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कश्मीर में लाशों की गिनती जारी है

कश्मीर में ‘मुठभेड़ों’ के दौरान मिलिटेंटों के मारे जाने की दर में 100 प्रतिशत इज़ाफ़ा हुआ है। यह इज़ाफ़ा इस तरह बताया जा रहा है, जैसे आर्थिक वृद्धि दर बढ़ी हो!
jammu and kashmir
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

क्या कोई सरकार यह बताने में गर्व महसूस कर सकती है कि उसने इस महीने से उस महीने के बीच इतने नागरिकों को, जिन्हें वह मिलिटेंट (हथियारबंद विद्रोही) बताती है, मार डाला?

यही नहीं, सरकार अपनी पीठ थपथपाती हुई इसे अपनी ‘उपलब्धि’ के तौर पर भी प्रचारित करे कि वर्ष 2022 में (जून तक) कश्मीर में ‘मुठभेड़ों’ के दौरान मिलिटेंटों के मारे जाने की दर में 100 प्रतिशत इज़ाफ़ा हुआ है! (अब ये तथाकथित मुठभेड़ें कितनी असली थीं, कितनी नकली, यह कौन तय करे!)

केंद्र-शासित क्षेत्र जम्मू-कश्मीर की सरकार यही कर रही है।

जम्मू-कश्मीर पुलिस के इंस्पेक्टर जनरल (आईजी) विजय कुमार ने 21 जून 2022 को राजधानी श्रीनगर में बड़े गर्व से बताया–इसे बाकायदा ‘उपलब्धि’ के तौर पर गिनाते हुए—कि इस साल (2022) कश्मीर में ‘मुठभेड़ों’ के दौरान मिलिटेंटों के मारे जाने की दर में 100 प्रतिशत इज़ाफ़ा हुआ है। (यह इज़ाफ़ा इस तरह बताया जा रहा है, जैसे आर्थिक वृद्धि दर बढ़ी हो!)

जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने जो आंकड़े जारी किये हैं, वे डरावने व चिंताजनक हैं। वर्ष 2021 में जनवरी से जून तक 55 मिलिटेंट ‘मुठभेड़ों’ में मारे गये थे, जबकि वर्ष 2022 में जनवरी से जून तक 118 मिलिटेंट मारे गये। इसे ही 100 प्रतिशत इज़ाफ़ा बताया जा रहा है।

यह मानव त्रासदी का जश्न मनाने-जैसा काम है। याद रखा जाना चाहिए कश्मीर में सेना की गोलियों से मारे जा रहे लोग, जिन्हें सेना व सरकार मिलिटेंट बताती है, नौजवान कश्मीरी—नौजवान भारतीय नागरिक—हैं। कश्मीर घाटी में सेना की बंदूकें इस अंधाधुंध तरीक़े से चल रही है कि 48 घंटे के भीतर (19-21 जून के बीच) 11 कश्मीरी नौजवान हलाक कर दिये जाते हैं।

अब इन तथाकथित मुठभेड़ों की न जवाबदेही तय होती है, न स्वतंत्र जांच-पड़ताल होती है, न क़ानूनी कार्रवाई होती है। कश्मीर में सेना जो कह दे, उसे ही सच बता दिया जाता है।

कश्मीर में तथाकथित मुठभेड़ों के मामलों में सेना ही प्रॉसीक्यूटर (अभियोजक) है, सेना ही वकील है, सेना ही जज है, और सेना ही फ़ैसला सुना कर दंड (मौत की सज़ा) दे देती है।

कश्मीर में ‘मुठभेड़’ की जितनी घटनाएं होती हैं, उन सब का पैटर्न/तौर-तरीक़ा लगभग एक-जैसा होता है। सेना को ख़बर मिलती है कि किसी इलाक़े में मिलिटेंट मौजूद हैं। सेना उस इलाक़े को घेर लेती है। सेना की टुकड़ी जब आगे बढ़ रही होती है, तब उस पर मिलिटेंटों की तरफ़ से गोलियां चलती हैं। सेना की जवाबी गोलीबारी में मिलिटेंट मारे जाते हैं।

सेना की ओर से यह भी प्रचारित किया जाता है कि मारे गये मिलिटेंट फलां-फलां की हत्या में शामिल थे। सवाल है, यह आरोप किस अदालत में साबित हुआ? कश्मीर में सेना ही अदालत है, और वह ‘त्वरित न्याय’ करती है!

कश्मीर में हर साल सेना के साथ तथाकथित मुठभेड़ों में मारे गये कश्मीरी नौजवानों/मिलिटेंटों की लाशों की गिनती होती है और उनकी संख्या जारी की जाती है। यह संख्या हर साल बढ़ती जा रही है।

कश्मीर में अनवरत हिंसा, अनवरत रक्तपात जारी है, और सेना को बेलगाम छूट मिली हुई है। सेना पर सख़्ती से लगाम लगाये बग़ैर कश्मीर की असह्य यातना को ख़त्म करना नामुमकिन है।

(लेखक कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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