अपनी ‘एलीट इमेज’ से बाहर निकलने की कोशिश कर रही है कांग्रेस!
परिवारवाद व उदार हिन्दुत्व जैसे कई आरोपों से घिरी कांग्रेस अब अपनी पहले वाली छवि से बाहर निकलने की कोशिश करती नजर आ रही है। पार्टी नेता राहुल गांधी न सिर्फ ‘क्रोनी कैपटलिज्म’ और सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ खुल कर बोल रहे हैं, बल्कि संगठन में भी अपने जमीनी स्तर के कर्मठ कार्यकर्ताओं के साथ-साथ बाहर से आए उन युवाओं को भी अहम जिम्मेदारी दे रहे हैं जो देश और जनता के बुनियादी सवालों पर संघर्षरत रहे हैं। चंद दिनों पहले ही पार्टी ने पंजाब में दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना कर देश में एक बड़ा संदेश देने का प्रयास किया है। अब जेएनयू के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार और गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवानी जैसे नेता भी कांग्रेस में शामिल हो गए हैं।
राहुल और उनकी बहन महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की इस पहल से पार्टी के कई पुराने दिग्गजों में बेचैनी काफी बढ़ गई है। अपने को खांटी कांग्रेसी कहने वाले पूर्व मुख्य़मंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह बगावत का संकेत दे रहे हैं तो यूपी के मुख्यमंत्री रहे कमलापति त्रिपाठी के पड़पोते व पूर्व विधायक ललितेश पति त्रिपाठी ने कांग्रेस छोड़ दी है।
कहा जा रहा है कि बड़े व रसूख़दार घरानों के ‘एलीट इमेज’ वाले कुछ और नेता अपने लिए नए ठिकाने की तलाश कर रहे हैं। जिन लोगों की दूसरे दलों के साथ डील पक्की हो जा रही है, वे पाला बदल ले रहे हैं। वैसे इस बीच पार्टी के भीतर कई लोग यह सवाल भी उठा रहे हैं कि पुराने व पुश्तैनी दिग्गज नेताओं की जगह निचली कतार के कार्यकर्ता व बाहर से आए हुए वामपंथी पृष्ठभूमि वाले लोग कांग्रेस को कितना वोट दिलवा पाएगें? दूसरे चुनावों से पहले इस तरह का प्रयोग क्या ठीक है? लेकिन इस तरह के तमाम सवालों और आशंकाओं के बीच कांग्रेस में बदलाव की प्रक्रिया जोरशोर से जारी है।
ध्यान रहे कि राहुल ने वर्ष 2014 के आम चुनावों से ठीक पहले पत्रकारों से एक मुलाकात के दौरान कहा था कि आने वाले दिनों में कांग्रेस बिल्कुल बदली हुई नजर आएगी, लेकिन 5 साल तक वे इस कार्य को पूरा नहीं कर सके। उस दौरान ‘टीम राहुल’ खूब सुर्खियों में रही, जिसमें ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा, सचिन पायलट, दीपेंद्र हुड्डा व भंवर जितेंद्र सिंह आदि जैसे नेता शामिल थे। इनमें से सिंधिया और जितिन प्रसाद अब भाजपा में शामिल हो कर मोदी व योगी सरकार में मंत्री बन चुके हैं। फिर वर्ष 2019 के बेहद खराब चुनावी नतीजों के बाद जब पार्टी में बड़ी ‘सर्जरी’ करने की मांग उठी तो कुछ पुराने दिग्गजों ने यह कर मामला शांत कर दिया कि, जब कारवां लुटा हो तो ऐसी सूरत में इस तरह का कदम नहीं उठाना चाहिए, हालांकि राहुल ने हार की जिम्मेदारी लेते हुए पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया, जबकि अन्य पदाधिकारी ओहदा छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए। राहुल इस बात को लेकर भी नाराज थे कि जब वे कोई मुद्दा उठाते हैं तो पार्टी के बड़े नेताओं का साथ उन्हें नहीं मिलता है। रफ़ाल विमान घोटाला इसका बड़ा उदाहरण रहा है। हाल के दिनों में जब कांग्रेस के 23 नेताओं के ग्रुप (जी 23) की गोदी मीडिया में जोरशोर से चर्चा चल रही थी और कुछ लोग शीर्ष नेतृत्व को नसीहत दे रहे थे, तभी सोशल मीडिया में राहुल का एक वीडियो आया, जिसमें वे यह कहते सुनाई पड़े- ‘बाहर बहुत सारे लोग जो लड़ रहे हैं, उन्हें अंदर लाओ और हमारे यहां जो लोग डर रहे हैं, उन्हें बाहर निकालो... आरएसएस के हो, जाओ भागो, मजे लो, नहीं चाहिए, जरूरत नहीं है तुम्हारी। हमें निडर लोग चाहिए...’ । इसे लेकर पार्टी में काफी हड़कंप मच गया था।
इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान में राहुल जो कुछ बोल रहे हैं, उसे अपनी पार्टी में लागू करने की भी कोशिश कर रहे हैं। यूपी इसका एक बड़ा उदाहरण है। प्रदेश के वर्तमान अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू का संबंध पिछड़ा वर्ग से है, जो विधायक बनने से पहले एक मजदूर थे।
उन्होंने नोएडा और गुड़गांव में काफी दिनों तक काम किया था। इसी तरह प्रदेश में नए संगठन के प्रभारी महासचिव दिनेश सिंह पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आइसा के नेता थे। बाद में बहुत दिनों तक भाकपा (माले) के लिए काम किया, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से वे कांग्रेस के साथ सक्रिय रूप से जुड़ गए थे। मीडिया विभाग के उप प्रमुख डॉ. पंकज श्रीवास्तव भी आइसा और जन संस्कृति मंच (जसम) से जुड़े हुए थे। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रसंघ अध्यक्ष का चुनाव भी लड़ चुके हैं। टीवी चैनलों में भी उन्होंने काफी दिनों तक काम किया है। प्रदेश के अल्पसंख्यक विभाग के प्रमुख शाहनवाज आलम का संबंध भी वामपंथी राजनीति से रहा है। इन्होंने लंबे समय तक रिहाई मंच का नेतृत्व किया और बेगुनाहों की गिरफ्तारी के विरोध में आंदोलन किए। फिर 3-4 साल पहले वे कांग्रेस के साथ जुड़ गए। संगठन सचिव अनिल यादव भी आइसा और उसके बाद रिहाई मंच से जुड़े हुए थे। वे पिछले 3 वर्षो से कांग्रेस में सक्रिय हैं। इसी तरह महासचिव सरिता पटेल बनारस समेत पूर्वांचल के अन्य जिलों छात्रों, युवाओं व आदिवासियों से जुड़े मुद्दों को लेकर पिछले कई साल से संघर्षरत हैं। वे महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में छात्र यूनियन की पदाधिकारी भी रह चुकी हैं। इनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत भी भाकपा माले से ही हुई थी।
प्रदेश उपाध्यक्ष विश्व विजय सिंह की बात की जाए तो इन्होंने गोरखपुर में आमी नदी को बचाने के लिए जबरदस्त आंदोलन किया था। जब वे अपना आंदोलन चला रहे थे तभी राहुल गांधी के संपर्क में आए और फिर कांग्रेस के हो गए। राधेश्याम यादव को पार्टी के ओबीसी विभाग में सचिव की जिम्मेदारी मिली है। वे अपने छात्र जीवन में ही भाकपा माले से जुड़ गए थे। उन्होंने इलाहाबाद (शंकरगढ़) में आदिवासियों के बीच कई वर्षों तक काम किया है। इसी तरह रामराज गोंड एक सामान्य आदिवासी य़ुवा हैं, जिन्हें सोनभद्र जिले की जिम्मेदारी सौंपी गई है। इसके पहले वे प्रदेश में पदाधिकारी थे। इतना ही नहीं हाल ही में यूपी में पंचायत चुनाव के दौरान लखीमपुर के पसगवां ब्लाक में गुंडों से मुकाबला करने वाली रितु सिंह भी अब सपा छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हो चुकी हैं। रितु सिंह के साथ हुए दुर्व्यवहार की खबर सुनने के बाद प्रियंका गांधी ने उनके घर गई थीं। कांग्रेस ने प्रदेश ही नहीं, जिलों में भी जिन नए लोगों को जिम्मेदारी दी है, उनमें अधिकांश ऐसे हैं, जिनका संबंध बिल्कुल सामान्य घरों से है। वे न तो अमीर बाप की औलाद हैं और न राजनीति उन्हें विरासत में मिली है। पार्टी विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों को उनकी वैचारिक ईमानदारी और जुझारूपन को देखते हुए अपने से जोड़ रही है।
उल्लेखनीय है कि राहुल ने कांग्रेस का महासचिव बनने के बाद वर्ष 2007 में यूथ कांग्रेस के लिए ‘टैलेंट हंट’ कार्यक्रम चलाया था, जिसमें बहुत सारे पढ़े-लिखे युवा संगठन से जुड़े थे, लेकिन बाद में वे सब धीरे-धीरे दूर हो गए। अब लंबे अर्से बाद उन्होंने फिर से इस तरह का अभियान शुरू किया है, लेकिन इस बार विचारधारा को खास अहमियत दी जा रही है। संगठन में किसी व्यक्ति को कोई जिम्मेदारी देने से पहले मुख्य रूप से यह देखा जा रहा है कि उसके चरित्र पर किसी तरह का दाग न हो और लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता व सामाजिक न्याय में उसका अटूट विश्वास हो। कांग्रेस संगठन में ही नहीं सरकार में भी सामाजिक न्याय पर पूरा ध्यान दे रही है। वर्तमान में सिर्फ 3 राज्यों में उसकी सरकारें बची हुई है। इनमें पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी दलित समाज से हैं, जबकि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का संबंध ओबीसी से है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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