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फ़िरक़ा-परस्तों की ख़्वाबगाह बनता देश!

दरअसल, ये सांप्रदायिक बहसें इसलिए नहीं की जा रही हैं कि अपराधों को रोकना है, बल्कि ये बहसें आपराधिक घटनाओं के बहाने समाज को बांटने के लिए प्रायोजित की जा रही हैं।
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प्रतीकात्मक तस्वीर।

एक युवक ने अपना नाम राशिद खान बताकर श्रद्धा मर्डर कांड को जायज ठहराया। उसने दाढ़ी बढ़ाकर ऐसा हुलिया बनाया था कि लोग उसे मुसलमान समझें। ऐसा हुआ भी। उसका वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। भाजपा समर्थक आईटी सेल ने उसे शेयर करते हुए यह संदेश देने की कोशिश की कि देखिए कैसे 'एक मुसलमान श्रद्धा के मर्डर को जायज ठहरा रहा है।' ऐसे हर संदेश में एक व्यापक संदेश छुपा होता है कि भारत में बहुसंख्यक हिंदू खतरे में हैं और यह खतरा उन्हें अल्पसंख्यक मुसलमानों से है। ऐसे हर संदेश को प्रसारित करने का एक अघोषित लक्ष्य यह भी है कि मुसलमान स्वभाव से हिंसक होते हैं और हिंदुओं द्वारा उन्हें 'काबू' करने की जरूरत है। यह प्रकारांतर से भीड़ का आह्वान होता है। खैर, पुलिस ने उस राशिद खान नामधारी मुसलमान को गिरफ्तार किया और तफ्तीश की गई तो पता चला कि वह राशिद खान नहीं, विकास कुमार है।

दिल्ली में सामने आए श्रद्धा मर्डर कांड ऐसी क्रूरतम घटना रही जिसने समाज में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर बेहद गंभीर सवाल खड़े किए। श्रद्धा के साथ उसके लिव-इन पार्टनर ने जिस तरह बर्बरता की, वह कलेजा कंपा देने वाला है। लेकिन इस घटना के साथ हमारे सड़ रहे समाज का एक और सच सामने आया है जो कहीं ज्यादा खतरनाक है और यह सड़न दिनबदिन बढ़ती जा रही है।

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श्रद्धा मर्डर कांड के सामने आते ही सांप्रदायिक तत्वों ने सोशल मीडिया पर प्रचारित करना शुरू किया कि देखिए मुस्लिम लड़के कैसे हिंदू लड़कियों को फंसाकर उन्हें क्रूरतापूर्वक मार रहे हैं। सालों से चल रहा फर्जी लव जिहाद का प्रोपेगेंडा एक बार फिर से प्रचारित किया जाने लगा। यहां तक कि मीडिया चैनलों और पत्रकारों ने भी आरोपी का नाम लिखकर दुराग्रहपूर्ण सवाल किए हैं।

इसके जवाब में दूसरे पक्ष के लोगों ने ऐसी ही कुछ अन्य घटनाएं खोजीं, जिनमें आरोपी हिंदू और पीड़ित मुसलमान हो। पूछा जाने लगा कि क्या इसे भी लव जिहाद का नाम दिया जाएगा? इस तरह से एक बेहद खतरनाक और क्रूरतम घटना को लेकर बहस करने वाले दो पक्ष तैयार हुए जिसकी मदद से हिंदू-मुसलमानों के बीच वैमनस्य और विभाजन बढ़ाने की कोशिश की गई।

जैसा कि आम तौर होता है, श्रद्धा मर्डर केस के बाद उस तरह के बर्बरतापूर्ण मर्डर जहां जहां भी हुए थे, मीडिया ने उन्हें खास तवज्जो दी। श्रद्धा कांड के बाद दिल्ली, यूपी, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल में ऐसे ही केस आए जहां महिला या पुरुष का मर्डर करके लाश को कई टुकड़ों में काटा गया। कहीं आरोपी मुसलमान हैं, कहीं पर हिंदू। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे मीडिया और कथित सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स ने समाज में पनप रही क्रूरता और हिंसा को बहस का मुद्दा नहीं बनाया, उन्होंने बहस को जानबूझकर हिंदू-मुस्लिम वैमन्य पर केंद्रित रखा।

जब मैं यह लिख रहा हूं, मीडिया में खबर छपी है कि दिल्ली में एक और वैसा ही केस सामने आया है, जिसमें पूनम नाम की एक महिला ने अपने बेटे दीपक के साथ मिलकर पति अंजन दास की हत्या की, उसे टुकड़ों में काटकर फ्रिज में रख दिया और इधर-उधर फेंक रहे थे। क्या इन खौफनाक वारदातों को अब धर्म के आधार पर सुलझाया जाएगा?

दरअसल, ये सांप्रदायिक बहसें इसलिए नहीं की जा रही हैं कि अपराधों को रोकना है, बल्कि ये बहसें आपराधिक घटनाओं के बहाने समाज को बांटने के लिए प्रायोजित की जा रही हैं। इसके लिए एक राष्ट्रीय ढांचा तैयार हो चुका है जिसमें भाजपा, उसके आनुषंगिक संगठन, केंद्र सरकार और मीडिया शामिल है।

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बरसों से चल रही मुसलमान-विरोधी फर्जी बहसों को मीडिया बाकायदा हवा तो देता है, लेकिन कभी सच दिखाकर उसका खंडन नहीं करता। क्या आज तक देश में कोई ऐसा केस पाया गया जिसमें कोर्ट में यह साबित हुआ हो कि मुसलमान संगठित ढंग से लव जिहाद या हिंदुओं के खिलाफ ऐसा कोई अभियान चला रहे हैं? फिर भी यह बहस आठ साल से अनवरत जारी है।

जब कोरोना आया तो सारी दुनिया में इसे महामारी की तरह लिया गया, लेकिन भारत में इसे मुसलमानों के खिलाफ एक औजार की तरह इस्तेमाल किया गया। लॉकडाउन के पहले ही दिल्ली में आयोजित हुए एक जलसे का बहाना लेकर कहा गया कि मुसलमान कोरोना फैला रहे हैं और मीडिया ने इस जहरबुझी अफवाह को आगे बढ़ाया।

आरएसएस और भाजपा का सियासी हित इसी में कि यह समाज आपस में बंटा रहे। वे मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं को भड़काकर उन्हें एकजुट करने की कोशिश करने का राष्ट्रीय अभियान चला रहे हैं।

इसका नतीजा यह है कि आज हर आपराधिक घटना, जिसमें अगर आरोपी मुसलमान हो तो उसे 100 करोड़ हिंदुओं पर आए खतरे की तरह पेश किया जाता है।

मीडिया कभी यह सवाल नहीं पूछता कि हत्या, चोरी, डकैती, महिलाओं के खिलाफ हिंसा, गुंडागर्दी या किसी भी किस्म के अपराध रोकने में कानून क्यों असहाय है?

मीडिया कभी नहीं पूछता कि जब इन्हीं किस्म के अपराधों में हर वर्ग, हर समुदाय के लोग मुब्तला हैं, तो सिर्फ मुसलमानों को दोषी ठहराने से हमारी कानून व्यवस्था कैसे सही हो जाएगी? किसी भी जघन्य घटना में पुलिस की जगह मुसलमान को दोषी ठहरा दिया जाए तो पुलिस को भी जवाब नहीं देना पड़ता, न हमारी शासन व्यवस्था के माथे पर तनाव आता है।

मुसलमानों की ओर से आ रहे काल्पनिक खतरों के बहाने बोगस कानून व्यवस्था की तो चांदी है ही, लव मैरिज, अंतर्जातीय विवाह, प्रेम विवाह और महिलाओं की आजादी पर भी हमले किए जा रहे हैं। हिंदू महिलाओं से कहा जा रहा है कि अगर वे पारंपरिक विवाह के अलावा अन्य कोई रास्ता चुनेंगी तो उनका हश्र श्रद्धा जैसा ही होगा या होना चाहिए।

अपराधों के मद्देनजर महिलाओं को जागरूक करने के सवाल, पुरुषों की मानसिकता में सुधार के सवाल, समाज में महिलाओं की आजादख्याली को स्वीकारने के सवालों के दबाने के लिए कहा जा रहा है कि सारी समस्या की जड़ महिलाओं की वैयक्तिक आजादी और मुसलमान हैं।

अगर आप सोशल मीडिया पर मौजूद हैं तो आपको भी ऐसे अनुभव हुए होंगे। हर आपराधिक घटना की सांप्रदायिक व्याख्या और अनर्गल निष्कर्ष फैलाए जाते हैं ताकि समाज में बंटवारा पैदा किया जा सके। इसके नतीजे क्या होते हैं, क्या हम नहीं जानते? अगर एक समुदाय को दूसरे का दुश्मन का बना दिया जाए तो उसके परिणाम कितने घातक हो सकते हैं, यह हिंदुस्तान से ज्यादा कौन जानता है? इस देश ने अतीत में ऐसे दिनों का सामना किया है जब आजादी आंदोलन के दौरान ब्रिटिश शासन और सांप्रदायिक ताकतों ने मिलकर समाज का बंटवारा किया और हिंदुस्तान के दो टुकड़े हो गए।

आज दिवाली, ईद, बकरीद, होली या अन्य सभी बड़े त्योहारों के दिन इस तरह से हैशटैग ट्रेंड कराए जाते हैं जो समाज में विभाजन पैदा वाले होते हैं। जो चाहते हैं कि यह समाज बंटे, वे इसे बांटने का हर मौका भुनाते हैं और उन्हें कोई रोकने वाला नहीं है। नफरत फैलाने वाले लोगों को बाकायदा अलग अलग तरीकों से सम्मानित किया जा रहा है, लेकिन नफरत फैलाने का विरोध करने वालों को दंडित किया जाता है। ऐसा लगता है कि जिस देश की पहचान दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र की है, वह फिरकापरस्तों का ख्वाबगाह बन गया है। इसे रोकने का अब एक ही तरीका नजर आता है कि जागरूक समाज युद्ध स्तर पर सामने आए, लोगों को समझाए, विरोध करे और इस बंटवारे को रोके। जितनी देर होगी, नतीजे उतने भयानक हो सकते हैं।

(कई मीडिया संस्थानों में काम कर चुके कृष्णकांत फ़िलहाल फ्रीलांसिंग कर रहे हैं।)

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