NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
अमेरिका
निरर्थक अफ़ग़ान युद्ध का इतिहास 
इस युद्ध की खास बात यह है कि इसे विफल होना था। क्योंकि अफगानिस्तान से तालिबान को सत्ता से हटाने के उद्देश्य से लड़ा गया यह युद्ध अमेरिकी आक्रमण के लिए पूरी तरह से गैर-जरूरी था।
एम. के. भद्रकुमार
17 Apr 2021
Translated by महेश कुमार
निरर्थक अफ़ग़ान युद्ध का इतिहास 

राष्ट्रपति जो बाइडेन 14 अप्रैल, 2021 को अफगान युद्ध में मारे गए अमरीकी सैनिकों के सम्मान में अर्लिंग्टन नेशनल सिमिटेरी का दौरा करने पहुंचे जहां उनकी आँख भर आई। 

बुधवार को अमेरिकी राष्ट्रपति जोए बाइडेन के भाषण में अफगानिस्तान से सेना की वापसी की घोषणा के वक़्त जो एक बात गायब थी वह यह कि उन्होंने 2001 के विनाशकारी अमीरीकी सेना के आक्रमण की जांच के आदेश नहीं दिए। 

यह एक पेचीदा चूक है। जैसा कि बाइडेन ने खुद इस बात को स्वीकार किया है कि “बहुत से ऐसे लोग हैं जो जोर देकर यह बात कहते हैं कि हालात का फायदा उठाने के लिए एक मजबूत अमेरिकी सैन्य उपस्थिति के बिना कूटनीति सफल नहीं हो सकती है। हमने इस तरह के तर्क को एक दशक तक इस्तेमाल किया है। यह तर्क कभी भी कारगर साबित नहीं हुआ...हमारी कूटनीति नुकसान के लिए नहीं बनी है।"

वास्तव में, यह एक "निरर्थक युद्ध" था। वॉशिंगटन पोस्ट द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण पर  ईशान थरूर ने दुख जताते हुए कहा, "शुरुआती दंडात्मक मिशन सफल हो सकता था लेकिन यह अमेरिका के सबसे लंबे चलने वाले युद्ध में बदल गया, जो आतंकवाद/काउंटरसेंर्जेंसी और राष्ट्र-निर्माण में के नाम पर लड़ा गया था और सबसे बड़ा उपहास का कारण बना था।" यह कैसे हुआ? [ज़ोर देकर कहा गया]

वास्तविकता ये है कि इस युद्ध को विफल होना था। तालिबान को सत्ता से हटाने के घोषित उद्देश्य के साथ अफगानिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण पूरी तरह से गैर-जरूरी था। स्वर्गीय बुरहानुद्दीन रब्बानी के नेतृत्व वाली संयुक्त राष्ट्र द्वारा मान्यता प्राप्त सरकार सहित किसी भी अफगान दल ने अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप की माँग नहीं की थी।

यह हस्तक्षेप मूल रूप से अक्टूबर 2001 में उत्तरी अमु दरिया क्षेत्र के भीतर कुछ दर्जन विशेष सुरक्षा बलों के दस्ते के साथ शुरू हुआ था, ताकि वहाँ लड़ रहे दो नॉर्दन एलायंस के सरदारों रशीद दोस्तम और मोहम्मद अत्ता को जरूरी रसद दी जा सके और उनके मिलिशिया को मजबूत बनाया जा सके। नॉर्दन एलायंस मिलिशिया ने जब काबुल में तालिबान शासन को उखाड़ फेंका तब ही वास्तविक आक्रमण या युद्ध शुरू हुआ था। और इस आक्रमण ने रब्बानी सरकार को पूरी तरह से आश्चर्यचकित कर दिया था।

तत्कालीन विदेश मंत्री अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने इस आक्रमण का मुखर विरोध किया था। क्षेत्रीय राष्ट्रों को भी इस आक्रमण ने आश्चर्यचकित कर दिया था। वास्तव में, जब सेना के साथ अमेरिकी विमान बगराम हवाई अड्डे पर उतरे थे, तो उस समय एक रूसी विमान भी उतर रहा था और उसे वहां उतरने नहीं दिया गया था। 

अमेरिका ने कभी भी राजनयिक विकल्पों का इस्तेमाल नहीं किया था जैसा कि बाइडेन ने सोचा होगा। याद रखने के लिए अहमद शाह मसूद की हत्या के बाद, नॉर्दन एलायंस ने राजा ज़हीर शाह (रोम में निर्वासित) से संपर्क किया और उनसे वापस आकर नेतृत्व संभालने का न्योता दिया था।

दिवंगत राजा को न केवल अफगानिस्तान बल्कि क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी  सम्मान हासिल था और नॉर्दन एलायंस ने काफी सही फैसला लिया था क्योंकि ज़ाहिर शाह की निर्वासित सरकार को अफगानिस्तान में सत्ता में बैठाए बिना तालिबान को शासन को हटाने का कोई बेहतर तरीका नहीं था। 

लेकिन अमेरिका ने नॉर्दन एलायंस के उस विचार का ठीक से समर्थन नहीं किया। क्योंकि 9/11 के हमलों के बाद के घातक दिनों में वाशिंगटन का ध्यान इस्लामाबाद और कंधार से जुड़े बैक-टू-बैक वार्तालाप पर था। लेकिन वहाँ भी, अमेरिका ने अंततः पाकिस्तान द्वारा मुल्ला उमर को राजी कर अफगान धरती से ओसामा बिन लादेन को हटाने की वकालत करने की संभावना का पता लगाने में भी रुचि खो दी थी।

सीधे शब्दों में कहा जाए तो 9/11 के हमलों और उसे रोकने में नाकाम शर्मिंदा जॉर्ज डब्ल्यू बुश प्रशासन के सामने मौजूद घरेलू अमरीकी असंतोष को दबाने के लिए सेना की दखल के अलावा कोई रास्ता नज़र नहीं बचा था। 

इस सब के बाद, अमेरिका काबुल में तालिबान के बाद की किसी भी राजनीतिक व्यवस्था को रूस और ईरान के साथ साझा नहीं करना चाहता था। वाशिंगटन को पता था कि नॉर्दन एलायंस रूसी और ईरानी प्रभाव में है। जबकि अमेरिका की भविष्य में अनिवार्य रूप से सुरक्षा मुहैया कराने के लिए नाटो को इलाके में पेश करने की दृष्टि थी ताकि उसकी संरचना पर उसका एकाधिकार स्थापित रहे।  

पश्चिमी ताकतों ने पहले से ही "आतंक पर युद्ध" के नाम पर एक भूराजनीतिक खाका तैयार कर लिया था। क्षेत्रीय राष्ट्रों में – खासकर ईरान, जिसकी आँखों में धूल झोंकते हुए उसे यह विश्वास दिलाया गया था कि अफगानिस्तान में एक अंतरिम सरकार पर चर्चा के लिए बॉन सम्मेलन (दिसंबर 2001) एक व्यापक-आधारित, प्रतिनिधि सरकार बनाने और अफगान स्थिति को स्थिर करने की दिशा में वास्तविक पहल थी।

इस प्रकार जब अमेरिकी राजनयिकों ने अचानक हामिद करजई को अपनी जादुई थैली से बाहर निकाला, तो कई आवाजें उसके विरोध में उठी। उस पर विडंबना यह कि अमेरिका ने बॉन सम्मेलन में नाराज़ नॉर्दन एलायंस के प्रतिनिधिमंडल को शांत करने के लिए जवाद ज़रीफ़ (ईरान के वर्तमान एफएम) की मदद मांगी।

यहां तक कि जहीर शाह भी नाटो शक्तियों के बीच गुप्त समझ से खुश नहीं थे। अंतरिम सरकार का नेतृत्व करने के मामले में वाशिंगटन की पहली पसंद करज़ई भी नहीं थे।  अमेरिकियों ने अलग-अलग लोगों को अलग-अलग तरह के ख्वाब दिखाए। 

अनातोल लेवेन जैसे कुछ लोग जिन्हें (पत्रकार, लेखक या अकादमिक के रूप में वर्णित किया जाता है), का मानना था कि अमेरिकी समर्थन से मुजाहिदीन कमांडर अब्दुल हक़ दौड़ में सबसे आगे हैं। (शायद, इस अफवाह की वजह से हक़ को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था, जैसा कि 26 अक्टूबर 2001 में रहस्यमय परिस्थितियों में लेवन के पेशावर में उनका साक्षात्कार लेने एक पखवाड़े बाद तालिबान ने घोषणा की कि "अफगानिस्तान में हक़ को पकड़ कर उनकी हत्या कर दी गई” - और पाकिस्तानी खूफिया "सूत्रों" ने तुरंत इसकी पुष्टि कर दी थी।"

ज़हीर शाह खुद इस भ्रम में थे कि उनके पसंदीदा सहयोगी, अब्दुल सत्तार सिरत (नॉर्दन एलायंस  के नेता यूनुस क़ानूनी के चचेरे भाई) अमेरिकियों की पसंद थे। सिरत एक पूर्व न्याय मंत्री और ज़हीर शाह के अधीन प्रधानमंत्री के सलाहकार थे और काहिरा और कोलंबिया विश्वविद्यालय में प्रशिक्षित और ऊंचे दर्जे के सम्मानित इस्लामिक विद्वान थे। तो कहानी ये है कि बॉन सम्मेलन की पूर्व संध्या पर, देर रात जब जहीर शाह को रोम में नींद से उठाया गया और उनसे सीरत को नाम वापस लेने को मनाने के लिए कहा गया था, तो वे हैरान थे और पूछा कि "विकल्प कौन है?" और, जब उन्हें करजई का नाम बताया गया, तो बूढ़े राजा ने टकटकी लगाकर पुंछा कि, "वह कौन है?"

आज तक यह एक रहस्य बना हुआ है कि आखिर करज़ई का नाम कैसे आया। वास्तव में, करज़ई औपचारिक शिक्षा, ज्ञान, राज्य या राजनीतिक अनुभव में सत्तार का कोई मुक़ाबला नहीं थे। संभवतः और गलती से, अमेरिकियों ने करज़ई को एक कमजोर और हल्का व्यक्ति मान लिया होगा। जो उनका बड़ा गहरा त्रुटिपूर्ण आंकलन था क्योंकि इस वजह से शायद वाशिंगटन को इस तरह का कीमती और विनाशकारी युद्ध झेलना पड़ा। 

विकीलीक्स केबल के अनुसार, सालों बाद, अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र के पूर्व प्रमुख पीटर गैलब्रेथ और कार्ल ईकेनबेरी, अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सेनाओं के पूर्व कमांडर और काबुल में राजदूत, ने करज़ई की "मानसिक स्थिरता" और मादक पदार्थों की लत के बारे में सवाल उठाए थे। जिस भी तेजी के साथ जब काबुल में बॉन सम्मेलन के निर्णय को रब्बानी को बताया गया था, तो उन्होंने इस बात पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी कि विदेशी शक्तियों को फिर से अफगानिस्तान के भविष्य को निर्धारित नहीं करने का हक़ नहीं दिया जाना चाहिए।

लब्बोलुआब यह है कि युद्ध में अमेरिका का कोई तय एजेंडा नहीं था। वह तालिबान निज़ाम  को हटाने के कुछ हफ्तों के भीतर ही अफगानिस्तान में आक्रमण करने और इसके तुरंत बाद कठपुतली निज़ाम को स्थापित करने के काम में जुट गया था। तब तो हद ही हो गई जब बुश ने जर्मनी और जापान में अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए एक मार्शल योजना के बारे में बात करना शुरू की, इससे पहले कि इराकी उसका पीछा करते। 

इस बीच, अफगानिस्तान का कब्ज़ा अपने आप में एक युद्ध में तब्दील हो गया, जिसमें युद्ध मुनाफाखोरी, महिलाओं, मादक पदार्थों की तस्करी, विदेशी बैंक खातों, ठेकेदारों में तब्दील होता चला गया, भयंकर भ्रष्टाचार और ज़रख़ीद अफगान राष्ट्र। यही कारण है जिसकी वजह से तालिबान को अफगानिस्तान अब नीचे लटका फल नज़र आने लगा और उसे लगा वह अब दूसरी पारी खेल सकता है। 

अब, जैसा कि सीरिया से पराजित इस्लामिक स्टेट और अल-कायदा के लड़ाकों को  अफगानिस्तान में स्थानांतरित किया गया, तो संघर्ष ने एक नया मौड़ ले लिया है, जिसके तहत शिनजियांग, मध्य एशिया और उत्तरी काकेशस में जिहाद की शुरुआत हो गई है। किसी भी गैर-घोषित एजेंडे को "हमेशा लड़े जाने वाले युद्ध" की जरूरत होती है जो कभी बंद नहीं होता है। 

क्लॉज़विट्ज़ ने एक बार लिखा था: "कोई भी युद्ध शुरू नहीं करना चाहता है - या बल्कि, कोई भी अपने होश-ओ-हवाश में ऐसा करना नहीं चाहेगा – जब तक किसी के दिमाग में यह बात स्पष्ट न हो कि उसे युद्ध से क्या हासिल होगा और वह उसे कैसे चलाएगा।" लेकिन उन्होंने एक चेतावनी भी दी कि सैद्धांतिक विचार का इस्तेमाल वास्तविकता में नहीं किया जाता है क्योंकि "युद्ध से प्रभावित होने वाले राष्ट्रीय मामले, कारक, ताकतों और परिस्थितियों की एक विशाल सूची होती है" जो व्यवहार में नज़र नहीं आती है। यह काफी सच है!

बाइडेन पर 2,300 से अधिक अमेरिकी सैनिकों, जो अर्लिंग्टन कब्रिस्तान में दफन हैं का कर्ज़ है, कि वे इसकी तह तक जाएं कि कैसे दो दर्जन विशेष सुरक्षा बलों का सीमित दंडात्मक अभियान उन्नीस वर्षों के लंबे समय तक चलाने वाले युद्ध में तब्दील हो गया।  

सौजन्य:  Indian Punchline

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Chronicle of the Unavailing Afghan War

US
Afghanistan
Afghan war
TALIBAN
Joe Biden
George W. Bush
9/11 attack

Related Stories

यूक्रेन युद्ध से पैदा हुई खाद्य असुरक्षा से बढ़ रही वार्ता की ज़रूरत

यूक्रेन में संघर्ष के चलते यूरोप में राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव 

भोजन की भारी क़िल्लत का सामना कर रहे दो करोड़ अफ़ग़ानी : आईपीसी

छात्रों के ऋण को रद्द करना नस्लीय न्याय की दरकार है

सऊदी अरब के साथ अमेरिका की ज़ोर-ज़बरदस्ती की कूटनीति

गर्भपात प्रतिबंध पर सुप्रीम कोर्ट के लीक हुए ड्राफ़्ट से अमेरिका में आया भूचाल

अमेरिका ने रूस के ख़िलाफ़ इज़राइल को किया तैनात

नाटो देशों ने यूक्रेन को और हथियारों की आपूर्ति के लिए कसी कमर

तालिबान को सत्ता संभाले 200 से ज़्यादा दिन लेकिन लड़कियों को नहीं मिल पा रही शिक्षा

यूक्रेन में छिड़े युद्ध और रूस पर लगे प्रतिबंध का मूल्यांकन


बाकी खबरें

  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: महंगाई, बेकारी भुलाओ, मस्जिद से मंदिर निकलवाओ! 
    21 May 2022
    अठारह घंटे से बढ़ाकर अब से दिन में बीस-बीस घंटा लगाएंगेे, तब कहीं जाकर 2025 में मोदी जी नये इंडिया का उद्ïघाटन कर पाएंगे। तब तक महंगाई, बेकारी वगैरह का शोर मचाकर, जो इस साधना में बाधा डालते पाए…
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    ज्ञानवापी पर फेसबुक पर टिप्पणी के मामले में डीयू के एसोसिएट प्रोफेसर रतन लाल को ज़मानत मिली
    21 May 2022
    अदालत ने लाल को 50,000 रुपये के निजी मुचलके और इतनी ही जमानत राशि जमा करने पर राहत दी।
  • सोनिया यादव
    यूपी: बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था के बीच करोड़ों की दवाएं बेकार, कौन है ज़िम्मेदार?
    21 May 2022
    प्रदेश के उप मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री ब्रजेश पाठक खुद औचक निरीक्षण कर राज्य की चिकित्सा व्यवस्था की पोल खोल रहे हैं। हाल ही में मंत्री जी एक सरकारी दवा गोदाम पहुंचें, जहां उन्होंने 16.40 करोड़…
  • असद रिज़वी
    उत्तर प्रदेश राज्यसभा चुनाव का समीकरण
    21 May 2022
    भारत निर्वाचन आयोग राज्यसभा सीटों के लिए द्विवार्षिक चुनाव के कार्यक्रम की घोषणा  करते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश समेत 15 राज्यों की 57 राज्यसभा सीटों के लिए 10 जून को मतदान होना है। मतदान 10 जून को…
  • सुभाष गाताडे
    अलविदा शहीद ए आज़म भगतसिंह! स्वागत डॉ हेडगेवार !
    21 May 2022
    ‘धार्मिक अंधविश्वास और कट्टरपन हमारी प्रगति में बहुत बड़े बाधक हैं। वे हमारे रास्ते के रोड़े साबित हुए हैं। और उनसे हमें हर हाल में छुटकारा पा लेना चाहिए। जो चीज़ आजाद विचारों को बर्दाश्त नहीं कर सकती,…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें