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केरल के आईने में दलित-कम्युनिस्ट आंदोलन

लेखक ने इस किताब के लिए इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र व अर्थशास्त्र के विभिन्न ग्रंथों से तथ्यों को जुटाया है। 1800 से 2010 की अवधि के बीच क़रीब 200 वर्षों के केरल के सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक घटनाक्रम का 26 अध्यायों में विश्लेषण किया गया है—ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ।
केरल के आईने में दलित-कम्युनिस्ट आंदोलन

आलोचक और दलित साहित्य के जिज्ञासु अध्येता बजरंग बिहारी तिवारी (जन्म 1972) की विमर्शमूलक किताब ‘केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य’ (2020, नवारुण) को मैं इसलिए महत्वपूर्ण मानता हूं कि यह दक्षिण भारत—ख़ासकर केरल के समाज, संस्कृति, राजनीति से हमारा—हम हिंदीभाषियों का—आत्मीय परिचय कराती है। दक्षिण भारत और उत्तर भारत के बीच जो कई तरह की दूरी और अपरिचय लंबे समय से रहा है, उसे यह किताब दूर करने की कोशिश करती है। और इसमें उसे काफ़ी हद तक क़ामयाबी मिली है। मलयालम या अंगरेज़ी में इस तरह की किताब है या नहीं, मुझे नहीं मालूम, लेकिन हिंदी में इस तरह की यह शायद पहली किताब है, जो केरल के दलित साहित्य (मलयालम) और दलित व वामपंथी/कम्युनिस्ट आंदोलन के बारे में इतनी सघन जानकारी देती है।

388 पन्नों की यह गहन शोधपरक किताब छोटे-छोटे वाक्य विन्यासों और सहज-सुबोध भाषा शैली के कारण पठनीय, सुगम्य व दिलचस्प बन गयी है। आम तौर पर ऐसी किताबें रूखी-सूखी होती हैं, उन्हें पढ़ने के लिए अच्छी-ख़ासी मशक्कत करनी पड़ती है। लेकिन बजरंग बिहारी तिवारी की किताब इससे ठीक उलट नज़ारा पेश करती है, और हमारी जानकारी व संवेदना का विस्तार करती है।

लेखक ने इस किताब के लिए इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र व अर्थशास्त्र के विभिन्न ग्रंथों से तथ्यों को जुटाया है। 1800 से 2010 की अवधि के बीच क़रीब 200 वर्षों के केरल के सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक घटनाक्रम का 26 अध्यायों में विश्लेषण किया गया है—ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ। किताब के अंत में संदर्भ व टिप्पणियां, शब्द अनुक्रमणिका (इंडेक्स) व संदर्भ सूची दी गयी है, जो 77 पन्नों में फैली है।

उत्तर भारत की हिंदी-उर्दू पट्टी में दक्षिण भारत के समाज, संस्कृति व राजनीति के बारे में आम तौर पर बहुत कम जानकारी और गहरी उदासीनता रही है। इसके पीछे कई ऐतिहासिक व सामाजिक कारण रहे हैं। इन कारणों पर हम न भी जायें, तो भी यह सही है कि दक्षिण भारत को लेकर हमारे दिमाग़ में पहले से बने-बनाये आग्रह व धारणाएं रही हैं। ‘केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य’ किताब ऐसे आग्रह-दुराग्रह व धारणाओं को तोड़ती है।

इस संदर्भ में बजरंग बिहारी तिवारी ने हिंदी लेखक व विद्वान राहुल सांकृत्यायन (1893-1963) की ‘नयी खोज’ कर डाली है, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। यह महत्वपूर्ण जानकारी मुझे इस किताब से ही मिली। किताब के दूसरे अध्याय ‘केरल में दास प्रथा’ की शुरुआत करते हुए बजरंग लिखते हैः ‘केरल की सामाजिक संरचना और जाति-जनित क्रूरता का हिंदी में पहला उल्लेख संभवतः राहुल सांकृत्यायन ने किया है।’ इस सिलसिले में उन्होंने राहुल की किताब ‘हिंदी काव्यधारा’ का ज़िक्र किया है, जो 1945 में किताब महल, इलाहाबाद से छपी थी। (इस किताब का नाम मैंने पहली बार सुना है।)

राहुल सांकृत्यायन ‘हिंदी काव्यधारा’ की भूमिका (‘अवतरणिका’) में लिखते हैं: ‘बहुत-सी नीच कही जानेवाली जातियों के प्रति तो ब्राह्मणों की व्यवस्था बहुत क्रूर थी। कितनी क्रूर थी, इसका अंदाज़ा कुछ-कुछ आपको लग सकता है, यदि परम अद्वैतवादी शंकराचार्य की जन्मभूमि मलबार के पंचमों की बीसवीं शताब्दी की अवस्था का आपको थोड़ा-सा परिचय हो। उस युग के नगरों की बहुत-सी सड़कें उनके लिए वर्जित थीं। कितनी ही सड़कों पर थूकने के लिए उन्हें अपने साथ पुरवा रखना पड़ता था...’ यह थी तब के केरल की सामाजिक संरचना और जाति-जनित क्रूरता, जिसके प्रति राहुल नफ़रत से भरे हुए हैं! राहुल के इस पहलू से हमारा परिचय कराने का श्रेय बजरंग को जाता है।

केरल में दास प्रथा (स्लेवरी) का मुख्य कारण था, मनुस्मृति-आधारित हिंदू जाति व्यवस्था/वर्ण व्यवस्था, जो सामंती-ब्राह्मणवादी भूमि संबंध पर टिकी थी। यह भूमि संबंध या ज़मीन पर मालिकाना पूरी तरह से प्रभुत्वशाली वर्ग (मुख्यतः ब्राह्मण समुदाय) के पक्ष में था। दास प्रथा के क्रूरतम साक्ष्य इस किताब में मौजूद हैं। ग़ुलामों की मंडियां लगती थीं, जिनमें औरतों-मर्दों-बच्चों की ख़रीद-फ़रोख़्त होती थी, उन्हें कोड़ों से पीटा जाता था और जंजीरों से बांध कर रखा जाता था। मालिक उनकी हत्या भी कर सकता था। उस दौर में केरल में ‘स्तन टैक्स’ भी लगता था। हिंदू जाति व्यवस्था/वर्ण व्यवस्था के यह अत्यंत घृणित रूप थे।

ऐसे केरल को नया, आधुनिक केरल बनाने में ‘केरल रेनेसां’ (केरल का नवजागरण आंदोलन), दलित आंदोलन और कम्युनिस्ट आंदोलन का बड़ा भारी रोल रहा। लंबे समय तक चले सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन की बदौलत केरल में दास प्रथा का अंत हुआ, और दास/ग़ुलाम जातियां आगे चलकर हरिजन या दलित कहलायीं, जिन्हें बाद में अनुसूचित जाति का दर्जा मिला। इस सामाजिक उथल-पुथल के दौर में मलयालम दलित साहित्य ने—जिसमें दलित स्त्री स्वर की अपनी स्वतंत्र पहचान थी—परिवर्तनकारी भूमिका निभायी। इस सिलसिले में यह किताब पर्याप्त जानकारी मुहैया कराती है।

इस किताब में एक बात मुझे बहुत खटकी, जिस पर चर्चा करना ज़रूरी है। वह है, 18-वीं शताब्दी के मैसूर के शासक टीपू सुलतान (1750-1799) के बारे में अभद्र व असंयत भाषा का प्रयोग (पेज 42-43). ब्रिटिश उपनिवेशवाद-विरोधी महान योद्धा टीपू सुलतान को बजरंग ने ‘कट्टर मुस्लिम राजा’ और ‘क्रूर’ बताया है, और लिखा है कि 1799 में ‘युद्ध करता हुआ टीपू सुलतान मारा गया’। इसे इस तरह भी लिखा जा सकता था कि ‘युद्ध करते हुए टीपू सुलतान मारे गये’।

हिंदी लेखकों में आम तौर पर यह प्रवृत्ति दिखायी पड़ती है कि मुस्लिम राजाओं के लिए वे ‘मारा गया’ और ‘था’- जैसे अनादरसूचक क्रिया पदों का इस्तेमाल करते हैं, जबकि हिंदू राजाओं के लिए वे ‘मारे गये’ और ‘थे’- जैसे आदरसूचक क्रिया पदों का इस्तेमाल करते हैं—औरंगजेब उनके लिए हमेशा ‘था’ हुआ करता है, जबकि शिवाजी हमेशा ‘थे’ हुआ करता है। जहां तक टीपू सुलतान के ‘कट्टर क्रूर मुस्लिम राजा’ होने की बात है, यह पूरी तरह से हिंदू राष्ट्रवादी संघी परिकल्पना है, जिसका ऐतिहासिक तथ्यों से कोई लेना-देना नहीं। किसी हिंदू राजा के लिए ‘कट्टर हिंदू राजा’ लिखा गया हो, मुझे याद नहीं आता।

(लेखक वरिष्ठ कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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