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यहूदियों के नरसंहार को दर्शाता उपन्यास ‘माउस’ पर प्रतिबंध सिर्फ एक पाखंड है

बच्चों के लिए चित्रकथा बनाने वाले भारतीय रचनाकारों और शिक्षाविदों के मुताबिक़, टेनेसी स्कूल की ओर से लगाया गया यह प्रतिबंध बच्चों को असली ज़िंदगी की नग्नता और नस्लवाद को देखने से नहीं रोक सकता।
Maus ban

पुलित्जर पुरस्कार से नवाज़े गये ग्राफ़िक उपन्यास 'माउस' को संयुक्त राज्य अमेरिका के टेनेसी की आठवीं कक्षा के पाठ्यक्रम से नग्नता और अपशब्दों के इस्तेमाल के आधार पर हटाये जाने को लेकर कई भारतीय कलाकारों और शिक्षाविदों ने प्रतिक्रिया दी है। इन रचनाकारों का कहना है कि बच्चों को उन वास्तविकताओं से बचाने का कोई फ़ायदा नहीं, जिनसे वे पहले से ही रूबरू हो चुके हैं।

वह 1984 का साल था। ओरिजीत सेन ख़ुद के सही होने और उत्साह दोनों ही तरह के एहसास से तब भर गये थे, जब कॉलेज के इस छात्र की नज़र अहमदाबाद स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ डिज़ाइन की लाइब्रेरी में पड़ी टाइम पत्रिका के कवर पर पड़ी। इसके बाद उन्हें महसूस हुआ कि इससे कॉमिक किताबों को बनाने में उनकी कलात्मक क्षमता के बर्बाद होने को लेकर उनके शिक्षकों की ओर से लगाये जा रहे आरोपों का सिलसिला आख़िरकार थम जायेगा।

असल में अभी-अभी जारी होने वाला एक ग्राफ़िक उपन्यास उस समय कला जगत में तहलका मचा रहा था। यह महज़ ग्राफ़िक उपन्यास नहीं था, बल्कि यह तो आर्ट स्पीगेलमैन नामक एक उभरते हुए कलाकार की बनायी एक कलाकृति थी। और इसका विषय-वस्तु भी बच्चों वाला नहीं था।इसका विषय वस्तु होलोकॉस्ट,यानी यहूदियो का नरसंहार था। यह गंभीर और राजनीतिक विषय पर आधारित किताब थी। यह वयस्क से जुड़े विषयों से सम्बन्धित है और बच्चों के लिए चूहों, बिल्लियों और सूअरों जैसे मानवीकृत रूपक वाले पात्रों के ज़रिये लिखा गया एक उपन्यास था। यह हर तरह की परिकल्पना के लिहाज़ से विध्वंसक विषयों वाला उपन्यास था और इसके लेखक को अमेरिका की सबसे मशहूर पत्रिकाओं में से एक ने अपने कवर पर चित्रित किया था।

सेन कहते हैं, "मैंने उस दिन अपने शिक्षकों को माउस दिखाया था और कहा था, 'देखिए, यही वजह है कि मुझे कॉमिक्स में दिलचस्पी है। स्पीगेलमैन उन लोगों में से एक थे, जिन्होंने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया था कि मैं सही रास्ते पर हूं।"

साल1994 में गुजरात के सरदार सरोवर बांध के निर्माण के ख़िलाफ़ आदिवासियों की अगुवाई में चल रहे सामाजिक आंदोलन पर भारत के पहले ग्राफ़िक उपन्यास-ए रिवर ऑफ़ स्टोरीज़ को कलमबद्ध करने वाले सेन ऐसे इकलौते शख़्स नहीं हैं, जो स्पीगेलमैन के ख़ुद के पोलिश पिता के होलोकॉस्ट में बचे रह जाने के अनुभवों के उत्तर आधुनिक संस्मरण से प्रेरित हैं।

यह एक ऐसी कलाकृति है,जो शैली के किसी खांचे में फिट नहीं होती और जो अपने पूरे फलक और पृष्ठों में इतिहास और जीवनी और कहानियों के साथ गूंज पैदा करती है। माउस ऐसा इकलौता ग्राफ़िक उपन्यास है, जिसे पुलित्जर पुरस्कार मिला है। यह 1980 के दशक में सतह के भीतर चल रहे कॉमिक्स आंदोलन की एक क्लासिक रचना है।

अमेरिका के टेनेसी के एक स्कूल के आठवीं कक्षा के पाठ्यक्रम से नग्न सच दिखाने और अपशब्दों के इस्तेमाल के आरोप में इस किताब को हटा दिया गया है।

ओरिजीत सेन (फ़ोटो: साभार: किंडलमैग डॉट इन)

जिस बैठक में यह फ़ैसला लिया गया, उसके ब्योरे पब्लिक डोमेन में मौजूद हैं। मैकमिन काउंटी स्कूल बोर्ड के शिक्षकों ने इस प्रतिबंध को सही ठहराने की दलील के तौर पर आठ अपशब्दों और एक नग्न चित्रण का हवाला दिया है। इसके बाद तो इस पर रोक लगाये जाने के इस प्रयास को देखते हुए यह किताब इंटरनेट की सनसनी बन गयी। अमेज़न की बेस्टसेलर सूची में सबसे ऊपर हो गयी।

उस बैठक में शामिल रहे बोर्ड के सदस्यों में से एक सदस्य ने इस बात पर सहमति जतायी कि यहूदियों का वह नरसंहार "भयानक, बर्बर और बेरहम" था, लेकिन इस किताब में इसके चित्रण को पसंद नहीं किया गया। उनका कहना था, “यह लोगों को लटकाये हुए दिखाती है; यह उन्हें बच्चों को मारते हुए दिखाती है। शिक्षा प्रणाली इस तरह की चीज़ों को बढ़ावा क्यों देती है ? यह बुद्धिमानी या हितकर नहीं है।"

एक दूसरे शिक्षक ने कहा, "हमें बच्चों को इतिहास सिखाने के लिए इस तरह की चीज़ों की दरकार नहीं है। हम उन्हें इतिहास पढ़ा सकते हैं और हम उन्हें ग्राफ़िक इतिहास पढ़ा सकते हैं। हम उन्हें बता सकते हैं कि वास्तव में हुआ क्या था। लेकिन, हमें इस तरह की नग्नता और अन्य चीज़ो की ज़रूरत नहीं है।”

मगर, भारत के हास्य-चित्रण कला से जुड़े रचनाकारों और साहित्यिक समुदाय के भीतर ऐसे लोग हैं, जो इस तरह की नीयत पर संदेह करते हैं और मानते हैं कि बच्चे शैक्षिक ढांचे और संदर्भ में इस तरह की नग्नता और अपशब्दों से कहीं ज़्यादा सहन इसलिए कर सकते हैं, क्योंकि कक्षा के बाहर की दुनिया इससे कहीं बदतर है।

माउस को सही मायने में प्रतिबंधित किया क्यों गया

सेन कहते हैं, "नग्नता वाला संदर्भ तो इस चित्रकथा का एक बहुत ही अस्पष्ट हिस्सा है,इसे ऐसे नहीं चित्रित किया गया है कि आपत्तिजनक लगे और इसमें यौनिकता भी नहीं है। यह तो (स्पीगेलमैन की) मां की आत्महत्या करने की एक बहुत ही दुखद स्थिति को चित्रित करती है। यह आरोप किसी गढ़ दिये गये बेबुनियाद आरोप की तरह लगता है। हो सकता है कि इसमें कुछ नस्लीय नफ़रत से जुड़ी बातें शामिल हों।"

दिल्ली के ग्राफ़िक उपन्यासकार और कॉमिक्स पब्लिशिंग हाउस फैंटमविले के सह-संस्थापक सारनाथ बनर्जी भी ऐसा ही महसूस करते हैं।वह कहते हैं, "सबसे बुरी स्थिति तो यह है कि (उन्होंने इस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया है) शुद्धतावादी नैतिकता से यह बाहर है। मौजूदा स्थिति में ऐसा लगता है कि शिक्षक बस इन विषयों को बाद की उम्र के बच्चों के सामने पेश करना चाहते हैं।”

2008 में आये सारनाथ बनर्जी के ग्राफ़िक उपन्यास-कैटलॉग ऑफ़ कैटलॉगिंग से लिया गया चित्र (फ़ोटो:साभार: सैफ़्रन आर्ट)

रेडिफ़ डॉट कॉम के पुरस्कार विजेता चित्रकार और राजनीतिक कार्टूनिस्ट उत्तम घोष कहते हैं, "वे कहते हैं कि उन्होंने नस्लवादी इरादों और नग्नता के चलते इसे प्रतिबंधित कर दिया है। लेकिन, मैं बतौर कलाकार इसके साथ खड़ा हूं और महसूस करता हूं कि हमें अपने बच्चों को ऐसी वास्तविकताओं से रू-ब-रू कराने की ज़रूरत है। उन्होंने ऐसा करके रूढ़िवादी रुख़ अपनाया है। यह किताब इतने सालों से उपलब्ध है। हम तो पीछे की तरफ़ जा रहे हैं।"

क्या चित्रकथायें बच्चों को संवेदनशील सच्चाई का बोध कराने में मददगार हो सकती हैं

डेक्कन हेराल्ड के मुख्य कार्टूनिस्ट साजिथ कुमार के मुताबिक़, माउस इतिहास के एक बुरे अध्याय के बारे में बात करती।यह एक बहुत ही अहम किताब है, और कॉमिक बुक के ज़रिये कहानी को बच्चों और वयस्कों तक समान रूप से पहुंचाने का एक आसान तरीक़ा है।

कुमार आगे कहते हैं, "नग्नता और अपशब्द को लेकर इसे प्रतिबंधित करना इस बात को दिखाता है कि बेहद विकसित दुनिया के इस देश के लोग भी कितने अदूरदर्शी हैं। अपने इतिहास को जानना हमारे दिन-ब-दिन के वर्तमान में संशोधन करना है और अपनी पिछली ग़लतियों को न दोहराते हुए इस दुनिया को रहने के लिहाज़ से एक बेहतर जगह बनाना है।"

कोलकाता के सेंट जेवियर्स यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी विभाग की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर अनन्या साहा कहती हैं, "कॉमिक्स एक ऐसा अनूठा माध्यम है, जो सभी उम्र के दर्शकों को आकर्षित कर सकता है- मसलन जापानी मंगा (जापानी कॉमिक किताबों और ग्राफ़िक उपन्यासों की एक शैली है, जिसे आमतौर पर वयस्कों के साथ-साथ बच्चों के लिए भी तैयार किया जाता है) को ही लें। जापान में इस मंगा का इस्तेमाल विज्ञापन, प्रचार, विपणन, सामाजिक जागरूकता आदि के लिए किया जाता है। इसी तरह भारत में अमूल ने पीढ़ियों से छोटी सी लड़की के चित्रांकन का इस्तेमाल किया है। किसी भी माध्यम की दृश्य प्रकृति किसी भी विषय को कहीं ज़्यादा आकर्षक और स्वीकार्य बना देती है।”

अमूल का एक सामयिक विज्ञापन (फ़ोटो: साभार: अमूल)

सेक्स, लैंगिकता और कामुकता को लेकर जागरूकता बढ़ाने वाले कॉमिक स्ट्रिप्स के इंस्टाग्राम पेज-इंडुविड्यूएलिटी के निर्माता इंदु ललिता हरिकुमार कहते हैं, “बहुत सारे मुश्किल संवाद निजी कथाओं और उन दृश्य माध्यम से आसान हो जाते हैं, जिनमें लिखे हुए शब्दों की भरमार नहीं होती। हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं, जहां बच्चे पहले से ही ऑनलाइन (कॉमिक सामग्री के मुक़ाबले) कहीं ज़्यादा अपशब्दों और नग्नता के संपर्क में हैं। जितना ही ज़्यादा आप किसी चीज़ को सेंसर करते हैं, उतने ही ज़ोर के साथ वह वापस आ जाती है। इस मामले में भी तो ऐसा ही कुछ हुआ है। माउस फिर से ख़बरों में आ गया और पहले से कहीं ज़्यादा लोगों ने इसे पढ़ लिया।”

दिल्ली विश्वविद्यालय के श्यामा प्रसाद मुखर्जी कॉलेज के शिक्षकों को प्रशिक्षण देने वाले अध्यापक चेतन आनंद के मुताबिक़, साहित्य को अक्सर कक्षा में सेंसर कर दिया जाता रहा है, लेकिन यह विचार कि किसी एक किताब पर प्रतिबंध लगा देने से ही बच्चों की रक्षा हो जायेगी, बचपन को लेकर इस बात को मान लिया जाता है कि बचपन तमाम तरह की  गंदगी से बहुत दूर है। लेकिन, हमारी रोज़-ब-रोज़ की ज़िंदगी की प्रकृति में इस तरह की गंदी और अप्रिय चीज़ें भरी पड़ी हैं और यह सोच बच्चों की एक कृत्रिम श्रेणी बना देती है।”

आनंद आगे कहते हैं, "ऐसे में तो किसी बच्चे को बच्चा बने रहने देने के बजाय उन्हें सरकार के सामाजिक-राजनीतिक लक्ष्यों और वैचारिक व्यवस्था के साथ मिला देना चाहिए,जबकि यह बात पुष्ट हो चुकी है कि बच्चों के पास ख़ुद के सोचने की क्षमता होती है। निश्चय ही बच्चों को संवेदनशील वास्तविकताओं से रूबरू न करने देने का तरीक़ा किसी बच्चे की परिकल्पना के ज़रिये इन सवालों की खोज करने देना है,न कि उन्हें  हुक़्म देना।

बनर्जी के मुताबिक़, एक आदर्श बचपन का विचार हमारी स्मृतियों पर अंकित होता है, लेकिन समय बदल गया है और सोशल मीडिया के संपर्क में आने से बचपन छोटा होता जा रहा है। यही भावना दृश्य कलाकार और ब्लूज़ैकल नामक कॉमिक्स प्लेटफ़ॉर्म के सह-संस्थापक लोकेश खोडके की बातों से भी प्रतिध्वनित होती है।लोकेश कहते हैं कि बचपन को मासूम माना जाता है और बच्चों के लिए बनायी गयी कला अक्सर "अपारदर्शी और संरक्षित" इसलिए होती है, ताकि वे किसी से प्रभावित न हों। लेकिन, हक़ीक़त क्या है,यही कि बच्चे तो पहले से ही कठोर वास्तविकताओं के संपर्क में हैं।

लोकेश खोडके (फ़ोटो: साभार: द गिल्ड)

खोडके कहते हैं, ''हमारी किताबें यही करती हैं कि उन्हें उन तमाम संपर्कों से दूर ले जाती हैं। वास्तविक जीवन में वे उस सामाजिक/राजनीतिक पृष्ठभूमि से अवगत होते हैं, जिस पृष्ठभूमि से वे आ रहे होते हैं...उन्हें वित्तीय स्थिति, जाति, पितृत्व और खाने की आदतों के सिलसिले में हर किसी चीज़ के बारे में पता होता है। लेकिन, हम कहानियों और पाठ्यक्रमों को इतने साफ़-सुथरे तरीक़े से तैयार करते हैं कि मानों सभी तरह के फ़ासले मिटे हुए हैं। हम एक निश्चित तबक़े और जाति के लिए ही कहानियां तैयार करते हैं।”

हम अपनी चित्रकथा को और ज़्यादा समावेशी कैसे बना सकते हैं?

खोडके ने हाल ही में जिन प्रोजेक्ट्स का चित्रण किया है, उनमें से एक प्रोजेक्ट है-विद्रोह की छाप।इस किताब को भोपाल स्थित एक ग़ैर-सरकारी संगठन मुस्कान ने जारी किया है। इस प्रोजेक्ट में शहरी इलाक़ों में रह रहे उन आदिवासी बच्चों के साथ मिलकर काम किया गया है, जिन्हें अक्सर पुलिस परेशान करती है और वे स्कूल नहीं जा पाते हैं। खोडके ने अपने रेखाचित्रों को शुरू करने से पहले कई प्रसंगों को लिया।उन्होने यह तय कर लिया था उनके पात्र असली दुनिया के आस-पास के लोग दिखें। उनका कहना है कि ज़्यादतर भारतीय कॉमिक्स बहुत शहरी दिखने वाली होती हैं और यह बात उनके पात्रों में भी दिखायी देती है,क्योंकि ये पात्र शहर में रह रहे लोगों की तरह कपड़े पहनते हैं और दिखते भी हैं।

विद्रोह की छाप (फ़ोटो: साभार:अमेजॉन डॉट कॉम)

खोडके ने अन्वेशी रिसर्च सेंटर फ़ॉर विमेन स्टडीज़, हैदराबाद से प्रकाशित अपनी लघु कथाओं से चित्रित किताब-डिफ़रेंट टेल्स: स्टोरीज़ फ़्रॉम मार्जिनल कल्चर्स एंड रीज़नल लैंग्वेजेज़ में दलित और ओबीसी विचारक कांचा इलैया की कविता-मां को भी चित्रित किया है।

खोडके के साथ काम कर चुके सेन तरुण-वयस्क दर्शकों के लिए एकतारा ट्रस्ट से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक चित्रकथा- कॉमिक्सेंस के मुख्य संपादक हैं। यह चित्रकथा अपने विषयों को लेकर निगरानी, प्रौद्योगिकी, सौंदर्य धारणाओं और धर्म जैसे विचारों से पार पाने की चेतना के विस्तार के लिहाज़ से परिपक्व विषयों का परिचय देती है, जिसे सेन "किसी सपने के सच होने" और बच्चों में "बुद्धिमत्ता, कल्पना और सहानुभूति" जगाने का प्रयास कहते हैं। वह इस राय को बदलना चाहते थे कि कॉमिक्स गंभीर नहीं हो सकती।

सेन कहते हैं, "मैंने ऐसी कहानियों को इन कॉमिक्स में एकदम हू-ब-हू इसलिए रखा है, क्योंकि हम कक्षाओं में उस तरह के मुद्दों के बारे में कोई चर्चा ही नहीं करते, जो हर किसी को प्रभावित करता है। बच्चों को इन चर्चाओं से अवगत कराने की ज़रूरत है, क्योंकि वे तो ऐसे भी एक राय तो बनायेंगे ही और वैसे भी उनके बारे में उन्हें पता हो ही जायेगा। हम इस बात को नियंत्रित नहीं कर सकते कि वे किस बारे में बात करें या सोचें। तरुण वैसे भी वयस्कों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा बुद्धिमान होते हैं, उन्हें इसका श्रेय मिलना चाहिए।"

हरिकुमार ने इंस्टाग्राम पर कॉमिक्स प्रकाशित करने के अपने सफ़र का ज़िक़्र करते हुए कहा, “जब मैंने पहली बार एक उभरी हुई छाती का चित्रण किया था, तो मैं इस बात  को जान लेना चाहता था कि लोग इसे लेकर क्या कुछ कहेंगे और फिर इसे नामंज़ूर तो नहीं कर देंगे। लेकिन, आप समय के साथ महसूस करते जाते हैं कि आपके ख़ुद के लिए और आपके दर्शकों के लिए भी गुंज़ाइश की सीमा बढ़ती चली जाती है। यह सब शर्मनाक है और जब तक कोई इसे लेकर बात करना शुरू नहीं करता, तब तक यह सब नहीं बदल पायेगा। लोग धारणा को बदल देते हैं। फिर कोई कहानी सुना देता है और फिर उस अनुभव को आपके लिए पचा पाना आसान हो जाता है।"

लेखक चेन्नई स्थित एशियन कॉलेज ऑफ़ जर्नलिज़्म में पत्रकारिता के पीजी डिप्लोमा के छात्र हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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