बेसहारा गांवों में बहुत बड़ा क़हर बनकर टूटने वाला है कोरोना
गांव मतलब रोजगार के साधन का अभाव और बहुत कम आमदनी। इतनी कम आमदनी कि जिंदगी गुजारने के लिए दूसरे के खेतों में काम करना, कर्जा लेकर जिंदगी की जरूरतों को पूरा करना और अगर कोई भी रास्ता न दिखे तो हार मान कर गांव छोड़कर शहर चले जाना।
गांव मतलब बुनियादी सुविधाओं की घनघोर कमी जैसे कि अस्पताल इतनी दूर कि अगर गर्भवती महिला है तो दूरी नापते नापते मरने की खतरनाक संभावना हर वक्त बनी रहती है। अगर अस्पताल की तरह कोई ढांचा खड़ा है तो वहां न तो बेड हागा, न डॉक्टर होगा, मेडिकल स्टाफ होगा, न दवा होगी, वह केवल सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज किए हुए अस्पताल के तौर पर खड़े होने का काम कर रहा होगा।
गांव मतलब पिछड़ापन। इतना पिछड़ापन कि सच के पहुंचते-पहुंचते अफवाह और अंधविश्वास की आग पूरे गांव को जलाकर निकल चुकी होती है।
यह तो हुई गांव की खामियों की बात। अब बात करते हैं गांव की खूबियों की। गांव मतलब शहरों के मुकाबले कम घनी आबादी, साफ हवा और पानी। जमीन से जुड़ाव इसलिए खूब शारीरिक श्रम।
गांव की खूबियों की वजह से कोरोना की पहली लहर में गांव में संक्रमण बहुत कम हुआ। दूसरी लहर के दौरान के बारे में बात की जाए तो अशोका यूनिवर्सिटी के बायोसाइंस डिपार्टमेंट के अध्यक्ष डॉक्टर शाहिद जामिल का मानना है कि गांव की आबादी का घनत्व बहुत कम है, इसलिए संक्रमण धीमी गति से हो रहा है। लेकिन यह समय भी अब निकल चुका है। अब गांव में भी संक्रमण फैल गया है।
कोरोना की पहली लहर में सरकार को भरोसा था कि उसने गांव में संक्रमण पहुंचने से पहले ही उसे रोक लिया है। पूरी दुनिया में इसकी डफली भी पीटी जा रही थी। लेकिन संक्रमण की दूसरी लहर में जिस तरह से मामलों में बहुत तेजी से बढ़ोतरी हुई उसने शहर और गांव की दूरी के फासले को पार करके गांव में भी दाखिला कर लिया।
इस महीने की शुरूआत का आंकड़ा था कि उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के 243 अति पिछड़े जिले में कोरोना ने अपना पैर पसार लिया था। इसकी वजह से इन इलाकों में तकरीबन 36 हजार लोगों की मौत हुई और मामले 40 लाख के पार चले गए। कोरोना की पहली लहर की तुलना में गांव में मामलों की संख्या में यह बढ़ोतरी 4 गुना अधिक है।
मई महीने में उत्तर प्रदेश के ग्रामीण जिलों में उत्तर प्रदेश के कुल कोरोना मामले का तकरीबन 78 फ़ीसदी संक्रमण था। द हिंदू अखबार के मुताबिक हाल फिलहाल के मामलों में तकरीबन 60 फ़ीसदी शामली ग्रामीण इलाके के हैं। लेकिन फिर भी ग्रामीण इलाकों में वैक्सीनेशन की पहली डोज लेने वालों की संख्या महज 12 से लेकर 15 फ़ीसदी के आसपास पहुंची है।
जानकारों का कहना है कि भले राष्ट्रीय स्तर पर यह लगे कि दूसरी लहर शिखर पर पहुंचकर ढल रही है लेकिन हकीकत यह भी है कि अब यह धीरे-धीरे गांव की तरफ बढ़ेगी। भारत कोई छोटा देश नहीं है कि यह ठीक ढंग से समझा जा सके की कोरोना की वास्तविक स्थिति क्या है? इसके ऊपर न सही ढंग से आंकड़े मिल रहे हैं, न सही ढंग से टेस्टिंग हो रही है, सरकार द्वारा जारी किए जा रहे आधिकारिक आंकड़ों और संक्रमण के हकीकत के आंकड़ों के बीच तकरीबन 3 से 7 गुने का अंतर है। इन सभी प्रवृत्तियों का इशारा यही है कि गांव की तरफ कोरोना की महामारी भयंकर रूप लेने जा रही है।
अब यहां पर गांव की खामियां जोड़ लीजिए तो आप समझ लेंगे कि क्यों गांव के हालात शहर से भी बदतर होने वाले हैं। शहर में टूटा फूटा और जर्जर ही सही बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं तो है। लेकिन गांव में क्या है? यही कि कोरोना जब खतरनाक अवस्था में पहुंचे और बहुत सारे लोग एक साथ बीमार पड़े तो कईयों को रोते बिलखते, दर्द सहते इस दुनिया से अलविदा होना पड़े।
साल 2018 के एनएसएसएसओ ( NSSO) के आंकड़े कहते हैं कि भारत में हर 15 दिन पर तकरीबन 10 करोड़ लोग बीमार पड़ते हैं। 1000 लोगों में से महज 29 लोग अस्पताल में भर्ती होते हैं। गांव में 35 फ़ीसदी लोग संक्रमण और उनमें भी 11 फ़ीसदी लोग सांस से जुड़ी बीमारियों का शिकार होते हैं।
वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के मुताबिक भारत में एक लाख की आबादी पर तकरीबन 87 फिजीशियन है। जबकि पाकिस्तान में इतनी ही आबादी पर 98, श्रीलंका में 100, जापान में 200 से अधिक हैं। जबकि पैमाना यह है कि हर एक हजार की आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए। हर एक लाख की आबादी पर भारत में महज 53 बेड हैं। तो ग्रामीण भारत की हालात के बारे में सोच लीजिए। जहां कई को चलने के बाद एक अस्पताल मिलता है।।
लोग सरकारी अस्पताल के मुकाबले निजी अस्पतालों का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। गांव और शहर दोनों जगह निजी अस्पताल के सहारे स्वास्थ्य सुविधाओं लेने वालों की संख्या 60 फीसद से अधिक है।
गांव में सरकारी अस्पताल के जरिए औसतन इलाज का खर्च ₹5000 औसतन है। तो ऐसे में समझिए कि महामारी के इस दौर में कालाबाजारी की अंतहीन कथा चल रही है।₹5 की टेबलेट ₹50 में बिक रही है। अस्पताल में भर्ती होने के तीन-चार दिन का खर्चा 3 से 4 लाख रुपए आ रहा है तब गांव में कोरोना कितना बड़ा कहर बनकर टूटेगा।
अब आप कहेंगे कि आयुष्मान भारत तो है ही उसका बहुत बड़ा सहारा मिल सकता है। तो नेशनल हेल्थ अथॉरिटी आयुष्मान की रेगुलेटर का डेटा एनालिटिक्स बताता है कि कोरोना से पहले तक करीब 21 हजार से अधिक अस्पताल तकरीबन 56 फीसद सरकारी, 44 फीसद निजी अस्पताल आयुष्मान भारत की योजना से से जुड़े हुए थे। इनमें करीब 51 फीसद अस्पताल कार्ड धारकों को सेवा दे रहे थे. लॉकडाउन के बाद अस्पतालों की सक्रियता 50 फीसद तक घट गई। प्राइवेट और सरकारी अस्पतालों में बेडों की संख्या कम हो गई। अब चूंकि आयुष्मान भारत योजना ही सामाजिक और आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों के लिए बनाई गई है इसलिए सबसे बड़ा इसका असर ग्रामीण इलाकों पर पड़ने वाला है।
लोकडाउन के बाद आयुष्मान भारत की सेवाओं में तकरीबन 60 फ़ीसदी से अधिक की कमी देखी गई है। बिहार उत्तर प्रदेश महाराष्ट्र आंध्र प्रदेश जैसे तकरीबन 13 राज्यों में यह पूरी तरह चरमरा गई है।
इन सभी आंकड़ों के साथ गांव की खामियां जोड़ दीजिए। लोगों की कम आमदनी, अभूतपूर्व बेरोजगारी, कर्जे में फंसे हुए लोग सब जोड़ दीजिए तो यही पता चलेगा कि आने वाला समय गांव के लिहाज से बहुत खतरनाक होने वाला है। बात अगर बेचारे झोलाछाप डॉक्टरों की होती तब भी वह कुछ काम कर सकते थे। लेकिन यह पूरा मामला कोरोना की वजह से पूरी तरह से टेक्निकल है। स्वास्थ्य की बुनियादी संरचनाओं के मजबूती की मांग करता है। अगर यह नहीं तो समझिए कई लोग ढहने के कगार तक पहुंच जाएंगे।महामारियों का इतिहास बताता है कि वह शहरों से शुरू होकर गांव को तबाह कर देती हैं।
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