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25 मार्च, 2020 - लॉकडाउन फ़ाइल्स

दो साल पहले भारत के शहरों से प्रवासी परिवारों का अब तक का सबसे बड़ा पलायन देखा गया था। इसके लिए किसी भी तरह की बस या ट्रेन की व्यवस्था तक नहीं की गयी थी, लिहाज़ा ग़रीब परिवार अपने गांवों तक पहुंचने के लिए मीलों पैदल चलते रहे थे, कुछ तो रास्ते में ही दम तोड़ गये थे।
lockdown
विशेष ट्रेन से पहुंचने के बाद परिवहन व्यवस्था उपलब्ध नहीं होने की वजह से प्रवासी श्रमिक पैदल अपने घर जाते हुए

वह 2020 का 22 मार्च का दिन था।इसी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कोविड-19 महामारी के "अंत की शुरुआत" का ऐलान कर दिया था और इसके साथ ही देश के लोग अपने-अपने घरों से बाहर निकल गये थे और उन्होंने थालियां पीटी थीं, तालियां बजायी थीं और शंख फूंके थे। यह सब उन दिनों के बाद हुआ था, जब मोदी ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के स्वागत के लिए गुजरात में एक विशाल सभा आयोजित की थी। लेकिन,कोविड-19 के मामले पहले से ही बढ़ रहे थे।

फिर आता है -24 मार्च, 2020 की रात के 8 बजे का समय। यही वह दिन और वक़्त था,जब मोदी अपनी ज़िम्मेदारी को बहाने से ढकते हुए अपने पसंदीदा टेलीविज़न कैमरे के सामने प्रकट हुए और पूरे देश भर में 12 बजे (25 मार्च) के बाद अचानक और पूरे 21 दिनों के लॉकडाउन का ऐलान कर दिया था। लोगों को महज़ चार घंटे की मोहलत दी गयी थी।इन्हीं चार घंटों में उन्हें घर वापसी करनी थी, ज़रूरी चीज़ों की ख़रीदारी करनी थी, इस बात का कोई ख़्याल भी नहीं रखा गया था कि वे कहां के रहने वाले हैं और उन्हें कहां जाना है,यानी कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के लोगों का यही हाल था।

प्रधानमंत्री ने कहा, "इस फ़ैसले ने...आपके दरवाज़े पर एक लक्ष्मण रेखा खींच दी है। आपको याद रखना होगा कि आपके घर के बाहर पड़ने वाला एक भी क़दम कोरोना जैसी ख़तरनाक़ महामारी को आपके घर के भीतर ला सकता है।”

इस ऐलान को लेकर केंद्रीय मंत्रिमंडल की कोई बैठक नहीं हुई थी, विपक्षी दलों, या मंत्रालयों और विभागों, चिकित्सा विशेषज्ञों या राज्य के उन मुख्यमंत्रियों के साथ भी किसी तरह की कोई बैठक तक नहीं हुई थी, जिन्हें इस सबका ख़ामियाज़ा भुगतना था; उनमें से कुछ लोग तो "सदमे" में थे, जबकि कुछ दूसरे लोग  "हैरत" में थे। लेकिन, वे सभी ग़ुस्से में हांफ रहे थे, क्योंकि उनके पास आने वाली अराजकता को संभाल पाने को लेकर इंतज़ाम करने का समय ही नहीं बचा था। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, उस समय तक पुष्ट मामलों की संख्या 519 थी और नौ लोगों की मौत हो चुकी थीं।

प्रधानमंत्री के अचानक किये गये उस ऐलान के बाद पूरे देश में दहशत और अफ़रातफ़री मच गयी थी। लाखों प्रवासी कामगार अपनी और अपने परिवार की जान जोखिम में डालकर अपने-अपने गांव वापस जाने के लिए बस स्टैंडों और स्टेशनों की ओर भागने लगे थे। मध्यम वर्ग वाले लोगों की भीड़ किराने के सामान, दवाइयां आदि ख़रीदने के लिए दुकानों और सुपरमार्केट में उमड़ पड़ी थी। हर तरफ़ से मारपीट, झडप और लड़ाई-भिड़ाई की ख़बरें आ रही थीं। दैनिक वेतन भोगी और घरेलू नौकरों को यह पता ही नहीं चल पा रहा था कि उन्हें क्या-क्या नुक़सान होगा।वे पशोपेश में थे कि उन्हें रहना चाहिए या उन्हें भी चले जाना चाहिए ? उनके सामने ये सवाल भी थे कि क्या खायेंगे ? किराया कैसे दे पायेंगे ?

किसी अन्य देश, यहां तक कि उस समय भारत के मुक़ाबले ज़्यादा कोविड-19 मामलों वाले देशों ने भी इतना बड़ा मानवीय संकट का सामना नहीं किया था। छोटे-छोटे देशों में भी इंतज़ाम के लिहाज़ से लोगों को कुछ समय दिया गया था।

दो साल बाद मोदी सरकार ‘गोदी मीडिया ’की मदद से उस बिना किसी योजना के लगाये गये लॉकडाउन के बाद हुई मानवीय पीड़ा को मिटाने की चाहे जितनी भी कोशिश कर ले,मगर कुछ तस्वीरें ऐसी हैं, जो हमेशा स्मृति में अंकित रहेंगी।

रेलवे स्टेशन पर अपनी मृत मां की साड़ी खींचते हुई एक बच्चे की दिल दहला देने वाली उस तस्वीर को भला कौन भूल सकता है, बिना भोजन-पानी के अपने गांव पहुंचने के लिए मीलों पैदल चलती उस दादी की सूटकेस खींचती तस्वीर को भला कौन भूला सकता है,जिस सूटकेस पर उसका पोता सोया हुआ था, कुछ थके हुए मज़दूरों के कुचल जाने से रेल की पटरियों पर बिखरी हुई चपातियों और क्षत-विक्षत मज़दूरों की तस्वीर भला कैसे दिल-ओ-दिमाग़ से मिटायी जा सकती है,उस दिल दहला देने वाली तस्वीर को भी आख़िर कैसे भुलाया जा सकता है,जिसमें एक नौजवान मुस्लिम मज़दूर की गोद में उसके बीमार हिंदू दोस्त बिलख-बिलखकर मर गया था। सरकार की ओर से किसी तरह की कोई मदद नहीं मिली थी-ग़रीब प्रवासियों को मरने के लिए उनके ख़ुद के हाल पर छोड़ दिया गया था; वे अपनी ज़िंदगी के इस कड़े इम्तिहान से उबरने को लेकर 'अजनबी लोगों की दया' पर ही निर्भर थे।

उस मानवीय संकट के अलावा, अचानक बिना किसी योजना के लगाये गये उस लॉकडाउन ने बड़े पैमाने पर ऐसी आर्थिक समस्यायें पैदा कर दी थीं, जो आज तक जारी हैं। बेरोज़गार परिवारों को जीवन चलाने के लिहाज़ से नक़द पैसे दिये जाने को लेकर विशेषज्ञों और विपक्षी दलों की ओर से बार-बार दी जा रही दलीलों को भी केंद्र ने ख़ारिज कर दिया था।

सरकार की ओर से किसी तरह का कोई मुआवज़ा नहीं मिलने से असंगठित क्षेत्र के 90% से ज़्यादा भारतीय कार्यबल अब तक वित्तीय संकट से जूझ रहा है। चूंकि बढ़ती क़ीमतों की वजह से भोजन और पोषण का सेवन बहुत प्रभावित हुआ है,इसलिए उनकी आय कम हो गयी है, घरेलू क़र्ज़ बढ़ गया है, चिकित्सा ख़र्च में इज़ाफ़ा हो गया है। लाखों छोटे और सूक्ष्म कारोबारियों की दुकानें बंद हो गयीं और जिन्होंने अपना कारोबार जारी रखा, वे भी इस समय रोज़ी-रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

आइये,इसकी तुलना उस कॉरपोरेट सेक्टर से करें, जो केंद्र में अपने अनुकूल सरकार की इस महिमा का आधार है। मिंट के एक विश्लेषण के मुताबिक़, महामारी के कारण लगाये गये लॉकडाउन के बावजूद इस कॉर्पोरेट का मुनाफ़ा (मुख्य रूप से लागत और मज़दूरी पर कम खर्च के कारण) छह साल के उच्चतम स्तर पर है !

इसलिए, अब समय आ गया है कि कोई 'द लॉकडाउन फ़ाइल्स' पर भी एक फ़िल्म बनाये,जो भारत के इतिहास में शहरों से सबसे बड़े प्रवासी पलायन का करण बना था, जिसमें लाखों लोगों को भारत के रेशमी राजमार्गों और एक्सप्रेसवे पर एक ऐसी सरकार ने उनके ख़ुद के हाल पर छोड़ दिया था,जो ख़ुद तो डॉल्बी साउंड सिस्टम पर बोलती है, लेकिन साउंड-प्रूफ़ हेडफ़ोन लगाती है,ताकि संकट में पड़े लोगों के रोने की आवाज़ उसके कानों तक नहीं पहुंच पाये।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

March 25, 2020 - The Lockdown Files

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