोज़गार में वापस नहीं आएंगे। निजी पूंजिपतियों को ठंडा करने के लिए सरकारें ''मंदी'' बनाती हैं, जिस दौरान सरकारें बेरोज़गारों को कुछ वक़्त गुज़ारने के लिए पैसा देती हैं। इस दौरान पूंजीवादी लोगों को नौकरियों से निकाल सकते हैं। लेकिन इन सब के बीच में समाज हारता है, क्योंकि आम जनता को कर्मचारियों को वेतन देना पड़ता है, लेकिन इसके बदले में किसी तरह का सार्वजनिक उत्पादन नहीं होता, ना ही कोई सेवा मिलती है। 

कांग्रेस ने हाल ही में एक कानून (CARES) पास किया, जिससे ढह चुके अमेरिकी पूंजीवाद को फिर खड़ा किया जा सके। इसके तहत बड़ी विमानन कंपनियों को 25 बिलियन डॉलर की मदद दी गई, ताकि वे अपने कर्मचारियों को अगले 6 महीने तक वेतन दे सकें। यही पूंजीवादी मूर्खता है। इन कर्मचारियों को अगले 6 महीनों तक वेतन मिलता रहेगा, जबकि इस बीच में शायद ही कोई विमान उड़ान भर सके। इस सरकारी मदद के बदले एयरलाइन के कर्मचारियों से किसी तरह के सामाजिक काम की उम्मीद तो की ही जा सकती है। वह लोग टेस्ट, मास्क, वेंटिलेटर, ग्लव्स आदि के उत्पादन के लिए सुरक्षित काम की जगह बनाने में मदद कर सकते हैं। उन्हें टेस्ट करने की ट्रेनिंग दी जा सकती है। उन्हें स्टोर्स, खेल और काम करने की जगहों को साफ करना सिखाया जा सकता है। इसके लिए सोशल मीडिया पर एक-एक को ट्यूटोरियल दिए जा सकते हैं। ऐसे कई काम हो सकते हैं। लेकिन पूंजीवादी देशों में निजी पूंजीवादी ऐसा नहीं चाहते। इसलिए सरकारें ऐसा कानून नहीं बनातीं, जिनसे बेरोज़गारी के दौर में सरकारी पैसा लेने के एवज में निजी कर्मचारियों से किसी तरह का काम लिया जा सके।

इस बीच बोइंग को भी बड़ा बेलऑउट पैकेज मिल रहा है। उनका निजी नेतृत्व हाल ही में कई असुरक्षित विमानों को बेचने के लिए ज़िम्मेदार रहा, जिनमें दुर्घटनाओं में सैकड़ों लोगों की जान चली गई। कंपनी अपनी असफलताओं को छुपाती रही और सार्वजनिक सब्सिडी के नाम पर अरबों डॉलर ले रही है। इसके बावजूद सरकार के बेलऑउट पैकेज के बाद भी बोईंग और दूसरी सरकारी मदद वाली कंपनियों का नेतृत्व अपने मन मुताबिक सभी फैसले लेने के लिए स्वतंत्र है।

आखिर पूंजीवाद को इस तरीके से तय कौन करता है? क्यों बिना किसी सामाजिक लाभ के बेरोज़गारी भत्ता दिए जाने जैसा अतार्किक काम किया जा रहा है? आखिर उस अलोकतांत्रिक पूंजीवाद की ओर वापस क्यों लौटें, जहां थोड़े से नियोक्ता मिलकर बहुसंख्यक कर्मचारियों के लिए शर्तें और फ़ैसले तय कर देते हैं?  आखिर क्यों नियोक्ताओं के एक तानाशाही भरे समूह को दूसरे से बदला जाए, जबकि हमारे पास बेहतर विकल्प मौजूदा है? संक्षिप्त में कहें तो पूंजीवादी ढांचे को फिर क्यों खड़ा किया जाए, जो सामाजिक तौर पर विभाजनकारी आय की विषमता को पैदा करता है और एक अंतराल पर व्यापारिक अस्थिरता सामने लाता है। 

क्या हम पूंजीवाद का ऐतिहासिक क्षरण देख रहे हैं? क्या यहां संदेश है कि अब लोगों को पूंजीवाद गैरजरूरी लगने लगा है और उनसे यह सहन भी नहीं होता। कर्मचारी सहकारिताओं (Cooperatives) ने खुद को फैक्ट्रियों, ऑफिस, स्टोर, निजी और सार्वजनिक उद्यम के प्रबंध के लिए बेहतर विकल्प के तौर पर पेश किया है। एक लोकतांत्रिक आर्थिक संस्थान के तौर पर कर्मचारी सहकारिता संस्थान बेहतर हैं और वे लोकतांत्रिक राजनीतिक संस्थानों के लिए ज़्यादा मददगार साबित होते हैं। 21 वीं सदी में समाजवाद के बैनरों पर सबसे लोकप्रिय नारा 'उद्यमों को लोकतांत्रिक बनाओ' होगा।

14 वीं शताब्दी में प्लेग या काली मौत ने यूरोप के सामंतवाद को उधे़ड़कर रख दिया था। बड़ी संख्या में लोग भूख, थकान और बीमारियों से पीड़ित रहे थे। उनमें बहुत विभाजन था। चूहों द्वारा फैलाई जाने वाली उस बीमारी ने यूरोप की एक तिहाई आबादी का खात्मा कर दिया था। यूरोप में सामंतवाद कभी पहले की तरह मजबूत नहीं हो पाया। उसकी ऊंचाई गुजर चुकी थी। इसके बाद पुनर्जागरण, पुनर्सुधार आंदोलन और फिर महान अंग्रेजी-फ्रेंच क्रांतियां हुईं। पुराना ढांचा ढह गया और एक नया और अलग ढांचा अस्तित्व में आया, जिसका नाम पूंजीवाद था। अब पूंजीवाद, कोरोना वायरस और एक नए कामगार आधारित समाजवाद के अंतर्संबंधों से वैसी ही दशा बन सकती है, जो काली मौत और सामंतवाद के बीच बनी थी।

रिचर्ड डी वोल्फ़, यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैसाचुसेट्स, एर्म्सहर्स्ट में इकनॉमिक्स के प्रोफेसर हैं। वे न्यूयॉर्क की न्यू स्कूल यूनिवर्सिटी में ग्रेजुएट प्रोग्राम में विजिटिंग प्रोफेसर भी हैं। उनका साप्ताहिक रेडियो कार्यक्रम 'इकनॉमिक अपडेट' 100 से ज़्यादा रेडियो स्टेशन और 5।5 करोड़ टीवी रिसीवर पर फ्री स्पीच टीवी द्वारा भेजा जाता है।  उनकी ‘डेमोक्रेसी एट वर्क‘ पर दो हालिया किताबें ‘अंडरस्टेंडिंग मार्क्सिज़्म’ और ‘अंडरस्टेंडिंग सोशलिज़्म’ हैं। दोनों democracyatwork.info. पर उपलब्ध हैं।

इस लेख को इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट के प्रोजेक्ट इकनॉमी फ़ॉर ऑल ने प्रकाशित किया था।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

Capitalism Can’t Be Repaired—Coronavirus Shows Its Huge Weaknesses

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