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म्यूनिख : अमेरिका-ईरान की जटिल समस्या ख़त्म करने का काम

इस बीच ईरान ने अमेरिकी ठिकानों पर भारी तबाही मचाने की अपनी क्षमता को सिद्ध करने के साथ-साथ अपने रणनीतिक संयम को भी दर्शाने का काम किया है।
Cutting the US-Iran
15 फ़रवरी 2020 को म्यूनिख, जर्मनी में भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ‘रचनात्मक मुखर राष्ट्रवाद’ विषय पर वार्षिक म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन को संबोधित करते हुए।

भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने वार्षिक म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन (14-16 फ़रवरी) के मंच को नई विश्व व्यवस्था के रूप में राष्ट्रवाद को परिभाषित करने के रूप में चुना, जिसमें बताया कि यह क़ानूनी तौर पर वैध होने के साथ-साथ रचनात्मक और मुखर है। इसका उद्देश्य संभवत: पश्चिम की दृष्टि के लिए भारत की हिंदू राष्ट्रवादी सरकार की छवि को झाड़-पोंछकर एक इष्टतम राजनयिक पहुँच बनाने के रूप में था। फिर भी उनके पास यदि इतिहास की समझ होती तो उम्मीद की जानी चाहिए कि, इसे साबित करने के लिए चुनाव के रूप में जयशंकर के पास म्यूनिख को ही चुनने की विडम्बना शायद न होती।

लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, सम्मेलन की विशिष्टता इसके साथ-साथ चलने वाली उपयोगी परामर्शों में नजर आती है। सम्मेलन की शुरुआत एक उत्साहित करने वाले समाचार से हुई, जिसमें बताया गया कि अमेरिका और तालिबान के बीच में एक सीमित समझौता हो गया है, और आशा है इसके चलते अफ़ग़ानिस्तान में हिंसा की मात्रा में कमी आने की उम्मीद है।

इस वर्ष म्यूनिख में हो रहे समारोह को लेकर एक बेहद दिलचस्प शीर्षक दिया जा सकता है: 'वेस्टलेसनेस' - संभवतः जिस प्रकार से पश्चिमी देश खुद को उजागर कर रहे हैं।

समाचार एजेंसी सिन्हुआ ने अपनी एक समीक्षा में म्यूनिख सम्मेलन को चार प्रमुख मुद्दों के साथ सूचीबद्ध किया है: नॉर्ड स्ट्रीम 2, ईरान-अमेरिका टकराव, लीबिया और देशव्यापी कोरोनवायरस। और वास्तविक अर्थों में कहें तो यही वे 'ज्वलंत मुद्दे' हैं, जिन पर वार्ता होनी चाहिए।

नॉर्ड स्ट्रीम 2 गैस पाइपलाइन परियोजना के बारे में जो भी निर्णायक पहलू हैं उसके लिए कमोबेश पूरी तरह से अमेरिका ज़िम्मेदार है, जिसने इस परियोजना को लेकर यूरोपीय कंपनियों के ख़िलाफ़ प्रतिबंधों की धमकी दे रखी है। लेकिन वास्तविकता में यह परियोजना पहले से ही अपने अंतिम चरण में प्रवेश कर चुकी है, और इसे सम्पन्न करना अब रूसियों के हाथ में है। सवाल ये है कि एक तो अमेरिकी प्रतिबंधों का प्रस्ताव ही अपने आप में आधा-अधूरा रहा, जिसका मुख्य उद्देश्य यूरोप में अपने खुद के गैस के निर्यात को लेकर रहा है।

आज यूरोपीय ताक़तों के लिए लीबिया से सम्बन्धित प्रवासी/शरणार्थी संकट से बेहद चतुराई से निपटने का काम सबसे महत्वपूर्ण है। इसके बारे में इससे ज्यादा स्पष्ट और कुछ नहीं हो सकता है कि आज जर्मनी का राजनीतिक केंद्र अपनी बेहद कमजोर स्थिति में है, जबकि एक निर्णायक क्षण वो भी था जिसे याद करें चांसलर एंजेला मर्केल के 2015 के फ़ैसले को, जिसमें अफ़्रीका और मध्य पूर्व से भाग कर आ रहे शरणार्थियों के लिए देश की सीमाओं को बंद नहीं करने का निर्णय लिया गया था।

इसमें कोई शक नहीं कि इनके लिए लीबिया भी एक बेहद महत्वपूर्ण तेल उत्पादक देश रहा है। लेकिन लीबिया संकट के समाधान के प्रश्न पर फ्रांस, इटली और जर्मनी जैसी तीनों प्रमुख यूरोपीय शक्तियाँ एकमत नहीं हैं। वहीं दूसरी ओर अमेरिका किनारे पर खड़े-खड़े अपनी पैनी निगाह बनाए हुए है और अपनी सैन्य ताक़त की शक्ति के संचरण में लगा हुआ है, जब तक कि लीबिया में चल रही भ्रातृत्व युद्ध में कोई एक पक्ष त्रिपोली में अपनी सरकार स्थापित न कर ले और बेंगाजी खलीफ़ा हफ्तार से यह बढ़त हड़प न ले। इसके बारे में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि सीरिया सरीखा भू-राजनीतिक संघर्ष का अनवरत चलने वाला नज़ारा लीबिया से भी उभर कर दृष्टिगोचर हो रहा है। उम्मीद करते हैं कि म्यूनिख सम्मेलन का मेज़बान देश होने के नाते जर्मनी, संयुक्त रूप से लीबिया पर अपनी पहलक़दमी लेगा।

स्पष्ट तौर पर दिख रहा है कि अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के लिए कोरोनावायरस एक गर्मागर्म मुद्दा नहीं बन पाया है। उम्मीद है कि म्यूनिख सम्मेलन में चीनी पार्षद और विदेश मंत्री वांग यी का ध्यान "चीनी सरकार और वहाँ के लोगों द्वारा लिए गए ठोस प्रयासों और इस महामारी से लड़ने में प्रगति के बारे में होना चाहिए और इसके ख़िलाफ़ अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को आगे बढ़ाने की उम्मीद करनी चाहिए।"

हालाँकि अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनज़र आज के लिए सबसे विस्फोटक मुद्दा ईरान के आसपास की स्थिति को लेकर बना हुआ है। इसके लिए म्यूनिख में ईरान, अमेरिका, ई-3 देशों, रूस और चीन के विदेश मंत्रियों की उपस्थिति एक दुर्लभ अवसर के रूप में बन जाती है। बेशक अमेरिका-ईरान वार्ता को लेकर यहाँ पर कोई बात नहीं कर रहा है। लेकिन उस चौखट के नीचे ना ही कोई पक्ष इस संघर्ष के क़ाबू से बाहर हो जाने के खतरे को मोल लेने को ही तैयार है। जेसीपीओए को बचाने के लिए यह एक अवसर प्रदान करता है।

यह परिदृश्य स्टिफटुंग विस्सेनस्चाफ्ट उंड पोलीटिक के चेयरमैन और डायरेक्टर, जर्मन इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल एंड सिक्योरिटी अफेयर्स के वोल्कर पर्थेस की ओर से लिखी हुई इबारत जिसका शीर्षक है टुवर्ड अ न्यू ईरान न्यूक्लियर डील, की ओर सबका ध्यान आकर्षित करता है जो एक प्रभावशाली थिंक टैंकर और रणनीतिकार के रूप में स्थापित हैं।

पर्थेस की थीसिस का क्रियाशील हिस्सा यह है कि "जेसीपीओए के पश्चात की व्यवस्था पर विचार करने की आवश्यकता है" ;  जिसे सीधे शब्दों में कहें तो ईरान परमाणु कार्यक्रम पर 2015 के मील के पत्थर के रूप में याद किये जाने वाले क़रार से परे जाकर एक दीर्घकालिक ढांचे को लेकर विचार-विमर्श की आवश्यकता है।

अपने आशावादी रुख में पर्थेस सतर्क नज़र आते हैं, उनकी नज़र में खाड़ी में जो क्षेत्रीय गतिशीलता नज़र आ रही है, वह रचनात्मक वार्ता के आयोजन के लिए अनुकूल बनी हुई है। देर से ही सही लेकिन संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब को आज इस बात का अहसास हो रहा है कि ईरान में एक सैन्य संघर्ष को बढ़ाने का अर्थ है बड़े पैमाने पर सर्वनाशी विनाश के स्तर पर ले जाना, जिसमें वे भी भुक्तभोगी होने जा रहे हैं। इस बारे में तालमेल के प्रारंभिक संकेत भी (सऊदी अरब और क़तर के बीच, संयुक्त अरब अमीरात और ईरान, सऊदी अरब और हौथिस और यहाँ तक कि पिछले दरवाज़े से सऊदी-ईरानी सम्बन्धों) देखने को मिल रहे हैं। 

और महत्वपूर्ण रूप से पर्थेस की भूमिका पश्चिमी नीति निर्धारण के लूप में बने रहने की बनी हुई है, और उनका अनुमान है कि अमेरिका और ईरान के बीच कूटनीतिक जुड़ाव के कुछ रूप अभी भी बोधगम्य हैं, जिनके बारे में विचार किया जा सकता है। इसे सम्पन्न कराने के लिए यूरोपीय सरकारें सूत्रधार की भूमिका निभा सकती हैं।

इस सिलसिले में वे याद करते हैं कि राष्ट्रपति ट्रंप ने एक बार एक यूरोपीय क्रेडिट लाइन पर फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रोन की पहल का समर्थन किया था ताकि ईरान के आर्थिक संकट (जिसे वाशिंगटन और तेहरान में बैठे कट्टरपंथियों ने नाकाम कर दिया था) को कम करने में मदद मिल सके।

पर्थेस लिखते हैं कि जेसीपीओए के "सूर्यास्त वाले अनुच्छेद" की मीयाद एक बार ख़त्म होने के बाद...’’ किसी भी "दूरगामी वार्ता को ईरान की परमाणु गतिविधियों पर भविष्य की स्वैच्छिक सीमाओं के लिए समय और प्रावधानों पर ध्यान केंद्रित कर सकती है। और इसके लिए अमेरिकी कानून निर्माताओं की प्रमुख चिंताओं को संबोधित करने की आवश्यकता पड़ेगी, जैसा कि ईरान की प्रतिबद्धताओं की दीर्घायु बनाए रखने जिसको लेकर ईरानी अधिकारियों ने इस बात के संकेत दिए हैं कि वे वार्ता को लेकर तैयार हैं। बशर्ते कुछ शर्तों के साथ, ख़ासतौर पर यदि "आर्थिक संघर्ष विराम"  की शर्त को मान लिया जाता है।"

दिलचस्प बात यह है कि पर्थेस इस बात की और इशारा करते हैं कि क्षेत्रीय संदर्भ में जो अन्य विवादास्पद मामले बने हुये हैं, उन्हें भी सुलझाने की पहल ली जा सकती है। जैसे कि "संप्रभुता, सुरक्षा और सुरक्षा से संबंधित अन्य मुद्दे, वो चाहे छद्म उग्रवाद को हथियारबंद करने का सवाल हो, मिसाइल प्रसार या जलमार्ग की सुरक्षा जैसे मुद्दे हों।"

वे कहते हैं कि सुरक्षा और सहयोग के मुद्दे पर विश्वास-बहाली को लेकर क्षेत्रीय सम्मेलन के आयोजन के रूप में एक समानांतर ट्रैक बनाए जाने की आवश्यकता है। यह विचार लुभावने रूप से रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के पिछले जुलाई के प्रस्ताव के बेहद क़रीब ले जाता है, जिसमें उनका प्रस्ताव था कि "मूल रूप से क्षेत्र में सुरक्षा और सहयोग के लिए एक संगठन स्थापित करने के लिए किये जाने वाले काम को ज़मीनी स्तर पर करना होगा। इसमें खाड़ी के देशों को शामिल करना होगा, और पर्यवेक्षक के तौर पर इसमें रूस, चीन, अमेरिका, यूरोपीय संघ, भारत और अन्य इच्छुक देशों को शामिल किया जा सकता है।”

बेशक, पिछले जुलाई के बाद से बहुत कुछ ऐसा हुआ है जो नकारात्मक पक्ष को दर्शाता है, लेकिन ईरानी जनरल कासिम सोलेमानी की हत्या भी इस सच्चाई का क्षण बन चुकी है। ईरान ने अमेरिकी ठिकानों को भारी नुकसान पहुंचाने की अपनी क्षमता का परिचय देने के साथ-साथ रणनीतिक संयम के प्रति अपनी प्राथमिकता को भी प्रदर्शित किया है, जबकि अमेरिका अपनी अधिक से अधिक दबाव वाली रणनीति की बढ़-चढ़कर डींगें हाँकने वाली संभावना को सिर्फ़ घूरने के लिए लाचार है।

सौजन्य: इण्डियन पंचलाइन

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