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कोरोना संकट: बिछड़ते जा रहे हैं दोस्त-रहबर

कोविड की दूसरी लहर रोज़ ही एक नई बुरी ख़बर ला रही है। अभी हम एक साथी, एक बौद्धिक, एक लेखक को श्रद्धांजलि भी नहीं दे पाते तब तक दूसरी बुरी ख़बर आ पहुंचती है।
कोरोना ने इन शख़्सियतों को हमसे असमय छीन लिया। अजीत साहनी (बाएं), अंबरीष राय (मध्य में) और रमेश उपाध्याय (दाएं)।
कोरोना ने इन शख़्सियतों को हमसे असमय छीन लिया। अजीत साहनी (बाएं), अंबरीष राय (मध्य में) और रमेश उपाध्याय (दाएं)।

कोविड की दूसरी लहर रोज़ ही एक नई बुरी ख़बर ला रही है। अभी हम एक साथी, एक बौद्धिक, एक लेखक को श्रद्धांजलि भी नहीं दे पाते तब तक दूसरी बुरी ख़बर आ पहुंचती है। कल, 24 अप्रैल को ऐसी ही दो बुरी ख़बरें लगभग साथ-साथ मिलीं। एक रंगकर्मी और ज़िंदादिल इंसान अजीत साहनी हमारे बीच से चले गए और दूसरे हिंदी के प्रख्यात जनवादी कथाकार रमेश उपाध्याय हमारे बीच नहीं रहे। इनसे दो दिन पहले पत्रकार और सीपीएम महासचिव के युवा बेटे आशीष येचुरी के जाने की ख़बर आई और अगले दिन शिक्षा का अधिकार आंदोलन के संयोजक और समाजसेवी अंबरीष राय हमारे बीच से चले गए।

इसे पढ़ें: सीताराम येचुरी के पत्रकार बेटे आशीष येचुरी का कोरोना से निधन

अंबरीष राय के निधन पर वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश लिखते हैं-

उफ्फ़, ये कैसा वक़्त है भाई ! वक़्त की ऐसी बेलगाम खूनी रफ़्तार हममें किसी ने भी नहीं देखी! देखने की बात छोड़िये, हमने इतने बुरे दिनों की कभी कल्पना भी नहीं की। भाई Ambarish Rai के जाने की इस दुखद खबर मिलने के साथ ही मेरे शरीर में अचानक कम्पन होने लगा! अजीब तरह की सिहरन! स्तब्ध हूं!

शिक्षा का अधिकार मंच और उसके राष्ट्रव्यापी अभियान से उनके जुड़ने के पहले से मैं अंबरीष जी को जानता था। वह छात्र-राजनीति से गैर-सरकारी सामाजिक संगठनों से जुड़े और हम पत्रकारिता के रास्ते चल पड़े। हम दो अलग-अलग विश्वविद्यालयों में पढ़े पर छात्र राजनीति में होने के चलते एक दूसरे के नाम से अच्छी तरह परिचित थे। हम जब पहली बार दिल्ली के किसी कार्यक्रम में मिले तो लगा कि काफी समय बाद मिल रहे हैं! ये बिल्कुल महसूस नहीं हुआ कि पहली बार मिल रहे हैं।

उनके बुलावे पर RTE से सम्बद्ध कई कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। उन्होंने जब कभी आमंत्रित किया, विवादास्पद शिक्षा नीति विषयक कुछ कार्यक्रमों में गया। इसी तरह हमने जब भी याद किया, राज्यसभा टीवी के हमारे कार्यकाल में वह कई बार हम लोगों के कार्यक्रमों में आते रहे। शिक्षा या शिक्षा नीति से जुड़े विषयों पर जब कभी मुझे कुछ सूचना या ज्ञान की आवश्यकता होती, मैं जिन तीन-चार लोगों के फोन खड़काता, अंबरीष जी उनमें प्रमुख थे।

बेहद दुखद! 23 अप्रैल की यह सुबह बहुत उदास और बहुत खराब है! कुछ समझ में नहीं आ रहा है, क्या होगा, हमारे समाज का, हमारे देश का और हम सबका?

सलाम और श्रद्धांजलि, दोस्त! परिवार के प्रति शोक-संवेदना!

अलविदा रमेश उपाध्याय !

जनवादी लेखक संघ ने रमेश उपाध्याय जी के निधन पर गहरा शोक व्यक्त करते हुए बयान जारी किया है। बयान इस प्रकार है-

हिंदी के प्रख्यात जनवादी कथाकार रमेश उपाध्याय हमारे बीच नहीं रहे। वे पिछले कई दिनों से कोविड से संक्रमित थे और एक अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। सारी कोशिशों के बावजूद दिनांक 24 अप्रैल को प्रात:काल उनका देहावसान हो गया।

1 मार्च 1942 को उत्तर प्रदेश में जन्मे रमेश जी का आरंभिक जीवन काफी संघर्षों के बीच बीता था। प्रिंटिंग प्रेस में कंपोजिटर से लेकर पत्रकारिता करने तक उन्होंने जीवनयापन के लिए कई तरह के काम किये। इसी दौरान उन्होंने एम.ए., पीएच.डी. तक की पढ़ाई पूरी की और दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज में प्राध्यापक नियुक्त हुए जहाँ आगे तीन दशकों तक उन्होंने अध्यापन कार्य किया।

रमेश उपाध्याय की पहली कहानी 1962 में प्रकाशित हुई थी और पहला कहानी संग्रह ‘जमी हुई झील’ 1969 में। तब से वे लगातार कहानी, उपन्यास, नाटक, नुक्कड़ नाटक, आलोचना आदि विधाओं में लेखन करते रहे। कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी उन्होंने किये। अपनी पीढ़ी के वे काफी चर्चित और प्रतिष्ठित लेखक थे और हर पीढ़ी के लेखकों से उनका आत्मीय संवाद रहा। वे उन कुछ वरिष्ठ लेखकों में से थे जिन्होंने जनवादी लेखक संघ की स्थापना में सक्रिय हिस्सा लिया था।

रमेश उपाध्याय लघु पत्रिका आंदोलन से भी गहरे रूप में जुड़े थे। स्वयं उनके द्वारा प्रकाशित और संपादित त्रैमासिक पत्रिका ‘कथन’ कई दशकों तक हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका के रूप में लोकप्रिय रही है। अब इस पत्रिका का संपादन उनकी छोटी बेटी संज्ञा उपाध्याय कर रही हैं। रमेश जी ने ‘आज के सवाल’ नामक पुस्तक शृंखला का संपादन भी किया है। उनकी बड़ी बेटी प्रज्ञा भी हिदी की जानी-पहचानी युवा कथाकार हैं और बेटा अंकित चित्रकार हैं। कुछ साल पहले ही उनकी पत्नी सुधा उपाध्याय की आत्मकथा भी प्रकाशित हुई थी, जो काफी चर्चित रही। सुधा जी स्वयं अभी कोविड से ग्रस्त हैं और उनका इलाज चल रहा है।

रमेश उपाध्याय के अब तक पंद्रह से अधिक कहानी संग्रह, पांच उपन्यास, तीन नाटक, कई नुक्कड़ नाटक, आलोचना की कई पुस्तकें और अंग्रेजी और गुजराती से कई पुस्तकों के अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं। अपने रचनात्मक लेखन के अलावा उन्होंने साहित्य के सैद्धांतिक पक्ष पर भी काफी लिखा है। पिछले तीन दशकों में यथार्थवाद का जो नया रूप साहित्य लेखन में व्यक्त हुआ, उसे उन्होंने भूमंडलीय यथार्थवाद नाम दिया था और इस अवधारणा के विभिन्न पक्षों की विस्तृत व्याख्या भी प्रस्तुत की थी। लेखन के लिए उन्हें केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा गणेश शंकर विद्यार्थी सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान और हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा भी पुरस्कृत और सम्मानित किया गया था।  

छह दशकों से हिंदी साहित्य को अपने लेखन से समृद्ध करने वाले और अभी भी लेखन में सक्रिय रहने वाले रमेश जी का इस तरह हमारे बीच से चले जाना हम सभी के लिए एक बहुत बड़ा आघात है। जनवादी लेखक संघ अपने इस वरिष्ठ साथी की मृत्यु पर गहरा शोक और उनके परिवार के प्रति हार्दिक संवेदना व्यक्त करता है। हम सुधा जी, संज्ञा और अंकित के कोविड से जल्दी मुक्त होने और स्वस्थ होने की कामना करते हैं।

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