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कोरोना : संकट के समय ही प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी सोच का अंतर साफ़ होता है

मुख्य सवाल है कि ख़तरा जब पैदा हुआ तो उस ख़तरे से मुकाबला कैसे किया जाए? यहीं से दो नज़रिये या मॉडल सामने आते हैं।
कोरोना वायरस
Image courtesy: Nature

संकट के समय ही प्रगतिशील एवं प्रतिक्रियावादी सोच का अंतर समझ में स्पष्ट हो जाता है। बिना सिद्धांत के कोरोना वायरस के कारण उपजे संकट - जो ग्लोबल संकट है - इसे समझने की कोशिश करते हैं।

नवंबर के अंत और दिसंबर के शुरुआत से ही चीन से कोरोना वायरस के फैलने की ख़बर आने लगी थी। तब से हमारा देश NRC और CAA के बहस में देने और लेने की बहस को केंद्र में रखकर चुनाव से लेकर दंगे तक में व्यस्त था। चीन का मज़ाक बनाया जा रहा था। चमगादड़ खाने से लेकर कुत्ते और बंदर तक की बात की जा रही थी। उसके ठीक बाद ख़बर आने लगी कि वायरस हथियार का निर्माण करने के दौरान का हादसा है यह। इन सब के पीछे जिम्मेदारी तय की गई तो चीन की जनता की या फिर चीन की सरकार की। जो जिम्मेदारी तय की जा रही थी उसके पीछे कोई वैज्ञानिक चिंतन नहीं। बस जिम्मेदारी तय करना। दुश्मन का निर्माण करना। प्रतिक्रियावादी सोच फर्जी दुश्मन की निर्मिती के बिना संभव नहीं।

सरल तौर पर देखें तो वायरस अलग-अलग समय पर अलग-अलग देश में अलग-अलग प्राकृतिक स्थिति में पैदा होते रहे हैं। महत्वपूर्ण है उसकी व्यापकता। चीन में पैदा कोरोना वायरस की व्यापकता इतनी बड़ी क्यों है ? वजह साफ है भूमंडलीकरण। भूमंडलीकरण भले ही पूँजी का एक देश से दूसरे देश में मुनाफा कमाने के लिए बेरोकटोक आवाजाही का नाम है- परन्तु उत्पादन का वितरण तो वैश्विक ही होगा। भले ही श्रम की आवाजाही भूमंडलीकरण में सीमित है, पूँजी की तरह वैश्विक नहीं, पर श्रम के द्वारा जो माल तैयार हो रहा है, उसका वितरण तो वैश्विक ही होगा न! चीन सस्ते श्रम के कारण दुनियाभर की पूँजी का उत्पादन केंद्र है। अब सिर्फ माल का ही नहीं वायरस का भी वितरण वैश्विक होगा। अगर चीन में वायरस पैदा हुआ तो उसका प्रसार भी अपने उत्पादन के वितरण के साथ वैश्विक स्तर पर ही होगा। 

अब सवाल पैदा होता है कि ख़तरा जब पैदा हुआ तो उस खतरे से मुकाबला कैसे किया जाए? यहीं से दो नजरिये सामने आते हैं। एक जो चीन से लेकर कोरिया एवं केरल तक में अपनाया गया। सरकारी अस्पताल। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा। यूनिवर्सल हेल्थ सिस्टम। जो मुनाफा कमाने के उद्देश्य से नहीं रोग के निदान के उद्देश्य से चलता है। इसे ही सरकारी अस्पताल कहते हैं। जो जाँच के लिए किट बनाएगा, वह भी बहुत ज्यादा संख्या में- जो सस्ता हो और सबके लिए हो। जाँच के बाद ही तो सुनिश्चित किया जा सकेगा कि कौन है जो इन्फेक्टेड है! इन्फेक्टेड का इलाज या आइसोलेशन उसके बाद ही तय हो सकता है। 

लेकिन प्रतिक्रियावादी सोच एक फर्जी दुश्मन क्रिएट करेगा। चीन  कम्युनिस्ट और फिर सीमा विवाद के कारण स्वाभाविक शत्रु की योग्यता रखता है। उसकी लपेट में नार्थ ईस्ट के मंगोल नस्ल वाले भी आ जाएं तो यह भी स्वाभाविक ही है। चिंकी जो नस्लीय गाली है, उसे प्रतिक्रियावादी लोग संकट के फर्जी दुश्मन के रूप में पहचान देते हैं।

पाकिस्तान और मुसलमान ही नहीं, प्रतिक्रियावाद राष्ट्रवाद के जरिए अपने दुश्मनों का गढ़ंत करता आया है और आगे भी करेगा। अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए। पिछले तीन महीने का इस्तेमाल उसी प्रतिक्रियावादी राजनीति ने NRC और NPR-CAA के इर्दगिर्द रखा। अर्थव्यवस्था की नाकामी को छिपाने एवं निजीकरण की प्रक्रिया को तेज किया गया। रेलवे से लेकर LIC तक का डिसइन्वेस्टमेंट और बैंकों की लूट को नागरिकता के सवाल के नीचे दबा दिया गया।

अभी जब चर्चा यह हो रही है कि पिछले दो महीने का समय था जब देश तैयार होता कोरोना वायरस से लड़ने के लिए- किट बनाने से लेकर आयात करने से लेकर डॉक्टर एवं नर्स एवं स्वास्थ्य सेवा मुहैया करने वाले लोगों के लिए जरूरी सुरक्षा कवच जमा किया जाता - यह सरकार एक इंच पीछे नहीं हटेंगे का नारा बुलंद करती रही। अब जब हालात पूरी तरह नियंत्रण से बाहर हो रहे हैं तो थाली और ताली थमायी जा रही है एवं चीन, चिंकी और कम्युनिस्ट को टारगेट कर फर्जी जिम्मेदार दुश्मन की निर्मिति की जा रही है। 

ठीक उसी समय प्रगतिशील सोच एवं सरकार सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा, सरकारी अस्पताल से लेकर कामगार जनता तक खाने एवं जांच से लेकर इलाज तक कि व्यवस्था में लगी है। बिहार में एक इन्फेक्टेड आता है और मारा जाता है। वजह जांच तक की सुविधा नहीं है। जाँच की रिपोर्ट कोलकाता से आते-आते मरीज मारा जाता है। इस बीच उसने कितने लोगों तक वायरस को फैला दिया है इसका बिहार सरकार को कोई भी पता नहीं।

ऐसे में जरूरी है कि ताली-थाली पीटने के जरिए प्रतिक्रियावादी सोच के खतरे को समझा जाए। दिल्ली विश्वविद्यालय की नार्थ ईस्ट की शिक्षिका के ऊपर थूक फेंककर गाली देने की मानसिकता को समझने की जरूरत है। यह वैसा ही है जैसे हाल में दिल्ली में हुए दंगे में पहचान पत्र से नाम देखकर या गाड़ी के रजिस्ट्रेशन नंबर से मालिक की पहचान कर हत्या और जलाने की घटना। 

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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