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राजनीति का अपराधीकरणः सियासी दलों को अदालत सुधारेगी या जनता

राजनीति का अपराधीकरण रोकने के लिए देश की सर्वोच्च अदालत से होने वाली इस पहल के कई पहलू हैं और उन पर इस कदम की सफलता और असफलता निर्भर करती है।
राजनीति का अपराधीकरण
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: Livemint

राजनीति के अपराधीकरण पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश स्वागत योग्य है। बिहार चुनाव में उम्मीदवारों का आपराधिक रिकार्ड सार्वजनिक न करने के आरोप में अदालत ने नौ राजनीतिक दलों को न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया है और उन पर जुर्माना भी लगाया है। लेकिन इसी के साथ न्यायालय के आदेश का दूसरा अहम पहलू यह है कि उसने सरकारी वकीलों को आगाह किया है कि वे जनप्रतिनिधियों पर दर्ज आपराधिक मुकदमे वापस न लें। उसके लिए हाई कोर्टों की अनुमति जरूरी है।

राजनीति का अपराधीकरण रोकने के लिए देश की सर्वोच्च अदालत से होने वाली इस पहल के कई पहलू हैं और उन पर इस कदम की सफलता और असफलता निर्भर करती है। पहला सवाल है सूचना और पारदर्शिता। लोकतंत्र सही सूचनाओं और पारदर्शिता से निर्मित होने वाले जनमत से निर्मित व्यवस्था है। अगर हमारी लोकतांत्रिक संस्थाएं इस व्यवस्था के ढांचे का निर्माण करती हैं तो जनमत और उसके प्रभाव में होने वाले निर्णय इस व्यवस्था के रक्त मांस और मज्जा की तरह हैं। जागरूक और नैतिक जनमत के बिना यह व्यवस्था या तो क्रूर पुलिस व्यवस्था का रूप ले लेगी या फिर सैनिक तानाशाही बन जाएगी।

इसलिए सवाल यह उठता है कि जब पहले सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन राजनीतिक दलों ने नहीं किया और ऐसा न करने वालों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और जनता दल (एकीकृत) शामिल हैं तो क्या अब वे ऐसा करेंगे। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर राजनीतिक दलों का ध्यान खींचने की जो अहम जिम्मेदारी चुनाव आयोग की थी जब वह भी खामोश रहा तो क्या भविष्य में उसके सक्रिय होने की उम्मीद की जा सकती है?

सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश इस धारणा पर आधारित है कि राजनीतिक उम्मीदवारों की असलियत जनता को पता नहीं चलती और यही कारण है कि विधानसभा और संसद के लिए आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग चुन लिए जाते हैं। यह धारणा एक हद तक ही सही हो सकती है।

वास्तव में जनता इतनी अनभिज्ञ नहीं है जितनी उसे मानकर चला जाता है। वह अपने उम्मीदवारों के बारे में बहुत कुछ जानती है। भले उसे वे आपराधिक धाराएं न स्मरण रहें जिनके तहत मुकदमे दर्ज हुए हैं लेकिन वह जानती है कि किस उम्मीदवार ने कहां झगड़ा किया, कहां दंगा किया और कहां किसी का कत्ल किया। वह यह भी जानती है कि सड़क, पुल, नहर या किसी सरकारी भवन के निर्माण में कितने प्रतिशत का कट लिया गया और उसमें सीमेंट और बालू का अनुपात क्या रहा। लेकिन जनता अगर थोड़ा बहुत बुरा मानती है तो उस नेता से जो जनता से पैसा लेकर भी उसका काम नहीं करता। लेकिन वह उन लोगों से खुश होती है जो सरकारी योजनाओं का धन लेकर जनता को चुनाव में नोट बांट देते हैं। पहले नोट बांटना अपवाद हुआ करता था लेकिन अब नोट बांटना एक रिवाज हो गया है। इसलिए किसी भी उम्मीदवार से नाराज जनता रातों रात बदल जाती है रिश्वत पाकर। उसके बाद वह इस बात पर ध्यान नहीं देती की फलां उम्मीदवार कितना अपराधी है? बल्कि वह उसकी तुलना में सद्चरित्र उम्मीदवार को खारिज करने में देर नहीं लगाती। इसके अलावा जनता के भीतर अपराधियों के प्रति एक प्रकार का भय भी होता है कि अगर वोट नहीं दिया तो वे कहर बरपा सकते हैं।

राजनीति और अपराध का रिश्ता पहले परदे के भीतर का था। राजनेता अपराधियों से संबंध रखता था लेकिन उसे अपने साथ बिठाने या उसके साथ फोटू खिंचवाने में शर्माता था। सभ्य समाज भी अपराधियों से थोड़ा दूर ही रहता था। यानी अपराध का संक्रमण राजनीति में धीरे धीरे और चोरी छुपे प्रवेश करता था। तब उसे राजनीति का अपराधीकरण कहते थे। आज मामला उल्टा हुआ है। उसे हम अपराध का राजनीतिकरण कह सकते हैं। जो अपराधी, गुंडे और माफिया पहले पीछे से राजनीतिक लोगों की मदद करते थे वे अब स्वयं ही राजनेता बनने की महत्वाकांक्षा पाल बैठे हैं और धनबल और बाहुबल के आधार पर किसी भी पार्टी से टिकट ले आते हैं और चुनाव जीत लेते हैं। उसे चुनाव लड़ने से तब तक नहीं रोका जा सकता जब तक उसे किसी संज्ञेय अपराध में सजा न हुई हो। यह काम भी न्यायालय ही तेजी से कर सकता है। लेकिन न्यायालय भी बाहुबली अपराधियों के प्रति चाहे अपने भीतर पल रहे भ्रष्टाचार के कारण नरम रहता है या फिर उसके भीतर भी खौफ है। इसका उदाहरण हम हाल में धनबाद में सत्र न्यायाधीश की हत्या में पा सकते हैं। इसलिए आपराधिक उम्मीदवारों के प्रति एक प्रतिरोधी जनमत तैयार करने का काम कठिन है और वह तभी संभव है जब समाज संपन्न हो और उसके भीतर अपराध के प्रति न तो भय हो और न ही आकर्षण।

सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का दूसरा हिस्सा भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। वो यह है कि राज्य सरकारों के वकील जन प्रतिनिधियों पर दर्ज मुकदमे संबंधित उच्च न्यायालयों की अनुमति के बिना वापस नहीं ले सकते। यह आदेश सीधे उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के सिलसिले में वापस लिए गए 76 मामलों से जुड़ता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने उस दंगे में शामिल सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक और सांसद को राहत देने के लिए मामले वापस लिए थे। सरकार ने इसी दौरान मुख्यमंत्री पर भी दायर आपराधिक मुकदमे वापस लिए थे। संभव है बहुत सारे जनप्रतिनिधियों पर फर्जी मुकदमे दर्ज हो जाते हों। क्योंकि जनसंघर्ष करने वाले राजनेताओं का दमन करने के लिए यूएपीए, गैंगेस्टर कानून और राष्ट्रीय सुरक्षा कानूनों का धड़ल्ले से इस्तेमाल होता रहा है। लेकिन सांप्रदायिकता ऐसी सोच है जो तमाम अपराधियों को वैचारिक पवित्रता का जामा पहनाती है।

यह बात डॉ. आंबेडकर ने भी कही थी कि हमारा संविधान और उससे जुड़ा आपराधिक न्याय का दर्शन किसी समुदाय को दोषी मानने की बजाय व्यक्ति को दोषी मानता है। यानी अपराध व्यक्ति करता है न कि समुदाय। मुकदमा व्यक्ति पर चलेगा न कि किसी समुदाय या संप्रदाय पर। लेकिन जब पूरा का पूरा समुदाय अपराध पर उतारू हो जाता है तो उसे दंडित करना कठिन हो जाता है। दंगा और उससे उत्पन्न सांप्रदायिकता की विचारधारा बड़े बड़े अपराधियों को नायक का जामा पहना देती है। ऐसे में न्यायालय के लिए किसी अपराधी को दंडित करना कठिन हो जाता है। धार्मिक उन्माद और राष्ट्रवादी कट्टरता से प्रेरित अपराध इसी तरह से अपराध हैं और इनमें निरंतर वृद्धि होती जा रही है। लोगों की मॉब लिंचिंग करने वाले, दंगा करने वाले, किसी को पकड़ कर पीट देने वाले अपराध की वैचारिकी से प्रेरित हैं। वे निजी तौर पर अपराधी मानसिकता के नहीं होते। सोशल मीडिया और तमाम चैनल उन्हें अपराधी बनाने का अभियान चलाते हैं। वे भीड़ की शक्ल ले रहे हैं और दंगाई हो रहे हैं। ऐसे लोगों के बारे में हमारे सुप्रीम कोर्ट और समाज के दायित्व के बीच गहरा द्वंद्व है।

इसलिए अपराध का मामला सिर्फ कुछ व्यक्तियों की आपराधिक मानसिकता से नहीं जुड़ा है। वह हमारी असमान सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था से जुड़ा है और वह अपराध और हिंसा के लिए प्रेरित करने वाली राजनीतिक विचारधारा से जुड़ा है। जब तक समाज में असमानता पर आधारित जाति व्यवस्था रहेगी और उसका शोषण रहेगा तब तक कोई यह कल्पना कैसे कर सकता है कि ताकतवर जातियां कमजोर का शोषण नहीं करेंगी और वह जाति प्रतिक्रिया नहीं करेगी जिसका शोषण हुआ है। इस बीच कानून तो देर से पहुंचता है पहले शोषण और दमन की हिंसा और फिर प्रतिकार की हिंसा होती है। इसी प्रतिकार स्वरूप फूलन देवी ने डकैत बनकर हत्याएं की थीं। जिसे बाद में पूरी दुनिया ने महसूस किया। समाज के उसी जाति संघर्ष को प्रकट करने के लिए समाजवादी पार्टी ने उन्हें अपनी पार्टी से सांसद भी बनाया।

समाज में अपराध बढ़ने और उनके संगठित रूप लेने के पीछे आर्थिक गैर बराबरी भी बड़ी वजह है। जो लोग आर्थिक रूप से विपन्न रहेंगे वे अपनी स्थिति सुधारने और अपने उपभोक्तावादी शौक पूरा करने के लिए पारंपरिक अपराध से लेकर साइबर अपराध तक करते हैं। रोजगार के अवसर लगातार घटने और समाज को भिखारी मनोवृत्ति में डालने वाली सरकारों को इस दिशा में भी सोचना चाहिए।

राजनीति के अपराधीकरण के पीछे एक बड़ा कारण चुनाव का निरंतर बढ़ता खर्च भी है। जब चुनाव इतने महंगे होंगे तो गलत तरीके से धन कमाने वाले ही इसमें भागीदारी कर सकेंगे। ऐसी स्थिति में संगठित आर्थिक अपराध करने वालों की एक भूमिका बनती है। आजकल चुनाव की तैयारी में लगे राज्यों की राजधानियों में आप ऐसे माफिया लोगों को देख सकते हैं जिन्होंने ठेके से, भ्रष्टाचार से और तस्करी से अरबों की संपत्ति बनाई है और अब किसी पार्टी का टिकट पाकर जनप्रतिनिधि बनना चाहते हैं।

निश्चित तौर पर आज के वातावरण में हम उस युग में नहीं लौट सकते जब आचार्य कृपलानी उस उम्मीदवार का प्रचार करने से मना कर देते थे जिसका तीन मंजिला घर बना हो। लेकिन जो सुप्रीम कोर्ट राजनीति के अपराधीकरण को सूचना और पारदर्शिता के आधार पर रोकना चाहता है उसे उस इलेक्टोरल बांड की भी खबर लेनी चाहिए जो अपने में विवादास्पद है और किसी एक दल को फायदा दे रहा है।

स्पष्ट तौर पर राजनीति का अपराधीकरण रोकने का तरीका नैतिक उपदेश या कुछ कानूनों के पारित कर देना नहीं है। हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं को जिसमें न्यायपालिका से ज्यादा सक्रिय भूमिका संसद की है, को अपने दायित्व का निर्वाह करना होगा। उस समाज के नैतिक स्तर को जगाना होगा जहां अपराध एक जलवे की चीज हो गया है। इसी के साथ उन कारणों को मिटाना होगा जिनके नाते अपराध घटित होते हैं और वे हमारी राजनीति को संक्रमित करते हैं।    

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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