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कोरोना संकट: आर्थिक गतिविधियों को दोबारा शुरू करने का रोडमैप क्या है?

यह कितना विचित्र है कि जब आर्थिक गतिविधियां फिर से शुरू करने की तैयारी की जा रही है तब विभिन्न राज्यों से करोड़ों की संख्या में मज़दूर अपने गांव लौट रहे हैं। ऐसे में सवाल है कि यदि हमारे औद्योगिक शहर मज़दूरों से खाली हो गए तो फिर आर्थिक-व्यापारिक गतिविधियों का थमा पहिया नए सिरे से गति कैसे पकड़ेगा?
कोरोना संकट
Image Courtesy: NDTV

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि हमारी अर्थव्यवस्था संकट में है और हम लंबे समय तक लॉकडाउन को बरकरार नहीं रख पाएंगे। राजस्व पिछले साल के अप्रैल माह में 3,500 करोड़ रुपये से गिरकर इस वर्ष 300 करोड़ रुपये हो गया है। उन्होंने पूछा कि ऐसी स्थिति में सरकार कैसे काम कर पाएगी?

गौरतलब है कि यह सिर्फ दिल्ली और अरविंद केजरीवाल का ही हाल नहीं है। कोरोना संकट के चलते लंबे समय से लागू लॉकडाउन के चलते ज्यादातर राज्यों और केंद्र सरकार की हालत ऐसी ही हो गई है। शायद इसी को ध्यान में रखकर केंद्र सरकार ने तीसरे लॉकडाउन में आर्थिक गतिविधियों समेत तमाम छूट देने की घोषणा की है।

आपको बता दें कि देश को लॉकडाउन से बाहर निकालने की मांग तेज हो रही है। इस मांग के पीछे यह अंदेशा है कि कहीं लॉकडाउन जीविका के साधनों को इतना अधिक पंगु न कर दे कि गरीब तबके के सामने भूखों मरने की नौबत आ जाए। लोग वायरस से बच भी गए तो बेरोजगारी, भूख, हताशा, अवसाद से मर जाएं।

इस अंदेशे को दूर करने का उपाय यही है कि कारोबारी गतिविधियों को प्राथमिकता के आधार पर आगे बढ़ाने के साथ ही अन्य सामान्य गतिविधियों को भी शुरू करने की अनुमति दी जाए।

नीति-नियंताओं को इसका आभास होना चाहिए कि लॉकडाउन को खत्म करने की घोषणा मात्र से ही सब कुछ पहले जैसा नहीं होने वाला। उन्हें यह भी देखना होगा कि अर्थव्यवस्था का थमा हुआ पहिया तेजी से गति पकड़े।

लेकिन जैसा कि हमारा दुर्भाग्य है कि यह सरकार हर चीज अधूरी तैयारी के साथ करती है। आर्थिक गतिविधियों को दोबारा शुरू करने का काम भी इसी तरीके से हो रहा है। दरअसल नोटबंदी के समय से लेकर अब तक सरकार की आदत यही रही है कि पहले नोटिफिकेशन जारी करो फिर स्पष्टीकरण जारी करो। हालत यहां तक बुरी हो गई है कि जब तक स्पष्टीकरण न आ जाए तब तक इस सरकार की किसी बात पर यकीन ही नहीं होता है।

गौरतलब है कि बिना प्लानिंग के लागू लॉकडाउन के चलते करोड़ों की संख्या में मज़दूर देशभर के अलग अलग हिस्सों में फंस गए थे। ऐसे में यह कितना विचित्र है कि जब आर्थिक गतिविधियां फिर से शुरू करने की तैयारी की जा रही है तब विभिन्न राज्यों से करोड़ों की संख्या में मज़दूर अपने गांव लौट रहे हैं। उनके लिए ट्रेने और बसें चलाई जा रही हैं। ऐसे में सवाल है कि यदि हमारे औद्योगिक शहर मज़दूरों से खाली हो गए तो फिर आर्थिक-व्यापारिक गतिविधियों का थमा पहिया नए सिरे से गति कैसे पकड़ेगा?

यह अच्छा है कि हरियाणा, कर्नाटक और तेलंगाना की सरकारें गांव जाने को तैयार मज़दूरों से रुकने की अपील कर रही हैं, लेकिन केवल इतना ही पर्याप्त नहीं। उन्हें और साथ ही अन्य राज्यों को उन कारणों की तह तक जाना होगा जिसके चलते मज़दूर अपने गांव जाने के लिए बेचैन हो उठे। इस बेचैनी का बड़ा कारण यही है कि लॉकडाउन के दौरान उनके खाने-रहने की जो व्यवस्था की गई वह संतोषजनक नहीं थी। जब कोई काम न होने से अपने भविष्य को लेकर अनिश्चित मज़दूरों की उचित तरीके से देखभाल की जानी चाहिए थी तब ऐसा नहीं किया गया।

इसका परिणाम यह रहा कि बड़ी संख्या में मज़दूर अपनी जान की बाजी लगाकर घर की तरफ निकल पड़े। आपको बता दें कि लॉकडाउन के दौरान प्रवासी कामगारों को उनके घरों तक पहुंचाने के लिये सरकार द्वारा ट्रेनें चलाने की तैयारियों के बीच धर्मवीर और तबारत मंसूर की जान चली गई। इनमें से एक व्यक्ति की मौत दिल्ली से बिहार जाने के दौरान बेहोश होकर साइकिल से गिर जाने पर हो गई, जबकि दूसरे व्यक्ति की मौत महाराष्ट्र से उत्तर प्रदेश जाने के दौरान हुई।

लंबी यात्रा की थकान के चलते दोनों लोगों की मौत हुई। इन जैसे कई प्रवासी मज़दूर काम बंद हो जाने, अपने पास पैसे खत्म हो जाने, अपने सिर पर छत नहीं होने के चलते सैकड़ों और हजारों किलोमीटर दूर स्थित अपने-अपने घरों के लिये पैदल, साइकिल या रिक्शा-ठेला से निकल पड़े।

उल्लेखनीय है कि 25 मार्च से शुरू हुआ राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन अब 17 मई तक रहेगा। महानगरों और अन्य शहरों से प्रवासी कामगारों और दिहाड़ी मज़दूरों का पलायन आजादी के बाद से लोगों का संभवत: सबसे बड़ा पलायन है। कुछ लोग घर पहुंच गये, कुछ रास्ते में हैं और कुछ लोगों की बीच रास्ते में ही मौत हो गई।

नि:संदेह किसी भी मज़दूर को जबरन नहीं रोका जा सकता, लेकिन इसकी चिंता तो की ही जानी चाहिए कि आखिर उनके बगैर कारोबारी गतिविधियों को रफ्तार कैसे मिलेगी? यह चिंता इसलिए भी की जानी चाहिए, क्योंकि शहरों में अपनी उपेक्षा-अनदेखी से आहत मज़दूरों में से तमाम ऐसे हैं जो फिर नहीं लौटना चाह रहे हैं।

ऐसे में केंद्र सरकार को एक रोडमैप लेकर आना चाहिए जिसमें मज़दूरों की रोजी रोटी की व्यवस्था के साथ आर्थिक गतिविधियों को रफ्तार देने की योजना हो। कही ऐसा न हो कि औद्योगिक शहरों को मज़दूरों की कमी का सामना करना पड़े और इन मज़दूरों को अपने गृहराज्यों में रोटी की किल्लत का सामना करना पड़े। क्योंकि अभी सरकार के पास अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने का कोई आइडिया दिख नहीं रहा है।

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