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रामचरितमानस पर आलोचनात्मक टिप्पणी, विवेकानंद, गांधी के विचार की ही झलक है 

कुछ "आपत्तिजनक" छंदों के बारे में आपत्ति जताने को, ओबीसी समुदाय को व्यापक हिंदुत्व ढांचे से मुक्त करने और समानता, समान अवसर और सम्मान के संघर्ष की निरंतरता के रूप में देखा जाना चाहिए।
Ramcharitmanas

तुलसीदास की रामचरितमानस एक सम्मानित ग्रंथ है जो उन लाखों लोगों के भीतर धर्मपरायणता और भक्ति का आदेश भरती है जो इससे आध्यात्मिक सांत्वना हासिल करते हैं। पिछले कई गुजरे हफ्तों के दौरान, रामचरितमानस के कई छंद, जिनमें यह छंद  "ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी” भी शामिल है, को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से संबंधित कुछ नेताओं ने उत्तर प्रदेश और बिहार में इस बात को समझाने के लिए इनका विरोध किया कि ये छंद  उनकी जाति और लैंगिक पहचान के आधार पर अपमानित करते हैं।

'अपमानजनक' छंद

उदाहरण के लिए, समाजवादी पार्टी के स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा कि रामचरितमानस महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों के लिए अपमानजनक ग्रंथ है। इससे पहले, बिहार सरकार के शिक्षा मंत्री और राजद (राष्ट्रीय जनता दल) के नेता चंद्रशेखर ने कहा था कि कुछ छंद दलितों और महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुंचाते हैं, और शूद्र शब्द का उल्लेख करते हैं जो उन लोगों के सम्मान और स्वाभिमान का उल्लंघन करता है, जिन्हे जाति पदानुक्रम में निचले सिरे पर रखा गया है। इस तरह की तीखी टिप्पणियों ने भारी हंगामा खड़ा कर दिया है।

उक्त छंदों को लक्षित करना, दलितों और ओबीसी को साथ लाने और ओबीसी-दलित समर्थन को सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के प्रति कम करने का, वह राजनीतिक विचार है जो परिणाम को बदलने की क्षमता रखता है, जिसे रणनीतिक रूप से सामाजिक इंजीनियरिंग के जरिए हिंदुत्व के व्यापक ढांचे के भीतर चुनावी उद्देश्यों को पूरा करने के लिए अपनाया गया था और जो जातिगत उत्पीड़न और विभाजन की हक़ीक़त को दबा देता है और उच्च जाति के लोगों के वर्चस्व को बरकरार रखता है।

यूपी के एक प्रमुख ओबीसी नेता मौर्य, जिन्होंने उन छंदों के खिलाफ बात कही थी, राज्य के हनुमान गढ़ी के एक महंत ने उन पर कथित रूप से तब हमला किया था, जब वे लखनऊ में एक टीवी बहस में भाग ले रहे थे। मौर्य पर हमले को लेकर महंत से आक्रोशित और गुस्साए लोगों ने कथित तौर पर महंत को पीटना शुरू कर दिया था। इससे कुछ उच्च जाति के वे लोग नाराज हुए, जो सोचते थे कि महंत, जिन्हें आम तौर पर जातिगत भेदों से ऊपर रखा जाता है और लोग उनका बड़ा सम्मान करते हैं, उन्हे ओबीसी समुदाय के लोग कभी नहीं पीटेंगे।

1970 और 1980 के दशक में रामचरितमानस की आलोचना

क्या ऐसा पहली हुआ जब रामचरितमानस के कुछ छंदों के उनके कथित जातिवादी चरित्र के कारण लोगों ने "अवमानना" देखी और इसलिए उस सामग्री को लक्षित किया गया? इस महीने यूपी और बिहार में उन छंदों के खिलाफ हुआ बवाल अपनी तरह का पहला बवाल नहीं है। दशकों पहले भी, कई अन्य लोगों ने दलितों, शूद्रों और महिलाओं को "अपमानजनक" तरीके से चित्रित करने के लिए रामचरितमानस की आलोचना की थी। उदाहरण के लिए, रामस्वरूप वर्मा, जिन्होंने 1960 के दशक के अंत में सामाजिक समानता के लिए और ब्राह्मणवाद का विरोध करने के लिए अर्जक संघ की स्थापना की थी, और 1970 के दशक में शोषित समाज दल नामक एक पार्टी की स्थापना की थी। उन्होंने अपने समर्थकों से 14 अप्रैल, 1978 को भीमराव  अम्बेडकर की जयंती पर मनुस्मृति और रामचरितमानस की प्रतियां जलाने को कहा था, ताकि वे जातिगत पूर्वाग्रह को बनाए रखने और ब्राह्मणवाद को कायम रखने वाली इसकी कुछ सामग्री का विरोध कर सकें।

चार साल पहले 1974 में यूपी विधानसभा में विधायक रहे रामपाल सिंह ने विधानसभा के अंदर रामचरितमानस के पन्ने फाड़ दिए थे। यहां तक कि बहुजन समाज पार्टी के कांशीराम और मायावती ने मनुस्मृति और अन्य ग्रंथों के खिलाफ आलोचनात्मक आवाजें उठाई थीं,  जिन ग्रन्थों के कुछ हिस्सों में जाति पदानुक्रम में उन्हे नीचा दिखाने से यह “नाराज़गी” पैदा हुई थी। इसलिए, रामचरितमानस पर मौर्य और चंद्रशेखर की आलोचनात्मक टिप्पणियां 1970 और 1980 के दशक में वर्मा और अन्य द्वारा की गई टिप्पणियों को दर्शाती हैं।

रामचरितमानस पर गांधी की आलोचनात्मक टिप्पणी

यह ध्यान देने वाली बात है कि रामचरितमानस पर उपरोक्त तीखी टिप्पणियां भी महात्मा गांधी के विचारों को प्रतिबिंबित करती हैं। यह बात शायद कम ही लोग जानते हैं कि 106 साल पहले, यानी 1 फरवरी, 1917 को गांधी ने भोगिन्द्रराव दिवेतिया की पुस्तक “स्त्रियों अने समाजसेवा” की प्रस्तावना लिखी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि हमारे पुराने संस्कृत ग्रंथों की कुछ बातें, जो संस्कृत में एक प्रसिद्ध दोहा भी है और तुलसीदास की रामचरितमानस में दर्ज़ है कि "ढ़ोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी," जैसे छंद  समाज में महिलाओं की हीन स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं।

गांधी अक्सर हमारे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भगवान राम का नाम लेते थे और जोर देकर कहते थे कि वे एक सनातनी हिंदू हैं। इस पृष्ठभूमि में रामचरितमानस की उनकी  आलोचनात्मक अभिव्यक्ति अपने आप में महत्वपूर्ण है।

उस प्रस्तावना में उस छंद  के विरुद्ध आलोचनात्मक रुख अपनाते हुए गांधी ने खुद को तुलसीदास का भक्त बताया और कहा कि वे अंध भक्त नहीं है। हालांकि, उन्होंने सोचा कि दोहा एक प्रक्षेप हो सकता है, और जोड़ा "...यदि इसे वास्तव में तुलसीदास ने लिखा  है, तो उन्होंने इसे बिना सोचे समझे लिखा होगा, वह भी केवल प्रचलित दृष्टिकोण को व्यक्त करते हुए" उन्होने ऐसा किया होगा।

संस्कृत ग्रंथों में महिलाओं और बहिष्कृत लोगों को अपमानित करने वाले कुछ कथनों का जिक्र करते हुए, गांधी ने कहा कि लोगों ने उन कथनों को इस आधार पर उचित ठहराया कि संस्कृत में गढ़े गए वे छंद शास्त्रों से निकले हैं। उन्होंने उस झूठी धारणा से छुटकारा पाने और महिलाओं को हीन समझने वाले सदियों पुराने रवैये को नकारने की अपील की थी।

यह स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ ओबीसी नेताओं का यह कहना कि रामचरितमानस के कुछ छंद  महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों के मामले में  अपमानजनक हैं, 1917 में गांधी ने जो लिखा था, वह उसके समांतर चलने वाली ही बात है। रामचरितमानस पर उनकी टिप्पणी को समाज के प्रभावशाली वर्ग ने रामचरितमानस के केंद्रीय चरित्र, भगवान राम के खिलाफ माना। लेकिन उन्होंने स्पष्ट किया कि उनकी राम के प्रति श्रद्धा है और उनकी टिप्पणी केवल महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों पर किए गए अपमान की ओर इशारा करती है। दरअसल, मौर्य की आलोचनात्मक टिप्पणी की आलोचना करने पर समाजवादी पार्टी की दो महिला सदस्यों को निष्कासित कर दिया गया है। निष्कासन को पार्टी ने इस आधार पर उचित ठहराया कि राममनोहर लोहिया के लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समाजवादी आदर्शों का पालन किया गया है।

स्वामी विवेकानंद ने शूद्रों के उदय की भविष्यवाणी की थी

यह भी उल्लेखनीय है कि गांधी के शास्त्रों के कुछ छंदों और रामचरितमानस पर आलोचनात्मक रुख अपनाने से बहुत पहले, ये स्वामी विवेकानंद थे, जिन्होंने गहरी पीड़ा के साथ, हिंदू धर्म के भीतर शूद्रों के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार के बारे में लिखा था। 1893 में अमेरिका की अपनी ऐतिहासिक यात्रा से भारत लौटने के बाद, उन्हें कुछ तथाकथित समाज सुधारकों ने एक शूद्र के रूप में निंदनीय रूप से वर्णित किया था और कहा कि उन्हें एक सन्यासी, भिक्षु बनने का कोई हक़ नहीं है। यह कहते हुए कि यदि उन्हें शूद्र कहा जाता है तो उन्हें इसका बिल्कुल भी दुख नहीं होगा, उन्होंने इसे गरीबों पर अपने पूर्वजों के अत्याचार के खिलाफ एक छोटे से प्रतिशोध के रूप में व्याख्यायित किया था। ऐसा विवरण स्वामी विवेकानंद की पुस्तक, लेक्चर्स फ्रॉम कोलंबो टू अल्मोड़ा में उपलब्ध है, जो स्वामी विवेकानंद के समग्र कार्यों के खंड 3 का हिस्सा है।

उनके अनुसार, शूद्रों ने अपने परिश्रम और श्रम से समाज को अमूल्य सेवाएं प्रदान कीं और फिर भी उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान और शिक्षा तक पहुंच से वंचित रखा गया। 1899 में लिखे गए और स्वामी विवेकानंद के समग्र कार्यों के खंड 4 में प्रकाशित अपने लेख "मॉडर्न इंडिया" में उन्होंने लिखा था: "और वे (शूद्र) कहां हैं जिनके शारीरिक श्रम से, केवल ब्राह्मण का प्रभाव क्षत्रिय का पराक्रम और वैश्य का भाग्य संभव हुआ है?” उन्होंने पूछा: "उनका इतिहास क्या है, जो समाज की वास्तविक ताक़त होने के बावजूद, जिन्हे हर समय सभी देशों में "हीन जन्म" वाला माना जाता है? - जिनके लिए भारत ने एक दयालु सजा मुकर्रर कि है’ कि यदि वे ज्ञान और बुद्धि पाने की कोशिश करते हैं तो यह गंभीर अपराध है और इसके लिए "उनकी जीभ काट देनी चाहिए, उन्हे खत्म कर देना चाहिए", उनका मानना है जो ज्ञान और बुद्धि पर जाति के उच्च वर्ग का एकाधिकार मानते हैं।” वेदना के साथ, उन्होंने शूद्रों को भारत की "चलती-फिरती लाशें" और "बोझ ढोने वाले जानवर" के रूप में वर्णित किया और बताया कि"...उनका जीवन क्या है?"

स्वामी विवेकानंद की पुस्तक लेक्चर्स फ्रॉम कोलंबो टू अल्मोड़ा के हिस्से के तौर पर, "द फ्यूचर ऑफ इंडिया" पर अपने व्याख्यान में उन्होंने कहा कि: "ऐसी किताबें हैं जहां आप इस तरह के उग्र शब्दों को पढ़ सकते हैं: "यदि शूद्र वेदों को सुनते हैं, तो उनके कान में पिघला हुआ शीशा डाल दें, और यदि उसे वेदों की कोई पंक्ति भी याद है तो उसकी जीभ काट देनी चाहिए। नि:संदेह यह एक शैतानी प्राचीन बर्बरता है।”

स्वामी विवेकानंद की उन टिप्पणियों ने मनुस्मृति के कुछ प्रावधानों की ओर इशारा किया, जिसमें शूद्रों को जाति के मानदंडों का उल्लंघन करने के लिए क्रूर दंडात्मक उपाय निर्धारित किए गए थे, जो उन्हें शिक्षा और आध्यात्मिक ज्ञान हासिल करने से रोकते थे।

वास्तव में, स्वामी विवेकानंद के उपरोक्त लेखन में मौजूद अर्थ और संदेश रामचरितमानस के कुछ छंदों पर मौर्य और चंद्रशेखर की आलोचनात्मक टिप्पणी में प्रतिध्वनित होते हैं।

उपर्युक्त लेख, "मॉडर्न इंडिया" में, स्वामी विवेकानंद ने विवेकपूर्ण ढंग से लिखा था कि:

"फिर भी, एक वक़्त आएगा जब शूद्र वर्ग जागरूक होगा, और शूद्र-पहचान के साथ ऐसा होगा..." उन्होंने समझाया कि वे भी महान बनेंगे और "वैश्य या क्षत्रिय के चारित्रिक गुणों को हासिल करके" उनका वर्चस्व खत्म करेंगे। लेकिन "अपने जन्मजात शूद्र स्वभाव और आदतों के साथ" वे ऐसा करेंगे। उन्होंने तब कहा था कि समाजवाद का आदर्श उनकी मझदार होगी जिस पर सवार होकर यह बदलाव आएगा और सामाजिक क्रांति की शुरुआत होगी। वास्तव में यह भविष्यवाणी वाले शब्द थे!

रामचरितमानस के छंदों पर सवाल उठाना गैर-दलित ओबीसी को एकजुट करने की दिशा में एक कदम है, ताकि वे व्यापक हिंदुत्व ढांचे से मुक्त हो सकें। हमें इंतजार करना होगा और देखना होगा कि इन राजनीतिक लक्ष्यों को किस हद तक हासिल किया जा सकता है। परिणाम जो भी हो, रामचरितमानस पर ये आलोचनात्मक टिप्पणी स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी ने क्रमशः 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के दूसरे दशक में जो कुछ लिखा था, उसके बारे में विचारोत्तेजक हैं। इसके जरिए समानता, समान अवसर और सम्मान के लिए संघर्ष को निरंतर आगे बढ़ाया जा रहा है।

लेखक, भारत के राष्ट्रपति के॰आर॰ नारायणन के ऑफिसर ऑन ड्यूटी थे। विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें :

Critical Remarks on Ramcharitmanas Mirror Thoughts of Vivekananda, Gandhi

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