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धनबाद: कोरोना महामारी में कोयला बिनाई का काम करने वालों ने गंवाई जानें और आजीविका

लॉकडाउन में कोयला खदानों के चालू रहने के बावजूद, आवाजाही पर लगे कड़े प्रतिबंधों के चलते कोयला बीनने वालों की आय खत्म हो गई।
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अपनी साइकिल पर 50 किलो कोयला लादे दो लोग तेज लपटों से निकलकर आते हैं। भारत के सबसे ख़तरनाक कोयला क्षेत्र में कोयला इकट्ठा करने वालों के सामने आने वाली चुनौतियों को बताते हुए असगर आलम और जीन महतो कहते हैं, "कोयला ही हमारी किस्मत है और कोरोना हमारी दैनिक आजीविका के सामने पेश नई चुनौती है।" दोनों लोग झारखंड के बगदिगी गांव के रहने वाले हैं। जले हुए कोयले के अपशिष्टों और ज्वलनशील क्षेत्र के सबसे पास रहने वाले लोगों में भी यह दोनों शामिल हैं।

आलम और महतो दोनों, सुबह सूरज निकलने से पहले चार घंटे के लिए, फिर शाम को भी कुनिया कोयला क्षेत्र में जाते हैं। इस दौरान वे करीब 50 किलो कोयला अपनी साइकिलों पर बांधकर लाते हैं। इसमें से वे काम का कोयला छांटते हैं, और उसे स्थानीय बाज़ार में बेच देते हैं। इससे क़रीब 200 रुपए की कमाई हो जाती है। इस कोयले को इकट्ठे करने के लिए उन्हें "सीआईएसएफ के सुरक्षा कर्मियों के डराने वाले अनुभव से भी गुजरना पड़ता है।"

कोयला बीनने वालों के लिए कोविड महामारी का फैलना दोहरी मार थी। इस महामारी में कई जानें गईं, साथ ही महामारी ने उनकी आजीविका को तबाह कर दिया। लॉकडाउन में कोयला की खदानें काम कर रही थीं, लेकिन आवाजाही पर लगाए गए कड़े प्रतिबंधों के चलते कोयला बीनने वालों की दिनचर्या पूरी तरह खराब हो गई। महतो उन बिनाई करने वालों में शामिल थे, जिन्होंने बाहर जाने का साहस किया। उन्हें पुलिस का कहर झेलना पड़ा, जिन्होंने गांव के आसपास बैरिकेड लगा रखे थे।

एस्मा एक्ट, 1981 की धारा 2 (12) के मुताबिक किसी संस्थान या प्रतिष्ठान में कोयले, ऊर्जा या उर्वरकों का उत्पादन, आपूर्ति या वितरण से संबंधित सेवा एक अनिवार्य सेवा मानी जाएगी। लेकिन इनसे जुड़ी गतिविधियां, जैसे कोयला बिनाई, उनके ऊपर प्रतिबंध लगने से स्थानीय बाज़ार, रेस्त्रां और परिवारों में कोयला आपूर्ति बाधित हुई।

हार्वर्ड का एक शोध अपने अनुमान में कहता है कि कोयला बेल्ट पर करीब एक से डेढ़ करोड़ लोग निर्भर हैं। सुबह दिन निकलने के पहले अपना काम चालू करने और 11 बजे सुबह अपना काम ख़तम करने वाले आनंद मांझी धनबाद के मुगमा में कपासरा की खुली खदान के पास रहते हैं। महामारी ने कोयला बीनने का उनका एकमात्र आजीविका का साधन भी छीन लिया। इस कोयले को वे स्थानीय खाने की दुकानों, भट्टों और छोटे व्यापारियों को बेचते थे, जिससे उनके 5 लोगों के परिवार का पेट पलता था। "मई से जून तक सभी पांच लोगों को दो महीने तक बिना पैसे की जिंदगी जीने को मजबूर होना पड़ा "

मांझी ने कोविड की वैक्सीन नहीं लगवाई, क्योंकि वो एक भी दिन की आय वैक्सीन लगने के बाद आने वाले बुखार के चलते नहीं छोड़ सकते थे। कपासरा में कोयला बीनने वालों की बड़ी आबादी रहती है। जो वैक्सीन कि अनुपलब्धता के चलते खतरे में पड़ गई। स्थानीय लोगों के मुताबिक, वैक्सीन की उपलब्धता की सूचना पंचायत द्वारा दी जानी थी, लेकिन सरपंच उसके ऊपर पकड़ बनाए रखा। सिर्फ उसके करीबियों को ही इसकी सूचना दी गई।

सुनीता राजापुर खदान में हर दोपहर को बास्केट भरकर कोयला बीनती हैं, जो करीब 5 किलो होता है। ऐसे कुछ बास्केट से 45-50 किलो कोयला इकट्ठा हो जाता है। फिर उनके परिवार का एक सदस्य इसे अपनी साइकिल पर गांव ले जाता है। सुनीता को हर गट्ठे पर 10 रुपए सुरक्षा अधिकारियों को देने पड़ते हैं, ताकि वे परेशान ना करें।

गांव वाले बेहद खराब स्थितियों में कोयला बीनने का काम करते हैं। कोयले के जलने पर खदान से जहरीली गैसें निकलती हैं। धनबाद में रहने वाले और कोयला बीनने का काम करने वाले विनोद यादव हर रोज एक क्विंटल कोयला धनबाद रेलवे स्टेशन के पास खाने की होटलों को बेचते हैं। वे अपने ढेर के साथ करीब 7 किलोमीटर की यात्रा अपनी साइकिल पर करते हैं। हर एक से उन्हें सिर्फ 60 रुपए मिलते हैं। अपने भाई के साथ यादव 12 साल से भी ज्यादा वक़्त से कोयला बीनने का काम कर रहे थे। दुर्भाग्य से महामारी ने उनके भाई को छीन लिया। उनके भाई टीबी के मरीज़ थे।

झारखंड में सबसे ज्यादा कोयले के भंडार हैं (भारत का करीब 32 फीसदी हिस्सा), लौह अयस्क के दूसरे सबसे ज्यादा (25.07 फ़ीसदी), तांबा अयस्क के तीसरे सबसे ज्यादा (18.48 फीसदी), बॉक्साइट के सातवें सबसे ज्यादा भंडार हैं। झारखंड खाना बनाने वाले कोयले का अकेला उत्पादक है। लेकिन उच्च खनिज सम्पदा से राज्य में उन्नति नहीं आई है। झारखंड सरकार के मुताबिक़, राज्य में 39.1 फ़ीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं, जो देश के 29.8 फ़ीसदी स्तर से ज्यादा है।

भारत कोलियरी कामगार यूनियन के लोधाना यूनिट अध्यक्ष, शिबालक पासवान ने न्यूज़क्लिक को बताया कि धनबाद में कोयला बीनना आजीविका का अंग है। सन 2000 में भारत कोकिंग कोल लिमिटेड ने खुली खदानें या सुरंगें बनाकर खनन चालू किया था। इन्हें दोबारा नहीं भरा गया और ये स्थानीय लोगों के लिए बचे हुए कोयले को इकट्ठा करने का आकर्षण बन गए। कोयला इकट्ठा करते हुए कई गांव वाले मारे गए। कई मौतें तो सामने नहीं आतीं, क्योंकि परिवार को कोयले के अवैध एकत्रीकरण के लिए पुलिस प्रताड़ना और बीसीसीएल की कार्रवाई का डर होता है। पासवान कहते हैं, "दुख महसूस करते हुए अपने खाने का प्रबंध करना बिनाई करने वालों की नियति होती है।"

झरिया क्षेत्र में कई बिनाई करने वाले कोरोना की पहली लहर में मृत पाए गए थे। जहरीली गैसों से उनका रोज पाला पड़ता था। इसके चलते उन्हें कोरोना से सबसे ज्यादा खतरा था। महामारी के फैलाव के बाद झरिया अस्पताल में बड़ी संख्या में अस्थमा और टीबी की शिकायत करने वाले मरीज आए थे।

इसे लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें: 

Coal Scavengers in Dhanbad Lose Lives, Livelihood in Pandemic

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