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हमें सम्मान से जीने नहीं देती है ये जाति!

इस दमन-चक्र को रोकने के लिए लोकतांत्रिक दायरे में रहकर ही कोई राह निकालनी जरूरी है। विचार-विमर्श जरूरी है। इस पूरे परिदृश्य के मद्देनज़र आइए विचार करें कि किस तरह दलित भेदभाव मुक्त, उत्पीड़न मुक्त जीवन जी सकते हैं।
Dalit lives matter
प्रतीकात्मक फोटो। साभार : India Today

हमारे लोकतान्त्रिक देश में जिस तरह से दलितों पर दबंगों द्वारा बेख़ौफ़ होकर अत्याचार किए जा रहे हैं वे लोकतंत्र पर खुद सवालिया निशान लगा रहे हैं कि ये लोकतंत्र है या तानाशाही? इस इक्कीसवी सदी में भी जाति के नाम पर दलितों पर जुल्म का सिलसिला जारी है। आखिर क्यों? कब और कैसे रुकेगा ये दलित दमन का सिलसिला? इस पर विचार करना जरूरी है।

इस दमन-चक्र को रोकने के लिए लोकतांत्रिक दायरे में रहकर ही कोई राह निकालनी जरूरी है। विचार-विमर्श जरूरी है। इस पूरे परिदृश्य के मद्देनज़र आइए विचार करें कि किस तरह दलित भेदभाव मुक्त, उत्पीड़न मुक्त जीवन जी सकते हैं।

अगर हम वर्चस्वशाली दबंग जातियों द्वारा दलितों यानी अनुसूचित जाति पर ढाए गए जुल्मों की फेहरिस्त बनाएं तो पेज-दर-पेज भरते चले जाएंगे और उनका अंत नहीं होगा। कुछ उदहारण तो ऐसे ही जुबान पर आ जाते हैं जैसे हरियाणा का गौहाना हो, मिर्चपुर हो, महाराष्ट्र का खैरलांजी हो, गुजरात का ऊना हो, बिहार का बक्सर हो, उत्तर प्रदेश का हाथरस हो, बलरामपुर हो... कितने नाम लें। पूरे देश के दलित, दबंग जातियों के अत्याचार से पीड़ित हैं।

आए दिन दलित महिलाओं को नग्न कर गाँव में घुमाया जाता है, उनसे बलात्कार किया जाता है। आत्म-सम्मान की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। दलितों का  घोड़ी चढ़ना, मूंछे रखना, किसी काम के लिए मना करना, गरबा देखना, फसल कटाई के लिए मना करने तक पर बेरहमी से पिटाई  की जाती है। आँखें फोड़ देना, हाथ काट देना,  पेशाब पीने के लिए मजबूर करना आदि अनेक ऐसी घटनाएं हैं जो आजीवन भुलाई नहीं जा सकती।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ताज़ा रिपोर्ट ही देखें तो सबकुछ साफ हो जाता है। रिपोर्ट के मुताबिक राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जाति के लोगों के खिलाफ अपराध में साल 2019 में सात फीसदी से अधिक की वृद्धि हुई है। इसी रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में दलित महिलाओं के साथ बलात्कार के कुल 3,486 मामले दर्ज किए गए। यानी हर रोज दलितों की कम से कम 9 महिलाओं के साथ बलात्कार होता है।

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इन सब विषय पर मैंने कई दलितों से बात की। लोगों ने अपने-अपने अनुभव और समाधान बताए।

जी करता है कि उनसे पूछूं - आख़िर तुम्हारे मन में इतनी नफ़रत आती कहाँ से है?

दिल्ली में एक निजी कम्पनी में काम करने वाले 50 वर्षीय अशोक सागर कहते हैं कि जब से हाथरस के बूलगढ़ी बेटी का प्रकरण हुआ है तब से दलितों के सामाजिक संगठन जागरूक हुए हैं। ये संगठन अब एकता का महत्व समझने लगे हैं। अगर ऐसी ही एकता दलित दिखाएं तो दबंगों की जल्दी हिम्मत नहीं होगी कि वे किसी बर्बर वारदात को अंजाम दें।

वह कहते हैं, “कई बार मेरे मन में विचार आता है कि वर्चस्वशाली जातियों में इतनी नफरत कहाँ से आती है कि वे दलितों के साथ इंसान की बजाय दरिंदो की तरह पेश आते हैं। कौन भरता है उनके दिमाग में इतनी नफरत इतना जहर। क्यों होता है उनके अन्दर इतना अहम् भाव, इतना ईगो। क्या विरासत में मिली मनुस्मृति उन पर इतनी हावी हो जाती है कि वे देश के संविधान को भूल जाते हैं। मनुस्मृति को ही अपना संविधान मानने लगते हैं।”

अशोक कहते हैं- “मुझे लगता है कि हम दलितों पर अत्याचार तभी रुकेंगे जब हम अधिक से अधिक संख्या में पॉवर में होंगे। हम लोगों का बड़ी संख्या में राजनीति में आना बेहद जरूरी है। जब सता में हमारी मेजोरिटी होगी तो हम दलितों पर अत्याचार करने से पहले अत्याचारी दस बार सोचेंगे।”

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इस जाति में जन्म लेना ही अपराध हो जैसे 

मध्य प्रदेश के पन्ना जिले के राजा करोसिया (40) कहते हैं, “मैंने बचपन से ही जाति का दंश सहा है। जब मैं अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान शिक्षकों से ट्यूशन पढ़ाने को कहता था तो वे मुझे मेरी जाति के कारण टयूशन नहीं पढ़ाते थे क्योंकि मैं अछूत जाति से था। मैं उच्च जाति के बच्चों के साथ नहीं बैठ सकता था। फिर एक दलित जाति के टीचर से मैंने ट्यूशन पढ़ाने को कहा तो वे राजी हो गए और मैं उनके यहां ट्यूशन पढने जाने लगा। लेकिन दो-तीन दिन बाद ही उन्होंने भी मना कर दिया क्योंकि उनके पास जो उच्च जाति के बच्चे पढ़ते थे उन्होंने मेरे साथ पढ़ने से मना कर दिया था। उन्होंने स्पष्ट कह दिया था कि अगर आप राजा को पढ़ाओगे तो हम नहीं पढेंगे। क्योंकि वह नीच जाति से है।”

“इस तरह का अनेक बार मेरे साथ जातिगत भेदभाव हुआ। तब मुझे लगता कि इस जाति में जन्म लेना ही अपराध है। अगर इस जाति में जन्म ले लिया तो जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी न किसी प्रकार का भेदभाव सहना पढ़ेगा। पर किस जाति में जन्म लेना है यह कहाँ हमारे वश में होता है।

पर अब मैं जागरूक हो गया हूँ। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के विचारों से अवगत हो गया हूँ। अब मुझे लगता है कि इस जातिवाद से डरने की नहीं लड़ने की जरूरत है। अगर हम आर्थिक रूप से मजबूत यानी समृद्ध  हो जाएं। उच्च शिक्षित हो जाएं। गैर सफाई इज्जतदार पेशे से अपनी आजीविका कमाने लगें। अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो जाएं। दलित आपस में मिलकर रहने लगें तो परिदृश्य बदलेगा। फिर इनकी हिम्मत नहीं होगी हमारी ओर आँख उठाकर देखने की। अभी तो ये हमारी गरीबी, कमजोरी और मजबूरी का फायदा उठाते हैं।”

हमें सम्मान से जीने नहीं देती है ये जाति

दिल्ली में कोठियों में झाड़ू-पोछे का काम करने वाली विनीता वाल्मीकि (35) कहती हैं कि इस जाति के होने के कारण हमें इज्जत-सम्मान नहीं मिलता। लोग काम भी बताएंगे तो झाड़ू-पोछा जैसा सफाई का काम ही बताएंगे। जैसे हमारे नसीब में सफाई का काम करना ही लिखा हो। ऊंची जाति के मकान मालिक हमारी जाति जानने पर कमरा किराए पर नहीं देते। कई बार हमें अपनी जाति छुपानी पड़ती है।

अब सोचती हूँ कि बच्चे पढ़ लिख कर कोई इज्जत का काम करें तब भले हमें इज्जत से जीने को मिले।

तरक़्क़ी का रास्ता रोके खड़ा है जाति का राक्षस

मध्य प्रदेश के सागर के रहने वाले जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता पवन बाल्मीकि (45) कहते हैं कि अगर हम कोई इज्जतदार पेशा अपनाना भी चाहें तो वर्चस्वशाली जाति के लोग हमें उस पेशे में सफल नहीं होने देते। अगर हम कुछ सामान बेचने का बिजनेस करें तो अपने को उच्च समझने वाली जातियों के लोग हम से सामान नहीं खरीदेंगे। और किसी न किसी तरह ऐसे हालात क्रिएट कर देंगे कि आप को अपना बिजनेस बंद करना पड़ेगा। अगर आप उच्च जाति की कालोनी में कमरा किराये पर लेने जायेंगे तो आपको दलित होने के कारण कमरा किराये पर नहीं मिलेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि आप अगर अपनी मेहनत से तरक्की करना भी चाहें तो जाति का राक्षस आपका रास्ता रोके खड़ा मिलेगा।

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पवन कहते हैं कि अब सवाल है कि दबंग जातियों के अत्याचारों से कैसे मुक्ति मिलेगी? सबसे पहले तो हमें उच्च शिक्षित होना होगा। दूसरी बात है कानून का जानकार बनना होगा। हमारे पास एससी/एसटी एक्ट है, एमएस एक्ट है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश है। इनकी भलीभांति जानकारी होने चाहिए। आईपीसी का ज्ञान हो तो और भी अच्छा है। मानव अधिकारों की जानकारी होनी चाहिए। संविधान का ज्ञान होना चाहिए। आर्थिक समृद्धि सामाजिक संगठनों से जुड़ा होना चाहिए। जब हम इतने सक्षम हो जाएं कि दबंगों की ईंट का जवाब पत्थर से दे सकें तो किसी की हिम्मत नहीं होगी कि हम पर अत्याचार कर सके।

एक अभिशाप है जाति

मध्य प्रदेश रानीगंज की रविता डोम (30) कहती हैं कि हमारे लिए जाति किसी अभिशाप से कम नहीं है। एक तो इस जाति में मैला ढोने का काम करना पड़ता है। इससे लोग हम से छुआछात  मानते हैं। दुकानदार दूर से सामान देते हैं। स्कूल में हमारे बच्चों से बड़ी जाति के बच्चे भेदभाव करते हैं। बड़ी जाति के लोग गाली-गलौज और बदतमीजी से बोलते हैं। यह सब बहुत बुरा लगता है। सोचते हैं कि अगर हमारी कोई इज्जतदार पेशे में आजीविका हो जाए तो ये काम छोड़ दें और बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाएं। जब हमारे बच्चे पद्लिख कर कोई अच्छा काम करेंगे तब भले हमें इस भेदभाव से छुटकारा मिलेगा।

निष्कर्ष यह है कि वर्चस्वशाली और दबंग लोग तब तक दलित और कमजोर वर्ग पर अत्याचार करते हैं जब तक दलित गरीब और कमजोर रहेंगे। समृद्ध और सशक्त होने से उन पर अत्याचार करना मुश्किल हो जाएगा। क़ुरबानी बकरे की दी जाती है शेर की नहीं। इसलिए जब दलित आर्थिक रूप से, सामाजिक रूप से और राजनीतिक रूप से मजबूत हो जाएंगे तो उन पर होने वाले अत्याचारों का भी अंत हो जाएगा। पर ये सब होना क्या इतना आसान है? जी नहीं, इसके लिए एक लम्बा संघर्ष करना होगा। फिलहाल मंजिल दूर है।

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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