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सांप्रदायिक घटनाओं में हालिया उछाल के पीछे कौन?

क्या भाजपा शासित पांच राज्यों में तीन महीने की छोटी अवधि के भीतर असंबद्ध मुद्दों पर अचानक सांप्रदायिक उछाल महज एक संयोग है या उनके पीछे कोई साजिश थी?
Communalism
प्रतीकात्मक तस्वीर

सार्वजनिक महकमे में सांप्रदायिक हिंसा और अन्य सांप्रदायिक घटनाएं शायद ही कभी स्वतःस्फूर्त होती हैं। उन्हें एक स्पष्ट राजनीतिक डिजाइन के साथ उकसाया और मंचित किया जाता है। जहां भाजपा जैसी दक्षिणपंथी पार्टी सत्ता में होती है, वहां उन्हें अक्सर राज्य द्वारा आधिकारिक रूप से प्रायोजित किया जाता है।

वे केवल कुछ अतिवादी सांप्रदायिक फ्रिंज संगठनों के कृत्य नहीं हैं। वे भाजपा जैसी मुख्यधारा की सत्ताधारी पार्टी की प्रेरणा और मार्गदर्शन में संगठित हैं। ये धुर दक्षिणपंथी आरएसएस-भाजपा नेतृत्व के समग्र नियंत्रण में और उनके समग्र राजनीतिक गेमप्लान के तहत काम करते हैं।

साम्प्रदायिक आक्रमण केवल साम्प्रदायिक विचारधारा वाले राजनेताओं की करतूत नहीं होती। एक अत्यधिक सांप्रदायिक नौकरशाही और पुलिस तंत्र राजनीतिक नेतृत्व के सांप्रदायिक एजेंडे को उत्साह के साथ अंजाम देने के लिए सर्वथा तैयार रहता है। नौकरशाही में सवर्णों का प्रभुत्व भी इसमें पूरक भूमिका निभाता है।

हाल ही में, मुख्य रूप से भाजपा शासित राज्यों में सांप्रदायिक घटनाओं में तेजी को लेकर कई विशेषज्ञों द्वारा इस तरह के निष्कर्ष निकाले गए हैं।

सबसे पहले, 20 और 23 सितंबर 2021 को, असम के दरांग जिले के सिपाझर चार क्षेत्र में कुछ अनिर्दिष्ट परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण के नाम पर गरीब बंगाली मुस्लिम प्रवासियों को उनके घरों और जमीनों से बेदखल किया गया था, जहां वे वर्षों से रह रहे हैं और अपनी जमीन पर खेती कर रहे हैं।

फिर, पूरे अक्टूबर भर, त्रिपुरा में सशस्त्र सांप्रदायिक गिरोहों द्वारा मुसलमानों पर बार-बार हिंसक हमले किए गए, जहां पुलिस पिकेट आंखों के सामने हो रहे भयानक हमलों से आंखें मूंदे हुए थे। भगवा आततायिओं ने यहां तक कि बेशर्मी से दावा किया कि ये हमले बांग्लादेश में इस्लामिक गुट द्वारा हिंदुओं पर किए गए हमलों के प्रतिशोध-स्वरूप थे।

फिर, 20 दिनों से अधिक समय के बाद, भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और अन्य भगवा संगठनों ने सुदूर त्रिपुरा में हिंसक सांप्रदायिक घटनाओं पर मुस्लिम युवाओं द्वारा कथित आपत्तिजनक सोशल मीडिया पोस्टिंग के विरोध में महाराष्ट्र के अमरावती में बंद का आह्वान किया। बंद के दौरान हिंदू सांप्रदायिक संगठनों ने अमरावती के राजमहल चौक से रैली निकाली। सांप्रदायिक भीड़ ने उग्र होकर अमरावती के इतवारा बाजार और नमूना इलाके में अल्पसंख्यक समुदाय की दुकानों और घरों पर हमला किया।

फिर, नवंबर के पहले सप्ताह में, संयुक्त हिंदू संघर्ष समिति के तहत हिंदू सांप्रदायिक संगठनों ने एक सप्ताह लंबे अभियान के बाद गुरुग्राम में सांप्रदायिक तापमान को एक उच्च पिच तक बढ़ा दिया कि मुसलमानों को सार्वजनिक स्थानों पर शुक्रवार की नमाज नहीं पढ़नी चाहिए। हिंदू चरमपंथी संगठनों ने यहां तक धमकी दी कि वे स्वयं सीधे हस्तक्षेप करेंगे और मुसलमानों की जुमे की नमाज़ को बाधित करेंगे। शहर प्रशासन ने सांप्रदायिक प्रचारकों को तुरंत तुष्ट कर दिया और मुसलमानों को 8 सार्वजनिक मैदानों में नमाज़ अदा करने पर प्रतिबंध लगा दिया, जहाँ वे सदियों से नमाज़ अदा करते आ रहे थे। लेकिन सकारात्मक पहलू यह रहा कि अद्भुत अंतर-अल्पसंख्यक एकजुटता का प्रदर्शन देखने को मिला जब सिखों ने मुसलमानों से पेशकश की कि वे  गुरुद्वारों में प्रार्थना कर सकते हैं, और गुरुग्राम में उन्होंने सभी छह गुरुद्वारों को नमाज़ अदा करने के लिए खोल दिया।

मोदी-शाह के गृह राज्य गुजरात में राज्य मशीनरी द्वारा नवंबर दूसरे सप्ताह में एक समान सांप्रदायिक हमले में, वड़ोदरा नगर निगम ने फेरीवालों द्वारा मांसाहारी स्ट्रीट फूड की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया, ये ज्यादातर मुस्लिम थे। वड़ोदरा और राजकोट में उनके ठेले और स्टॉल जबरन तोड़ दिए गए।

कर्नाटक में भाजपा सरकार ने जल्दबाजी में फरवरी 2021 में कर्नाटक वध रोकथाम और मवेशी संरक्षण अधिनियम, 2020 पारित किया और इस अधिनियम के पारित होने के नौ महीनों में मुस्लिम और दलित पशु व्यापारियों और कसाइयों के खिलाफ एक विचहंट चलाया गया।  

इसके सीक्वेल के तौर पर मुख्यमंत्री ने अब हिंदू मठ नेताओं और मुथालिक जैसी सांप्रदायिक हस्तियों के साथ बैठक कर धर्मांतरण विरोधी कानून लाने का वादा किया है। ऐसी तनावपूर्ण स्थिति में, हिंदुत्व संगठनों ने कोलार के कुछ मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों से गुजरते हुए हिंदू धर्मस्थल दत्ता पीठ भक्तों को ले जा रही एक बस पर कथित पथराव के विरोध में 18 नवंबर 2021 को कोलार शहर में बंद का आयोजन किया। अगर यह सच भी था तो इतनी छोटी सी घटना को बीजेपी और आरएसएस के अन्य संगठनों ने तूल क्यों दिया?

कोलार में एक सम्मनित सामाजिक व्यक्तित्व, वीएसएस शास्त्री ने न्यूज़क्लिक को बताया कि स्थानीय रूप से उंगलियां एक भाजपा नेता पर पर उठ रही हैं, जिसने कोलार के माध्यम से दत्त पीठ यात्रा को कथित रूप से फाइनैंस किया था और जिसने बंद के आयोजन में भी सक्रिय भाग लिया, क्योंकि वह विधायक पद का आकांक्षी है। वह एक बार का मालिक और अमीर आदमी भी है। इस प्रकार व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं भी सांप्रदायिक राजनीति को गति प्रदान करती हैं।

हाल में बंगलुरु के एक पादरी से पता चला कि स्थानीय प्रशासन ने गिरजाघरों को नोटिस दिया है कि सारे सार्वजनिक कार्यक्रम हॉल में किये जाने चाहिये और उनकी आवाज़ा बाहर नहीं सुनाई देनी चाहिये।

क्या भाजपा शासित पांच राज्यों में तीन महीने की छोटी अवधि के भीतर असंबद्ध मुद्दों पर अचानक साम्प्रदायिक उछाल महज एक संयोग है या उनके पीछे कोई साजिश थी? इस प्रश्न पर कुछ स्पष्टता प्राप्त करने के लिए, न्यूज़क्लिक की ओर से हमने सांप्रदायिकता के प्रसिद्ध विश्लेषक राम पुनियानी से संपर्क किया। उन्होंने कहा, “संघ परिवार नहीं चाहता कि भाजपा शासित राज्यों में बड़े पैमाने पर हिंसा हो। लेकिन वे कम तीव्रता वाले सांप्रदायिक संघर्षों को भड़काकर और छोटी-छोटी घटनाओं का भी बड़े पैमाने पर राजनीतिकरण करके सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बनाए रखना चाहते हैं। वे वॉट्सऐप ग्रुपों व अन्य माध्यमों से झूठे प्रचार में भी लगे हुए हैं कि मुसलमान सुरक्षा के लिए खतरा हैं, और उनकी आबादी जल्द ही हिंदुओं से आगे निकल जाएगी, या यह कि हिंदुओं को मुस्लिम व्यापारियों से कुछ भी नहीं खरीदना चाहिये क्योंकि मुस्लिम व्यापारी उन सामानों में थूक रहे हैं जो हिंदू खरीदते हैं! ये सभी केवल ‘लो-की’ ध्रुवीकरण को बनाए रखने के लिए है।"

राज्य प्रायोजित सांप्रदायिकता

चाहे वह गुड़गांव या गुजरात हो, कर्नाटक हो या असम, अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमले न केवल प्रकृति में सांप्रदायिक हैं, बल्कि नागरिकों के खिलाफ राज्य की आपराधिकता के खुले उदाहरण हैं। कोई भी कानून राज्य के अधिकारियों को ठेले और फेरीवालों की आजीविका के स्रोत को नष्ट करने का अधिकार नहीं देता है, और यह निश्चित रूप से किसी भी प्रतिबंध को लागू करने का तरीका नहीं था। और कोई कानून नहीं कहता है कि पार्क में नमाज़ अदा करने वालों के लिए शांतिपूर्ण ढंग से एकत्र होना सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ देगा। असम सरकार को अभी यह बताना बाकी है कि उसने केवल मुस्लिम प्रवासियों के इलाकों को ही क्यों निशाना बनाया और भूमि अधिग्रहण कानून का पालन क्यों नहीं किया; और पीड़ितों को यह नहीं बताया कि उनकी भूमि का अधिग्रहण क्यों किया जा रहा था व कानून द्वारा निर्धारित पुनर्वास तक नहीं किया। तथाकथित लोकतांत्रिक भारत में, भाजपा के अधीन राज्य सरकारें कानून-विहीन संस्थाएँ बनती जा रही हैं।

भाजपा सरकारों की छवि को सुधारने के लिए ऊपर से भगवा लामबंदी

ये सभी असमान सांप्रदायिक घटनाएं भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के किसी अखिल भारतीय मास्टर प्लान का परिणाम नहीं भी हो सकती हैं। लेकिन वे स्वतःस्फूर्त स्थानीय घटनाएं भी नहीं हैं। विभिन्न राज्यों की जमीनी रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि स्थानीय आरएसएस इकाइयाँ अचानक सक्रिय और यहाँ तक कि आक्रामक हो गई हैं, विशेषकर भाजपा शासित राज्यों में, खासकर मोहन भागवत के आक्रामक विजयादशमी संबोधन के बाद। यह कथित तौर पर आरएसएस के आंकलन की पुष्टि करता है कि लोकप्रिय मूड धीरे-धीरे भाजपा राज्य सरकारों के खिलाफ जा रहा है। उन्होंने उत्तराखंड, गुजरात और कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों में भाजपा में नेतृत्व परिवर्तन को निर्देशित किया है।

भाजपा के साथ अपनी वार्षिक समन्वय बैठक में, आरएसएस नेताओं ने कथित तौर पर भाजपा नेतृत्व को कृषि बिलों को वापस लेने की "सलाह" दी थी, क्योंकि आरएसएस को भाजपा से विशाल कृषि आधार के अलगाव के बारे में आशंका थी और भी अधिक यूपी में, जहां विधानसभा में जीत 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए सही राजनीतिक गति स्थापित करने हेतु उनके लिए महत्वपूर्ण हैं। साथ ही, आरएसएस भी नए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के माध्यम से भाजपा के चुनावी आधार को मजबूत करने की उम्मीद कर रहा है। इसलिए वे छोटी-छोटी सांप्रदायिक घटनाओं को भी बड़े राजनीतिक मुद्दों में बदल रहे हैं। भगवा संगठनों की ओर से सांप्रदायिक लामबंदी के लिए स्पष्ट रूप से ऊपर से यह सोची समझी पहल की गई है।

महाराष्ट्र के अमरावती का ही मामला लें। क्या यह संभव है कि त्रिपुरा में राज्य-प्रायोजित और राज्य-समर्थित सांप्रदायिक हिंसा की प्राकृतिक प्रतिध्वनि दूर अमरावती में त्रिपुरा सांप्रदायिक हिंसा के लगभग एक महीने बाद होगी? मुस्लिम युवाओं को खलनायक बना दिया गया और त्रिपुरा हिंसा के बारे में उनके सोशल मीडिया पोस्टिंग को मुख्य उकसावे के रूप में उद्धृत किया गया। यहां तक कि मुस्लिम युवकों को हिंदुओं पर शारीरिक हमला करने के लिए भी दोषी ठहराया गया, हालांकि वे किसी विशेष मामले का हवाला नहीं दे सके और कथित हमलों पर कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई थी। केसरिया ब्रिगेड उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाले गठबंधन के लिए मुश्किलें खड़ी करना चाहती थी, लेकिन अमरावती ने एक बार फिर साबित कर दिया कि अगर कोई राज्य सरकार ठान ले तो वह एक दो दिनों में सांप्रदायिक दंगों को रोक सकती है।

कई भटके हुए उदारवादियों, और यहां तक कि मुस्लिम नेताओं को भी यह उम्मीद है कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा को दक्षिणपंथ से मुख्यधारा में लाया जा सकता है और वे मोदी को श्रेय देते हैं कि वह व्यक्तिगत रूप से सांप्रदायिक आक्रामकता में शामिल नहीं हैं। लेकिन वे यह देखने में विफल हैं कि मोदी ने अपनी दो-ट्रैक रणनीति में, यूपी में योगी और हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर, असम में हिमंत बिस्व सर्मा और कर्नाटक में बोम्मई को सफलतापूर्वक सांप्रदायिक राजनीति आउटसोर्स की है। व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी एक भूमिका निभाती हैं। संयोग से, योगी और हिमंत बिस्व सर्मा, दोनों मूल रूप से भाजपा के नेता नहीं थे। योगी का अपना साम्प्रदायिक संगठन था और असम में पार्टी के जोशीले सर्मा पूर्व कांग्रेसी थे। दोनों आरएसएस के आकाओं के प्रति अपनी वफादारी प्रदर्शित करना चाहते हैं। इसी तरह, खट्टर और बोम्मई दोनों का व्यक्तिगत चुनावी आधार बहुत ही संकुचित है। इनमें से कोई भी अपने राज्यों में कोई उत्कृष्ट विकास प्रदर्शित नहीं कर सका है। इन नेताओं के खिलाफ भाजपा के भीतर असंतोष स्थानिक है। सांप्रदायिक राजनीति उनका आखिरी और यहां तक कि पहला चारा भी है, जिसका अपने राजनीतिक कुटुम्ब को बढ़ाने के लिए वे इस्तेमाल करते हैं।

योगी ने सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान सांप्रदायिक अधिनायकवाद का मॉडल स्थापित किया। यह सभी भाजपा शासित राज्यों के लिए आदर्श बन गया। मध्य प्रदेश में खट्टर और शिवराज सिंह चौहान ने विरोध कर रहे किसानों के खिलाफ इसी तरह का आतंक फैलाया। त्रिपुरा सरकार ने योगी से सबक लेते हुए सांप्रदायिक दंगों को कवर करने वाले पत्रकारों के खिलाफ यूएपीए के मामले दर्ज किए। नागरिक स्वतंत्रता संगठनों द्वारा जांच-पड़ताल को राजद्रोह का कार्य करार दिया गया था। 

वीएसएस शास्त्री का कहना है कि "इस तरह के सांप्रदायिक खेल न केवल अल्पकालिक सामरिक युद्धाभ्यास हैं, बल्कि आरएसएस ने एक दीर्घकालिक मिशन शुरू किया है। उनकी विचारधारा अब युवाओं को प्रेरित नहीं करती। जो लोग आकर्षित होते हैं वे महत्वाकांक्षी कैरियर और सत्ता चाहने वाले होते हैं, जो सत्ता की लूट से प्रेरित होते हैं। युवा नेताओं की एक नई खेप को बढ़ावा देने के लिए, संघ परिवार स्थानीय सांप्रदायिक संघर्षों को इस उम्मीद में शुरू कर रहा है कि इन सांप्रदायिक झड़पों से कुछ युवा नेता निकलेंगे। यह संगठन को मजबूत करने और नए युवा नेताओं को बढ़ावा देने का एक बहुत ही विचित्र तरीका है। पर यह नकारात्मक परिणाम देने वाला साबित होगा।"

उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक समुदाय के एक नेता ने न्यूज़क्लिक को बताया, "अल्पावधि में, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण के उद्देश्य से और अधिक सांप्रदायिक हिंसा की आशंका भी है।"

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(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक है। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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