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साझी विरासत-साझी लड़ाई: 1857 को आज सही सन्दर्भ में याद रखना बेहद ज़रूरी

आज़ादी की यह पहली लड़ाई जिन मूल्यों और आदर्शों की बुनियाद पर लड़ी गयी थी, वे अभूतपूर्व संकट की मौजूदा घड़ी में हमारे लिए प्रकाश-स्तम्भ की तरह हैं। आज जो कारपोरेट-साम्प्रदायिक फासीवादी निज़ाम हमारे देश में थोपा जा रहा है, वह 1857 के मूल्यों के सम्पूर्ण निषेध पर खड़ा है।
Indian Rebellion
1857 की क्रांति के नायक-नायिकाएं। तस्वीर गूगल से साभार

"गाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की,

तख़्त-ए-लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की"

10 मई 1857 को हमारी आज़ादी की पहली लड़ाई का शंखनाद हुआ था। यह अंग्रेजों के ख़िलाफ़ फूट पड़ने वाले अनगिनत आदिवासी तथा अन्य जनविद्रोहों की श्रृंखला का उच्चतम-बिन्दु और उनकी राष्ट्रीय राजनीतिक परिणति थी जिसका लक्ष्य अंग्रेजों की सत्ता उखाड़ फेंककर आज़ाद भारत की सरकार की स्थापना था।

1857 को आज सही सन्दर्भ में याद रखना बेहद जरूरी है क्योंकि आज़ादी की यह पहली लड़ाई जिन मूल्यों और आदर्शों की बुनियाद पर लड़ी गयी थी, वे अभूतपूर्व संकट की मौजूदा घड़ी में हमारे लिए प्रकाश-स्तम्भ की तरह हैं।

1857 से न सिर्फ देशभक्तों की परवर्ती पीढ़ियों ने प्रेरणा और सबक लेते हुए साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष को अंततः 1947 में विजयी परिणति तक पहुंचाया, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भी अपने निष्कर्ष निकाले और भारत में divide and rule की जो नीति लागू की उसने अंततः हिंदुस्तान को एक खतरनाक रास्ते की ओर धकेल दिया। भारत के मौजूदा शासक अंग्रेजों की उसी विभाजनकारी राजनीति के product हैं और उन्हीं के नक्शे कदम पर चल रहे हैं।

आज जो कारपोरेट-साम्प्रदायिक फासीवादी निज़ाम हमारे देश में थोपा जा रहा है, वह 1857 के मूल्यों के सम्पूर्ण निषेध पर खड़ा है।

इतिहास के संदर्भ में संघी शस्त्रागार के दो जो सबसे बड़े हथियार हैं, मसलन यह कि मुस्लिम शासकों का दौर भारतीय इतिहास का अंधकार युग ( dark age ) है, जिसने भारत को तरक्की के रास्ते से पतन की ओर धकेल दिया और दूसरा यह कि उस दौरान हिंदुओं पर बहुत अत्याचार हुआ और यह हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य का काल था-1857 इन दोनों की धज्जियां उड़ा देता है। इतिहासकार मानते हैं कि अंग्रेजों द्वारा भारत से हुई अपार लूट के बल पर ही, जिसमें 1857 में हुई हमारे तब के लखनऊ जैसे शहरों की लूट भी शामिल है ( जो समृद्धि में लंदन-पेरिस से टक्कर लेते थे ) ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति ( Industrial Revolution ) परवान चढ़ी। अगर मुगल शासन में भारत अवनति के गड्ढे में चला गया था, तो इतनी सम्पदा और समृद्धि कहाँ से आई थी ?

जहां तक हिंदुओं पर अत्याचार और आपसी वैमनस्य की बात है, अगर वह वैसी ही सच होती, जैसा आरएसएस बताना चाहता है तो 1857 में जो अद्भुत हिन्दू-मुस्लिम एकता दिखी, जो अगणित साझी शहादतों का इतिहास रचा गया, 70% हिन्दू सैनिकों वाली सैन्य परिषद ने बहादुर शाह जफर को अपना नेता घोषित किया, वह सब कैसे होता ?

दरअसल, 1857 के मूल्य, बाद में हिन्दू-मुस्लिम विभाजन और विद्वेष की गढ़ी गयी कहानी का-जिसे अंततः two nation theory तक पहुंच दिया गया और देश का दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन हुआ-सबसे concrete negation थे।

1857 के युगान्तकारी असर को इस बात से भी समझा जा सकता है कि अभी भी वह हमारे समाज के लिये अतीत नहीं, बल्कि एक जीवित प्रसंग की तरह है। सरकारी इतिहास में भले इन साझी शहादतों की ( विशेषकर मुस्लिम नायकों की ) स्मृतियों को मिटाने की कोशिश की जा रही है, पर 165 साल बीत जाने के बाद भी उसके वीर नायक/नायिकाएं आज भी अनगिनत लोकगीतों, कथाओं, किंवदन्तियों के माध्यम से देशभक्त जनता के दिलों में प्रेरणा बनकर जिंदा है।

यह अनायास नहीं है कि मोदी UP में प्रायः हर चुनाव अभियान की शुरुआत मेरठ में 1857 के शहीद-स्थल से करते हैं और वीर कुंवर सिंह के विजयोत्सव पर अमित शाह को उनकी जन्मभूमि जगदीशपुर जाना पड़ता है, यह अलग बात है कि ऐसे अवसर पर भी वे लोग माफी-वीर सावरकर का महिमाण्डन करने से बाज नहीं आते और उसे अपनी संकीर्ण राजनीति का मंच बनाने की कोशिश करते हैं।

दरअसल, आज़ादी की लड़ाई को लेकर संघ-भाजपा की दृष्टि बिल्कुल उल्टी और घोर प्रतिक्रियावादी है। वह आजादी की लड़ाई के वीर शहीदों के मूल्यों और आदर्शों के विपरीत तब भी थी और आज भी है। यह अनायास नहीं है कि इस विचारधारा को मानने वालों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया।

आज वही दृष्टि सरकारी दृष्टि बन गयी है।

पिछले दिनों एक सरकारी प्रकाशन में जो कुछ कहा गया उससे राष्ट्रवाद की उनकी दिवालिया और शरारतपूर्ण सोच पर रोशनी पड़ती है। स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में भारत सरकार के अमृत महोत्सव की PIB द्वारा जारी e-मैगज़ीन " न्यू इंडिया समाचार " में कहा गया है, " भक्ति आंदोलन ने भारत में आज़ादी की लड़ाई का आगाज़ किया । भक्ति युग के दौरान, इस देश के हर क्षेत्र के संत-महंत, चाहे वह विवेकानन्द रहे हों, चैतन्य महाप्रभु हों या महर्षि रमण हों, इसकी आध्यात्मिक चेतना को लेकर चिंतित थे। वे ही 1857 के विद्रोह के अग्रदूत बने। "

इस टिप्पणी में विवेकानन्द को, जो 1857 के 6 साल बाद 1863 में पैदा हुए, उन्हें 1857 का प्रेरणास्रोत बताए जाने के हास्यास्पद blunder ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया पर उसे अगर छोड़ भी दिया जाय, तो 1857 को भक्ति आंदोलन से जोड़ने की इस कसरत का क्या तुक-ताल है?

इसका मन्तव्य खुलता है जब हम उसी टिप्पणी में यह पढ़ते हैं कि, "आज़ादी की लड़ाई केवल ब्रिटिश-राज तक सीमित नहीं है, उसके पहले भी भारत गुलामी के एक दौर से गुजर चुका था। इसके खिलाफ लड़ने वाले सारे महान लोगों के योगदान को highlight करने की पहल हमारे राडार पर है। " साफ है यहां इशारा मुगल शासन की ओर है, उसे गुलामी का दौर बताया जा रहा है। इतिहास में दर्ज सच यह है कि मुगलों ने भारत को तरक्की और समृद्धि के शिखर पर पहुंचाया और वे इस दौलत को अंग्रेजों की तरह विदेश नहीं ले गए, बल्कि स्वयं भी यहीं जिये और यहीं की मिट्टी में दफ्न हो गए।

जहां हमारी आज़ादी की लड़ाई के नायकों के लिए आज़ादी का मतलब ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति थी, जनता के राज की स्थापना थी, देश से साम्राज्यवाद के आर्थिक दोहन ( जिसे लेकर दादा भाई नौरोजी ने चर्चित drain theory दिया था ) का अंत था, उनके निरंकुश राज का अंत कर "सम्प्रभु, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी लोकतान्त्रिक गणतंत्र" की स्थापना था, वहीं संघी सोच के अनुसार यह एक रहस्यमयी "आध्यात्मिक चेतना " का प्रवाह और प्रकटीकरण था, जाहिर है यहां जिस आध्यात्मिक चेतना की बात की जा रही है, वह हिन्दू चेतना है क्योंकि " अंग्रेजों के पहले भी हम गुलाम थे " ( यहां साफ तौर पर आज़ादी को मुस्लिम विरोध से जोड़ने की कोशिश है ), इसी लिए भक्तिकाल को 1857 की प्रेरणा घोषित कर दिया जाता है और उत्साह में उसमें विवेकानन्द को, जो 1857 में पैदा भी नहीं हुए थे, उन्हें 1857 का प्रेरणास्रोत बताने का हास्यास्पद blunder हो जाता है !

इस तरह राष्ट्रवाद और आज़ादी की संघी अवधारणा इसे साम्राज्यवाद और वित्तीय-पूँजी के खिलाफ संघर्ष से divert करके ( हिन्दू ) आध्यात्मिक चेतना की भावुक लफ्फाजी करते हुए इसे मुस्लिम विरोधी दिशा में मोड़ देती है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की चासनी में लिपटी यह हिन्दू राष्ट्र की फासीवादी परियोजना है।

हालत यहां तक पहुंच गई कि संविधान के बुनियादी ढाँचे की अवमानना करते हुए धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र को अब धार्मिक लोकतन्त्र बताया जा रहा है। ( भाजपा सांसद जयंत सिन्हा का इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित लेख भारत को धार्मिक लोकतन्त्र बताते हुए इसे हिन्दू लोकतन्त्र या हिन्दू राष्ट्र कहने से बस एक कदम पहले रुक जाता है!)

जो एक मूर्त लड़ाई थी आज़ादी के लिए, साम्राज्यवादी लूट और उसके निरंकुश राज के खिलाफ उसे अमूर्त आध्यात्मिक चेतना के कुहासे में ढक दिया गया है। जाहिर है इस कथित आध्यात्मिक चेतना की बुनियाद पर आज " राष्ट्र के पुनर्निर्माण" का जो दावा किया जा रहा है, इसमें वित्तीय पूँजी और कारपोरेट के लूट की बात कहीं नहीं है, उल्टे उसे पुरजोर ढंग से promote किया जा रहा है, आज़ादी और राष्ट्रवाद की इस संघी अवधारणा में किसानों, मेहनतकशों के आर्थिक शोषण, जनता के राजनैतिक अधिकारों, सामाजिक न्याय और समता आदि की सारी बातें बेमानी बना दी गई हैं। हिन्दू रंग में रंगे इस विमर्श की पूरी धार मुस्लिम विरोधी होती जाती है।

अंग्रेजों के जमाने के divide and rule को आगे बढ़ाते हुए खुल्लम-खुल्ला साम्प्रदायिक फासीवादी निज़ाम कायम किया जा रहा है।

मोदी-शाह भूलकर भी कभी 1857 के रणनीतिकार कैप्टन अज़ीमुल्ला खां, अवध के महाविद्रोह की नायिका बेगम हजरत महल और मौलवी अहमदुल्लाशाह, लक्ष्मी बाई के वीर कमांडर खुदा बख़्श तथा बहादुर शाह जफर, जिन्हें प्रतीक बनाकर वह पूरी जंग लड़ी गयी थी, का नाम नहीं लेते।

उल्टे, 1857 को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम बताने के लिये सावरकर का वे ऐसा महिमाण्डन करते हैं, जैसे वे ही इसके सबसे बड़े नायक रहे हों ! ( हो सकता है कुछ भक्त सचमुच ऐसा मानते हों, जबकि वे उस समय पैदा भी नहीं हुए थे ! ) सच्चाई यह है कि मार्क्स ने 1857-58 में ही, जब सावरकर पैदा भी नहीं थे, इसे भारतीयों की राष्ट्रीय क्रांति घोषित किया था। सिपाहियों को वर्दीधारी किसान बताकर इस युद्ध के क्रांतिकारी वर्गीय सार को उद्घाटित करते हुए मार्क्स ने अंग्रेजों द्वारा इसे " सिपाही विद्रोह" बताये जाने की थीसिस को ध्वस्त कर दिया था। ठीक वैसे ही इसे ढहते हुए सामंतवाद की आखिरी लड़ाई साबित करने की परवर्ती काल की dominant thesis को भी मार्क्स का यह characterisation खारिज कर देता है।

सबसे महत्वपूर्ण यह है कि सावरकर दो राष्ट्र का सिद्धांत गढ़कर और हिन्दू राष्ट्र के idealogue बनकर उसी 1857 के मूल्यों के ख़िलाफ़ खड़े हो गए और वस्तुगत रूप से वे स्वयं तथा उनके अनुयायी साम्राज्यवाद के पक्ष में चले गए और उसके " बांटो और राज करो" के खेल में मददगार हो गए।

यह हमारे राष्ट्रीय इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी है कि आज़ादी की लड़ाई के ख़िलाफ़ खड़ी इस धारा के वारिस आज राष्ट्रवाद के नाम पर सत्ता में हैं और वे अपनी इतिहासदृष्टि को पूरे देश पर थोप रहे हैं।

आज कोशिश है कि 1857 को भुला दिया जाय, उसे विस्मृति की खोह में धकेल दिया जाय या फिर उसके क्रांतिकारी सार को distort कर भगवा रंग में रंग दिया जाय क्योंकि यह हिन्दूराष्ट्र के प्रोजेक्ट में बाधक है। दरअसल राष्ट्रवाद की राजनीति में ही संघ-भाजपा के प्राण बसते हैं, लेकिन1857 से लेकर 1947 तक चली आज़ादी की लड़ाई से वह बाहर थी। यही उसकी विचारधारा की सबसे कमजोर नस है, जिस पर निर्णायक प्रहार उसकी राजनीति का अंत कर सकता है।

1857 से 1947 तक चली आज़ादी की लड़ाई के महान मूल्यों और शहीदों के सपनों को अपनी शक्ति बनाकर, उस विरासत को reclaim करते हुए ही किसान आंदोलन ने मोदी -शाह के अम्बानी-अडानी परस्त कारपोरेट राष्ट्रवाद को expose कर दिया था तथा उनकी सारी साम्प्रदायिक अंधराष्ट्रवादी साजिशों का मुंहतोड़ जवाब देते हुए घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था।

यही रास्ता है !

आज सभी देशभक्त तथा लोकतान्त्रिक ताकतों को एकताबद्ध होकर हमारी आज़ादी की लड़ाई के मिथ्याकरण का मुकाबला करना होगा, राष्ट्रवाद की संघी सोच के साम्राज्यवाद-परस्त अतीत व वर्तमान को बेनकाब करते हुए उनकी विनाशकारी विचारधारा और राजनीति की शिकस्त देना होगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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