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डी.लिट विवाद : आख़िर इंद्रेश कुमार का शिक्षा या समाज के क्षेत्र में क्या विशेष योगदान है?

आरएसएस नेता इंद्रेश कुमार को ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती उर्दू अरबी-फारसी विश्वविद्यालय की ओर से डी.लिट की उपाधि दिए जाने पर नागरिक समाज ने खड़े किए सवाल। लखनऊ से विशेष रिपोर्ट :-
D.Litt controversy

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती उर्दू अरबी-फारसी विश्वविद्यालय में आरएसएस नेता इंद्रेश कुमार को डी.लिट की मानद उपाधि देने पर बौद्धिक नागरिक समाज ने प्रश्न किया है। प्रश्न यही है कि इंद्रेश कुमार ने शिक्षा या समाज के क्षेत्र में ऐसा कौन सा योगदान किया है जिसके आधार पर उनको डी.लिट की मानद उपाधि दी गई है। वहीं राज्यपाल आनंदीबेन पटेल के भाषण पर चर्चा हो रही है, कि उनके द्वारा विश्वविद्यालय के नाम से “उर्दू अरबी-फारसी” शब्द हटाने की बात करने का क्या अर्थ है।

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आपको बता दें कि ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती उर्दू, अरबी-फारसी विश्वविद्यालय ने अपने दीक्षांत समारोह में 21 नवंबर को आरएसएस के वरिष्ठ प्रचारक व मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संरक्षक इंद्रेश कुमार के साथ नदवा कॉलेज के प्राचार्य डॉ. सईदुर्रहमान आज़़मी को डी-लिट की मानद उपाधि दी है। इसके अलावा शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे जव्वाद  नक़वी और स्वामी सारंग को पीएचडी की मानद उपाधि भी दी है।
विश्वविद्यालय के इस चौथे दीक्षांत समारोह में शिक्षकों और छात्रों को प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने भी सम्बोधित किया। राज्यपाल ने कहा की जो शिक्षा अन्य विश्वविद्यालयों में दी जाती है, वही ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती उर्दू अरबी फारसी विवि द्वारा दी जा रही है। इसलिए तीन भाषाओं (उर्दू, अरबी और फारसी) के आधार पर नाम न होकर विवि का नाम ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती विश्वविद्यालय होना चाहिए। इस मौक़े पर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री डॉ दिनेश शर्मा भी उपस्थित थे।

शिक्षा व अन्य बौद्धिक क्षेत्रों में जुड़े लोगों ने इस पूरे मामले में बेहद गंभीर प्रश्न खड़े किए हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व-उप-कुलपति डॉ. रूपरेखा वर्मा कहती हैं, कि न मालूम कौन से मजबूरी थी की एक शिक्षा संस्थान ने समाज में साम्प्रदायिकता फैलाने के आरोपी एक व्यक्ति को डी.लिट की उपाधि हैं। उन्होंने कहा कि इंद्रेश कुमार को उपाधि देना शिक्षा का अपमान और महा पाप है। डॉ. रूप रेखा वर्मा कहती है आरएसएस प्रचारक को उपाधि देकर ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती उर्दू अरबी-फारसी विश्वविद्यालय ने सरकार को ख़ुश करने की कोशिश की है।

विश्वविद्यालय के नाम में से उर्दू अरबी-फारसी हटाए जाने की राज्यपाल के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने कहा कि वह भी उसी पृष्ठभूमि से आती हैं जहाँ कहा जाता है कि उर्दू के शब्दों को और प्रेमचंद को पाठक्रम से हटा दिया जाये। इसी लिए उनको विश्वविद्यालय के नाम के साथ उर्दू अरबी-फारसी उचित नहीं लग रहा है।

प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफ़ेसर इरफ़ान हबीब कहते हैं कि किसी को उपाधि आदि देने से पहले देखना चाहिए है कि वह किस पृष्ठभूमि से आता है। प्रोफ़ेसर इरफ़ान हबीब पूछते हैं की इंद्रेश कुमार ने कौन सा ऐसा योगदान समाज या शिक्षा के क्षेत्र में दिया है कि उनको उपाधि दी गई है?

शिक्षा जगत से लम्बे समय तक जुड़े रहने वाले मानते हैं की सत्ता पक्ष को ख़ुश करने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन से संघ से जुड़े एक व्यक्ति को उपाधि दी है।

लखनऊ विश्वविद्यालय के  मानव-शास्त्र विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर नदीम हसनैन कहते कि इस तरह की उपाधियाँ सत्ता पक्ष से फ़ायदा उठाने के लिए दी जाती हैं। वह कहते हैं कि विश्वविद्यालय “शिक्षा और ज्ञान हासिल करने का स्थान है, वह समाज के बांटने वालों के लिए कोई स्थान नहीं है।" उनका कहना है कि इंद्रेश कुमार को उपाधि देने से पहले विश्वविद्यालय को उनके अतीत पर भी एक नज़र डालना चाहिए थी।

"उर्दू अरबी-फारसी" विश्वविद्यालय के नाम से हटाने पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि आज कल नाम बदलने का प्रचलन हो गया है। विश्वविद्यालय क्या बड़े-बड़े प्राचीन शहरों के नाम बदले जा रहे हैं। आज केवल “उर्दू-अरबी-फारसी” हटाने को कहा है, भविष्य में ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का नाम हटाने को कहा जायेगा।

केवल शिक्षा जगत नहीं, बल्कि नागरिक समाज भी आरएसएस प्रचारक को डी-लिट की उपाधि दिए जाने पर विश्वविद्यालय से प्रश्न कर रहा है। मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पाण्डेय कहते हैं देश के विश्वविद्यालयो से आरएसएस या उसकी सोच से जुड़े लोगों द्वारा सीधे हस्तक्षेप कर अकादमिक गुणवत्ता के साथ छेड़-छाड़ की गम्भीर खबरें मिल रही हैं। उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय प्रशासन से प्रश्न किया जाना चाहिए कि संघ प्रचारक इंद्रेश कुमार ने समाज में ऐसा कौन सा योगदान दिया है कि उन्हें मानद डी.लिट.की उपाधि दी गई है?

ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती उर्दू अरबी-फारसी विश्वविद्यालय का कहना है कि आरएसएस प्रचारक इंद्रेश कुमार को उपाधि राज्यपाल की स्वीकृति के बाद दी गई है। विश्वविद्यालय के उप-कुलपति प्रो. माहरूख मिर्ज़ा ने बताया कि पहले डी-लिट या पीएचडी कि उपाधि के लिए प्रस्तावित नामों पर विश्वविद्यालय प्रशासन और 12 सदस्यों की एक का बोर्ड विचार करता है। जिसके बाद चुने गये नामों को राज्यपाल की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है।

प्रो. माहरूख मिर्ज़ा ने बताया कि आरएसएस प्रचारक इंद्रेश कुमार को भी डी-लिट कि उपाधि राज्यपाल की स्वीकृति के बाद दी गई है। जब उनसे पूछा कि इंद्रेश कुमार का नाम किस आधार पर राजभवन भेजा गया? उन्होंने उत्तर दिया वह एक पढ़े लिखे इंसान हैं- वैसे हो सकता है हमने जो गुण देखे हैं, वह दूसरों को संतुष्ट न करें-इस लिए हर प्रश्न का जवाब देना संभव नहीं है।

इंद्रेश कुमार को लेकर आपत्तियां

ऐसा नहीं है कि इंद्रेश कुमार आरएसएस के नेता हैं केवल इसलिए उनका विरोध हो रहा है। दरअसल उनके ऊपर गंभीर आरोप रहा है।
आपको बता दें कि राजस्थान में अजमेर स्थित ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की मज़ार पर 11 अक्टूबर, 2007 को बम ब्लास्ट हुआ था। जिसमें 3 लोगों की मौत हो गई थी और क़रीब 15 लोग घायल हुए थे। विस्फोट के बाद राजस्थान पुलिस को तलाशी के दौरान लावारिस एक बैग मिला था, जिसमें टाइमर लगा जिंदा बम मिला था। इस मामले की जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंप दी गई थी। जिसने 13 लोगों को धमाके का दोषी पाया था।

यूपीए-1 सरकार के दौरान जाँच में इंद्रेश कुमार का नाम भी इस मामले में सामने आने से राजनीति गर्मा गई थी। लेकिन एनआईए ने तीन अप्रैल, 2017 को अपनी क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करते हुए इंद्रेश कुमार समेत 4 लोगों को क्लीन चिट दे दी। जाँच एजेंसी ने कहा कि इन लोगों के खिलाफ केस चलाने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं मिल सके हैं। इस समय इंद्रेश कुमार आरआरएस प्रचारक के साथ संघ से संबद्ध  संस्था मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संरक्षक भी हैं।

इसके अलावा मौलाना कल्बे जव्वाद भी काफी समय से भाजपा से अपने सम्बंधो को लेकर चर्चा में हैं। शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे जव्वाद नक़वी ने लोकसभा चुनावों 2019 में लखनऊ से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार राजनाथ सिंह के समर्थन में अपील भी की थी। 

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