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हिमालयी लोगों की आजीविका पर असर डाल रहा जलवायु परिवर्तन

दुनियाभर के पर्यटकों को आकर्षित करने वाला एक छोटा सा कस्बा औली इस बार बर्फ़ न गिरने से मायूस है। यहां के स्थानीय लोग, खिलाड़ी, छोटे व्यवसायी मौसम में आ रहे परिवर्तन की कीमत चुका रहे हैं। बर्फ़ न होने की वजह से विंटर गेम्स रद्द कर दिए गए। मौसम के बदलाव बता रहे हैं कि उत्तराखंड जैसे राज्य ही नहीं बल्कि पूरे देश को क्लाइमेट पॉलिसी की सख़्त जरूरत है।
हिमालयी लोगों की आजीविका पर असर डाल रहा जलवायु परिवर्तन
औली का मनोहारी दृश्य (फाइल फोटो)। इस बार बर्फ़ न गिरने से औली में नेशनल विंटर गेम्स रद्द, जम्मू-कश्मीर को मिली मेज़बानी

बर्फ़ न गिरने की वजह से चमोली के औली में फरवरी के आखिरी हफ़्ते में होने वाले विंटर गेम्स रद्द कर दिए गए। अब ये खेल जम्मू-कश्मीर के गुलमर्ग में आयोजित हो रहे हैं। औली के लोग सालभर इस इवेंट का इंतज़ार करते हैं। ये आयोजन स्थानीय लोगों की आजीविका का बड़ा ज़रिया होते हैं। इससे पहले वर्ष 2012, 2013, 2015 और 2016 में भी मौसम अनुकूल न होने की वजह से औली में विंटर गेम्स रद्द किये जा चुके हैं।

समुद्रतल से करीब 2500 से 3500 मीटर तक ऊंचाई पर बसा औली उत्तराखंड के पर्यटन के नक्शे पर एक ख़ास स्थान रखता है। बर्फ़ की ढलानों पर स्कीइंग से जुड़े खेलों के ख़ास आकर्षण के लिए पर्यटक औली आते हैं। इस बार की सर्दियों का मौसम पर्यटन और स्कीइंग से जुड़े लोगों को निराश कर बीत रहा है। विंटर गेम्स स्थानीय लोगों के लिए एक ख़ास मौका होता है। इसके अलावा बर्फ़ से ढके मैदान पर स्कीइंग का आकर्षण भी पर्यटकों को यहां खींचता है।

मौसम की मार और प्रशासन की बेरुखी

स्कीइंग और स्नो बोर्डिंग समेत एंडवेंचर स्पोर्ट्स से जुड़े और इनके अंतर्राष्ट्रीय खेलों में हिस्सा ले चुके औली के विवेक पंवार मौसम के गर्म मिज़ाज़ से निराश हैं। लेकिन उससे भी ज्यादा मायूसी इस बात को लेकर है कि बर्फ़ न पड़ने की स्थिति में कृत्रिम बर्फ़ बनाने के लिए लाई गई मशीनें किसी काम की नहीं हैं। विवेक कहते हैं “इस बार बर्फ़ काफी कम रही है। पिछली दो सर्दियां अच्छी बर्फ गिरी थी। लोग आ रहे हैं और देखते हैं कि बर्फ़ नहीं है तो वापस लौट जा रहे हैं”।

“कृत्रिम बर्फ़ बनाने के लिए वर्ष 2009 में मशीनें लगाई गई थीं। करीब एक-डेढ़ किलोमीटर लंबी झील बनायी गई थी। ताकि जब बर्फ़ न गिरे तो इन स्नो गन मशीनों से बर्फ़ बनायी जा सके। लेकिन ये मशीनें कभी काम नहीं आईं। हमने इस पर आरटीआई भी लगाई लेकिन ज्यादा जानकारी नहीं मिली। स्थानीय प्रशासन से भी हम इसकी शिकायत कर चुके हैं”।

विवेक कहते हैं “औली में बर्फ़ बनाने के लिए करोड़ों खर्च करके लगाई गई मशीनें हमारे किसी काम की नहीं हैं। पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज ने  पिछले वर्ष  नवंबर में यहां ओपन आइस स्केटिंग रिंक का उदघाटन किया। उन्होंने जोशीमठ से इसका उदघाटन कर दिया। वह ग्राउंड ज़ीरो पर गए भी नहीं। अगर ये रिंक बनी होती तो आज आइस हॉकी चलती। टूरिज़्म चलता। सिर्फ झूठा प्रचार कर दिया गया है”।

पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज ने नवंबर 2020 में एक करोड़ 38 लाख 89 हज़ार रुपये की लागत से तैयार आइस स्टेकिंग रिंक का उदघाटन किया था।

उजाड़ पड़े इस आइस रिंक का पिछले वर्ष नवंबर में सतपाल महाराज ने किया था उद्घाटन

स्की और स्नोबोर्ड एसोसिएशन ऑफ चमोली के सचिव संतोष कुंअर इस ओपन रिंक की तस्वीर हमसे साझ़ा करते हैं। वह बताते हैं कि जंगली सूअरों ने इस रिंक की मिट्टी उधेड़ दी है। चारों तरफ तख्ते लगाकर छोड़ दिया गया है। बांज के जंगलों के बीच जिस जगह ये रिंक बनायी गई है, वहां का तापमान बेहद कम रहता है। अगर ये रिंक सही तरीके से बनी होती तो पर्यटक यहां तीन-चार दिन ठहरते। यहां नाइट आइस-स्कीइंग भी हो सकती थी।

संतोष कुंअर कहते हैं कि मौसम में बदलाव की वजह से हमारी आमदनी प्रभावित हो रही है। औली में पर्यटक बर्फ़ की वजह से ही आते हैं। इसके अलावा यहां पर्यटकों को रोकने के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं है। बर्फ़ के समय स्कीइंग के सात दिन और 14 दिन के कोर्स कराए जाते हैं। स्कीइंग-स्केटिंग के अलावा यहां पर्यटन की कोई अन्य गतिविधि नहीं है।

औली में होटल एसोसिएशन के अध्यक्ष अंतिप्रकाश शाह कहते हैं कि पिछले वर्ष की सर्दियों की तुलना में इस वर्ष हमारी 20 प्रतिशत भी आमदनी नहीं हुई। होटल, होम स्टे, बर्फ़ में चलने के लिए गम बूट्स देने वाले, टेंट लगाने वाले, लकड़ी बेचने वाले जैसे पर्यटन से जुड़े सभी लोग प्रभावित हुए हैं। सर्दियों में ही यहां लोगों की अच्छी आमदनी होती है।

मौसम में उतार-चढ़ाव

वर्ष 2018-19 और 2019-20 की सर्दियों ने बर्फ़बारी के पिछले रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। समुद्र तल से एक हज़ार मीटर की ऊंचाई पर भी वर्षों बाद बर्फ़ गिरी थी। इस बार की सर्दियों में गर्मी का रिकॉर्ड टूट गया।

देहरादून मौसम विज्ञान केंद्र नैनीताल के मुक्तेश्वर में स्थापित वेदर स्टेशन से बर्फ़बारी के आंकड़े जारी करता है। मुक्तेश्वर समुद्र तल से 2000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर स्थित है। केंद्र से मिले आंकड़ों के मुताबिक इस वर्ष जनवरी में मुक्तेश्वर में कोई बर्फ़ नहीं गिरी। 6 फ़रवरी को ठीक बर्फ़बारी हुई थी।

इससे पहले वर्ष 2020 में कुल 19.2 इंच बर्फ़ गिरी थी। जबकि वर्ष 2019 में कुल 17.9 इंच बर्फ़ गिरी। वर्ष 2018- 3 इंच, 2017- 8 इंच, 2016-1.5 इंच और 2015- 4 इंच बर्फ़ गिरी थी।

फरवरी में टूटा गर्मी का रिकॉर्ड

समुद्रतल से 2000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर बसे मसूरी में भी फरवरी के महीने में गर्मी सामान्य से अधिक देखी जा रही है। देहरादून मौसम विज्ञान केंद्र के मुताबिक 21 से 27 फ़रवरी के बीच मसूरी का अधिकतम और न्यूनतम तापमान सामान्य से कहीं अधिक दर्ज किया गया। इस हफ्ते में मसूरी का अधिकतम तापमान 23 डिग्री तक पहुंच गया जबकि सामान्य तौर पर अधिकतम तापमान 12-13 डिग्री के बीच होना चाहिए। इसी तरह न्यूनतम तापमान भी सामान्य 5 डिग्री सेल्सियस की जगह 8-9 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया।

मार्च-अप्रैल में खिलने वाले बुरांश में फरवरी में आए फूल

बदलती जलवायु का प्रतीक बना बुरांश

चमोली आपदा के पीछे भी जलवायु परिवर्तन एक बड़ी वजह मानी जा रही है। बर्फ़ और गर्मी से पैदा हुआ अवलांच अपने साथ भारी तबाही लाया। पूरी सर्दियां उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने की घटनाएं दर्ज की गईं। वहीं, इस समय फरवरी के दूसरे-तीसरे हफ्ते में खिले बुरांश के मोहक फूल भी मौसमी परिवर्तन को दिखा रहे हैं। मार्च के अंतिम हफ्ते या अप्रैल में खिलने वाले बुरांश तेज़ गर्मी के चलते फ़रवरी में छा गए हैं। मौसम में आ रहे इन बदलावों का असर पर्यटन के साथ खेती-बागवानी पर भी पड़ रहा है।

क्लाइमेट पॉलिसी की ज़रूरत

हिमालय धरती का तीसरा ध्रुव कहे जाते हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग का असर हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता को बढ़ा रहा है। यहां आ रहे बदलावों का असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा। हिमालयी लोग आजीविका के लिए कृषि-पशुपालन के साथ पर्यटन पर भी निर्भर करते हैं। दुनियाभर के पर्यटकों को आकर्षित करने वाला एक छोटा सा कस्बा औली इस बार बर्फ़ न गिरने से मायूस है। यहां के स्थानीय लोग, खिलाड़ी, छोटे व्यवसायी मौसम में आ रहे परिवर्तन की कीमत चुका रहे हैं। बर्फ़ न होने की वजह से विंटर गेम्स रद्द कर दिए गए। ये बदलाव बता रहे हैं कि उत्तराखंड जैसे राज्य ही नहीं बल्कि पूरे देश को क्लाइमेट पॉलिसी की सख़्त जरूरत है।

(देहरादून स्थित वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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