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हेल्थ बीमा होने के बावजूद अगर इलाज का खर्च जेब से करना पड़े तो बीमा लेने का क्या फ़ायदा? 

आजकल हेल्थ बीमा होने के बाद भी कोरोना के साथ-साथ एक और लड़ाई लड़नी पड़ रही है। स्वास्थ्य बीमा कंपनियां तरह-तरह का पेच लगाकर हॉस्पिटल का खर्चा देने में आनाकानी कर रही हैं।
हेल्थ बीमा होने के बावजूद अगर इलाज का खर्च जेब से करना पड़े तो बीमा लेने का क्या फ़ायदा? 
'प्रतीकात्मक तस्वीर' फ़ोटो साभार: साइंस न्यूज़

किसी भी बड़े अस्पताल में चले जाइए। पैसा लेने वाले कर्मचारी या काउंटर पर जाकर पूछिए कि कोरोना काल में उनकी कितनी कमाई हुई। अगर वह ईमानदारी से बताना शुरू करेंगे तो आपको कई ऐसे लोगों का पता चलेगा जिन्होंने 2 दिन, 3 दिन, 4 दिन, 10 दिन बेड पर अपने जीवन को बचाने के लिए दो लाख, दस लाख, 14 लाख या इससे भी ज़्यादा रुपये खर्च किए हैं। लोगों का जीना-मरना और जूझना केवल आंकड़ों में तब्दील होकर रह जाए तो यह उनके साथ की गई बहुत बड़ी नाइंसाफी होगी।

होना तो यह चाहिए कि पिछले दो महीने में अस्पतालों, बिस्तर, ऑक्सीजन, सिलेंडरों, दवाओं से जूझते लोगों की परेशानियां संसद के सामने रखी जाएं और उस पर दिनभर चर्चा हो। टीवी स्टूडियो से लेकर अखबार के पन्ने भारत में बदहाल स्वास्थ्य सुविधाओं की कहानियां बयान करने में खर्च हों। लेकिन ऐसा नहीं होगा। क्योंकि ऐसा होने का मतलब उस पूरे नेटवर्क पर हमला करना जिनकी मौजूदगी लोकतंत्र में सरकारों के अर्थ को अर्थहीन कर रही हैं।

इसी नेटवर्क की हिस्सेदारी का एक सिरा स्वास्थ्य बीमा कंपनियों से जुड़ता है। महामारी के इस बुरे वक्त में एक तो इलाज नहीं मिल रहा है। अगर इलाज मिल भी रहा है तो वह बहुत अधिक महंगा है। अगर किसी के पास स्वास्थ्य बीमा है तो उस बीमा का क्लेम कर पैसा पाने के लिए कोरोना के साथ-साथ एक और लड़ाई लड़नी पड़ रही है। स्वास्थ्य बीमा कंपनियां तरह-तरह का पेच लगाकर हॉस्पिटल का खर्चा देने में आनाकानी कर रही हैं।

कायदे से होना तो यह चाहिए जिसने किसी कंपनी का हेल्थ बीमा लिया है अगर वह निजी अस्पताल में भर्ती हो तो कार्ड दिखाने के बाद बिना पैसा जमा किए इलाज शुरू हो जाए। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। अस्पताल में भर्ती होने से पहले एडवांस में पैसा देना पड़ रहा है।

मेरे दोस्त के पिता बैंक में कर्मचारी हैं। उन्हें कोरोना हुआ। कोरोना की लड़ाई तो वह जीत गए लेकिन उस नेटवर्क से हार गए जिससे वह सिस्टम पनपा है जहां पर जान बचाने के लिए बीमा कंपनियों को सरकारी नीतियों ने जन्म दिया है। उनका ऑक्सीजन लेवल तकरीबन 78 पर पहुंच गया। तब उनका हॉस्पिटल में भर्ती होना बहुत जरूरी हो गया। बहुत मेहनत मशक्कत और जुगाड़ के बाद एक बेड मिला। उन्होंने किसी हेल्थ बीमा कंपनी से 5 लाख रुपये का हेल्थ बीमा लिया हुआ था। उन्होंने इलाज शुरू होने से पहले कार्ड दिखाया लेकिन कार्ड प्राइवेट हॉस्पिटल ने स्वीकार नहीं किया। तो पहले एडवांस जमा करना पड़ा। हॉस्पिटल में उन्होंने 4 दिन बिताए तो खर्चा तकरीबन चार लाख के पास पास बैठा। बीमा कंपनी से वसूली की बारी आई तो हेल्थ बीमा कंपनी ने यह कहकर टाल दिया कि हॉस्पिटल में भर्ती होने की जरूरत नहीं थी। घर पर रहकर ही इस बीमारी से बचा जा सकता था।

यह केवल एक व्यक्ति की परेशानी नहीं है कि उसे अपनी गाढ़ी कमाई की बदौलत भरी गई प्रीमियम से चल रही बीमा स्कीम से सही समय पर नहीं मिल पा रही बल्कि जनरल इंश्योरेंस कंपनी के आंकड़ों के मुताबिक 20 मई तक कुल 24000 करोड़ रुपये के दावे में से 12 हजार करोड़ रुपये के बीमा के दावे बीमा धारकों को नहीं मिल पाए हैं। दिखने में भले ही यह आधा लगता हो लेकिन समझने वाली बात यह है कि हेल्थ बीमा लेने वाले लोग भारतीय समाज का वर्ग होता है, जो महीने में ठीक-ठाक कमाई करता है। व्यक्तिगत जीवन में पैसे की प्रबंधन को लेकर ठीक-ठाक समझ रखता है। अगर बीमा कंपनियां इनमें से आधे लोगों को बिना पैसे दिए लौटा सकती हैं तो सोचने वाली बात यह है कि वह कितनी बड़ी दांव पेच के सहारे अपना काम कर रही होंगी।

आम दिनों में हॉस्पिटल में भर्ती होने के 24 या 48 घंटे के भीतर स्वास्थ्य बीमा धारक हॉस्पिटल को अपना कार्ड दिखाकर भर्ती हो सकता है। या तो भुगतान बीमा धारक कर देगा और बाद में उसकी वसूली बीमा कंपनी से कर लेगा या बीमा धारक कुछ भी नहीं करेगा सीधे कंपनी और हॉस्पिटल के बीच पैसे का लेन देन हो जाएगा। कोरोना महामारी के इस भीषण दौर में अधिकतर मामले केवल कार्ड दिखाकर नहीं सुलट रहे है। पैसे का भुगतान मरीज को करना पड़ रहा है। जानकारों की माने तो डिमांड और सप्लाई का खेल है। स्वास्थ्य सुविधाओं की सप्लाई बहुत कम है और डिमांड बहुत ज्यादा है। जब मारामारी बेड, ऑक्सीजन सिलेंडर और वेंटिलेटर के लिए है तो किसको पड़ी है कि वह केवल कार्ड के सहारे अपने अस्पताल का कामकाज चलाएं। निजी अस्पताल तो खूब पैसा वसूल रहे हैं, खूब कमाई कर रहे हैं तब सेवाएं दे रहे हैं। जनरल इंश्योरेंस कंपनी की वेबसाइट पर जाकर देखा जाए तो उन्होंने कोरोना के इस दौर में स्वास्थ्य सुविधाओं की वाजिब कीमत क्या हो सकती है, इसकी एक लिस्ट भी लगाई है। लेकिन सोचने और समझने वाली बात यह है कि आखिरकार इस लिस्ट को लेकर कौन सा मरीज महंगे अस्पतालों से मोलभाव करता होगा। इंसान के भीतर जान बचाने की इच्छा इतनी गहरी होती है कि वह जान बचाने के समय दूसरी किसी भी चीज पर गौर नहीं करता। 

इस तरह से जिनके पास पैसा है जो रसूखदार हैं उन्हें जगह मिल जाती है जिस जगह पर दूसरों का उनसे पहले अधिकार बनता है।

मीडिया में छपी खबरों का विश्लेषण करके देखा जाए तो हेल्थ इंश्योरेंस क्लेम रिजेक्ट होने वाले ज्यादातर मामलों में कुछ कॉमन कारण सामने आ रहे हैं। जैसे अगर कोरोना की रिपोर्ट पॉजिटिव थी लेकिन ऑक्सीजन लेवल ठीक-ठाक था तब हॉस्पिटल में क्यों भर्ती हुए? अगर सीटी स्कैन गंभीर स्थिति की तरफ इशारा नहीं कर रहा था तो हॉस्पिटल में भर्ती होने की क्या जरूरत है? इस तरह के कारण बताकर ढेर सारे क्लेम रिजेक्ट किए गए हैं। 

लेकिन सवाल यह है कि हॉस्पिटल में भर्ती कोई अपने मन से जबरन तो नहीं हुआ होगा। ऐसी बहुत कम मामले होते हैं जहां पर लोग अपने मन से हॉस्पिटल में भर्ती हो जाए। नहीं तो बिना डॉक्टर के आदेश हॉस्पिटल में कोई भर्ती नहीं होता। डॉक्टर ने चेक किया होगा चेक करने के बाद उसे लगा होगा तो भर्ती होने की सलाह दी होगी। 

तो ऐसे में ज्यादा महत्वपूर्ण डॉक्टर की सलाह होनी चाहिए या उन रिपोर्टों को जिन को आधार बनाकर क्लेम देने से रोका जा रहा है? इसका फैसला आप सब खुद को एक बार मरीज के तौर पर रखकर कर सकते हैं। बीमा कंपनियां अपना बीमा बेचते हुए यही तो कहती है कि हेल्थ खर्च को लेकर घबराने और चिंतित होने वाली स्थिति से पहुंचने से अच्छा है कि पहले से उसकी तैयारी करते रहा जाए। लेकिन जब घबराने से बचाने वाली स्थिति आई है तो बीमा कंपनियां खुद को अलग रखने वाली तर्क गिना रही हैं।

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि ऐसा नहीं होना चाहिए कि हॉस्पिटल के खर्चों से जुड़े बिल का भुगतान करने में बीमा कंपनियां 6 से 7 घंटे का समय लगा दें। अस्पतालों की आगे लंबी लंबी लाइनें बेड के इंतजार में लगी हुई हैं। ऐसे समय में यह काम बिल्कुल नहीं करना चाहिए कि बेड ना मिलने की वजह से किसी जान पर बन जाए। मुश्किल आधे घंटे के अंदर मरीज के दावे को बीमा कंपनियों को सुलझा देने चाहिए।

बीमा कंपनियों का रवैया देखकर यह सवाल खूब उभरा है की बीमा होने के बावजूद खर्चा अपनी जेब से क्यों करना पड़ रहा है? इस सवाल पर जनरल इंश्योरेंस काउंसिल के एक अधिकारी का बयान मीडिया में छपा है। उसका सार यह है कि बीमा कंपनियां मरीज का पूरा खर्चा उठाती हैं लेकिन अगर खर्च में बेवजह के खर्च और लूट भी शामिल कर दी जाएगी तो कैसे भुगतान हो सकता है? एक दवा की कीमत 10 रुपये हो और उसके बदले में 20 रुपये वसूले जाएं तो कैसे होगा? इस दुखदाई समय में भी अगर यह सब जारी हो तो क्या किया जाए?

यही सबसे गहरा सवाल है। ऐसा तो है नहीं कि दवा कंपनियां और हॉस्पिटल ने अचानक लूट मचानी शुरू कर दी है। हकीकत तो यह है की बहुत लंबे समय से वह केवल मुनाफे पर काम करते आ रहे हैं। हमारे देश में बैंक, टेलीकॉम, बीमा हर क्षेत्र में सरकार की एक रेगुलेटर संस्था काम करती है लेकिन निजी अस्पताल और दवा के क्षेत्र में अभी तक कोई रेगुलेटरी संस्था काम नहीं कर रही है? इसकी जिम्मेदारी सीधे सरकार पर जाती है। आखिरकार सरकार इन सारी घटनाओं को चुपचाप बैठकर क्यों देखते आ रही है? 

महामारी के दौरान बीमा कंपनियों से पैदा हुई परेशानी ने उस अहम बिंदु पर फिर से जोर से हमला किया है जहां यह कहा जाता है कि भारत जैसे गरीब मुल्क में स्वास्थ्य सुविधाएं बीमा के सहारे पूरी हो जाएंगी। सरकार को फ्री स्वास्थ्य सुविधा के लिए काम नहीं करना चाहिए। बाजार और बीमा मिलकर स्वास्थ्य क्षेत्र को संवारते रहेंगे। जबकि बिल्कुल उल्टा हो रहा है।

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