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कंफर्ट ज़ोन में चले गए हैं सत्ता में बैठे दलित नेता, अब नहीं दिखता अपने लोगों का दर्द

क्या करोड़ों लोगों को झकझोर कर रख देने वाली हाथरस की घटना उन माननीयों को नहीं मथ रही होगी, जो दलित हितों के प्रतिनिधित्व के नाम पर संसद और विधान सभाओं में बैठे हैं।
थावर चंद गहलोत और रामदास आठवले
एक कार्यक्रम में केंद्रीय सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्री थावर चंद गहलोत और राज्यमंत्री रामदास आठवले (फाइल फोटो)

ज्यादा भूमिका न बांधते हुए सीधे-सीधे इस सवाल पर आया जाए कि जब हाथरस में एक दलित लड़की (मैं ‘हाथरस की दलित बेटी’ नहीं कहूंगा, क्योंकि मुझे उनके इस ‘लिजलिजे ’ संबोधन से चिढ़ है। किसी लड़की के बलात्कार या हिंसा का शिकार होते ही हमारे नेता और मीडिया उसे बेटी कह कर बुलाने लगता है। गोया, उन्हें मालूम ही नहीं कि अगर हमने अपने समाज की लड़कियों को बेटी की तरह ट्रीट किया होता तो ये हालात पैदा न होते।) के बलात्कारियों की हैवानियत और शासन-प्रशासन की क्रूरता पर पूरा देश आंदोलित दिख रहा है तो सुरक्षित सीटों से चुन कर आने वाले हमारे सांसद और विधायक चुप्पी साधे क्यों बैठे हैं?

क्या करोड़ों लोगों को झकझोर कर रख देने वाली यह घटना उन माननीयों को नहीं मथ रही होगी, जो दलित हितों के प्रतिनिधित्व के नाम पर संसद और विधान सभाओं में बैठे हैं।

क्या अपने ही समुदाय की एक लड़की के साथ की गई यह नृशंसता उन्हें इतना भी उद्वेलित नहीं कर पाई है कि वे अपनी सरकार से इसका हिसाब मांगते। पीएम या सीएम से टोली बना कर मिलते। उन पर न्याय के लिए दबाव बनाते।

संख्या तो है भारी, फिर भी ये कैसी लाचारी?

लोकसभा में 131 सांसद सुरक्षित (एससी-एसटी) सीटों से जीत कर आते हैं। विधानसभाओं की 3961 सीटों में से 543 सीटें अनुसूचित जाति और 527 सीटें जनजातियों के लिए सुरक्षित हैं। यूपी, जहां यह नृशंस घटना हुई वहां के 403 विधायकों में से 86 ऐसे हैं, जो दलितों-आदिवासियों के प्रतिनिधि के तौर पर सुरक्षित सीटों से चुने गए हैं। यह संख्या दलितों पर अत्याचार के मामले में न्याय सुनिश्चित कराने के हिसाब से पर्याप्त है। लेकिन इन सांसदों का हाल देखिए। अमेरिका में नस्लभेद पर ‘ब्लैक लाइव्स मैटर्स’ के पोस्टर अपने ट्विटर हैंडल पर चस्पां कर क्रांतिकारी पोस्ट लिखने वाले ये सांसद और विधायक इस समय न जाने किस खोह में घुस गए हैं।

जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करते हुए अरविंद केजरीवाल दिखे, वृंदा कारत दिखीं, सीताराम येचुरी दिखे लेकिन बीजेपी और सहयोगी पार्टी आरपीआई के रामदास आठवले जैसे सांसदों के मरे हुए जमीर की बानगी देखिये कि उन्होंने इस मामले पर राजनीति न करने की अपील कर डाली। सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री आठवले ने कहा कि दलितों पर अत्याचार मुलायम सिंह, मायावती और अखिलेश यादव की सरकार में भी होते रहे हैं। राहुल गांधी को उन्होंने राजस्थान में दलित लड़की के साथ हुए रेप की याद दिलाई। बीजेपी का दलित चेहरा और आठवले के सीनियर मिनिस्टर थावर चंद गहलोत ने हाथरस की बलात्कार पीड़िता की लाश जलाने के मामले पर तो कुछ बोलने से भी इनकार कर दिया।

पूना पैक्ट का पेच?

आखिर रामदास आठवले और गहलोत जैसे दलित सांसदों को ऐसे जघन्य मामलों पर बोलने से कौन रोकता है? राजनीतिक पंडितों की मानें तो इसका एक जवाब हो सकता है, और वह है पूना पैक्ट। लेकिन लोग सवाल करेंगे कि आखिर महात्मा गांधी और डॉ. अंबेडकर के बीच तमाम सौदेबाजी के बाद जिस पूना पैक्ट ने दलित-आदिवासियों के लिए संसद और विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व दिलाने का रास्ता साफ किया, वह इन सांसदों को दलितों के खिलाफ होने वाले अत्याचार पर आवाज उठाने से कैसे रोक रहा है?

दलितों की राजनीति में भागीदारी के सवाल से जूझने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि दरअसल, सुरक्षित सीटों से जीतने वाले सांसद-विधायक सिर्फ दलित-आदिवासी के वोटों के दम पर ही संसद या विधानसभाओं में नहीं पहुंचते। उन्हें दूसरे समुदाय के वोटर भी वोट देते हैं। देश में संसदीय और विधानसभा के सीट तो सुरक्षित हैं लेकिन इनमें सिर्फ दलित और आदिवासी ही वोट देंगे, ऐसा नहीं हैं। इन सीटों से खड़े कैंडिडेट्स को अपने समुदाय का वोट तो मिलता ही है, ये इसके बाहर के समुदाय के वोटरों के वोट भी हासिल करते हैं। आज की तारीख में भारत में शायद ही ऐसी कोई सुरक्षित सीट हो, जहां का कैंडिडेट सिर्फ दलित-आदिवासी वोटरों का वोट लेकर जीत सके। लिहाजा, इस सीट का कैंडिडेट अपने समुदाय के हित की बात उठा कर दूसरे समुदायों की नाराजगी मोल लेना नहीं चाहेगा।

मिसाल के तौर पर वह प्राइवेट सेक्टर में रिजर्वेशन का मुद्दा नहीं उठाएगा क्योंकि ऐसा करते हुए अपनी जीत के लिए जरूरी दूसरे समुदायों के वोटरों की आंख की किरकिरी हो जाएगा। इस समस्या का खात्मा सेपरेट इलेक्टोरल में हो सकता था, जिसकी वकालत डॉ. अंबेडकर ने की थी लेकिन यह मांग नहीं मानी गई। ‘सेपरेट इलेक्टोरेट’ का मतलब यह है कि उस सीट पर दलित-आदिवासी वोटर ही अपने समुदाय के प्रतिनिधि चुनें।

लेकिन क्या यही वह वजह है, जिससे दलित-आदिवासी सांसद अपने समुदायों के हितों के लिए मुखर नहीं हो पाते। यह एक कमजोर तर्क है। हकीकत यह है कि दलित और आदिवासी समुदाय के हमारे सांसद-विधायक ‘कंफर्ट जोन’ में चल गए हैं। जमीन पर संघर्ष करने का उनका जज्बा खत्म हो गया है। सत्ताधारी पार्टी में रहने का सुख वो खोना नहीं चाहते। इसका एक उदाहरण देखिए। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी को सिर्फ दो सुरक्षित सीट, नगीना और लालगंज में जीत मिली। जबकि राज्य की 17 सुरक्षित सीटों में से 15 बीजेपी के खाते में गईं। इन 17 सांसदों में से नौ ने अपनी पार्टी छोड़ कर बीजेपी से टिकट हासिल किया था। ऐन चुनाव से पहले बीएसपी के तीन उम्मीदवार पाला बदल कर बीजेपी में आ गए और चुनाव भी जीत गए।

तो ये है सुरक्षित सीटों के उम्मीदवारों का राजनीतिक चरित्र। यही वजह है कि अपनी-अपनी सरकारों से सौदेबाजी में वो लगातार कमजोर पड़ते जा रहे हैं और अपने समुदायों के हितों की बात तो छोड़िए उन पर हो रहे नृशंस अत्याचारों पर मुंह भी नहीं खोल पा रहे हैं।

यही हाल रहा तो वजूद मिटने में देर नहीं

सवाल यह भी है क्या सचमुच इस मजबूरी की वजह से ये ऐसे मामलों पर मुंह नहीं खोलते हैं या खोलना नहीं चाहते। दोनों वजह हो सकती है। संसद में सुरक्षित सीटों के सांसदों का एक संगठन है और उनमें आपस में काफी मिलना-जुलना चलता रहता है। संसद में वेतन-भत्तों, रिजर्वेशन और अपने हितों को लेकर ये मुखर हैं। लेकिन अपने लोगों पर होने वाले अत्याचारों का दर्द इन्हें नहीं सालता।

जब संसद में पांच-सात सांसदों वाली पार्टी हंगामा कर किसी मुद्दे के प्रति ध्यान आकर्षित कर सकती है तो सत्ताधारी पार्टी न सही, दूसरे दलों के दलित-आदिवासी नेताओं की संख्या इतनी तो होगी कि वे अपने समुदाय के ऊपर हो रहे अत्याचारों पर खड़े होकर बात कर सकें। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। इसकी भी वजहें हैं।

दरअसल हमने इन समुदायों के नेताओं का बहुत जल्दी ‘संस्कृतिकरण’ ( समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास की वह थ्योरी जिसमें निचली जाति के लोग रूतबा हासिल होते ही ऊंची जाति की रीति-नीति अपनाने लगते हैं) होते देखा है। संसद या विधानसभा के लिए चुने जाते ही इनका मेल-जोल ऊंचे सामाजिक रूतबे वाले राजनीतिक नेताओं से बढ़ने लगता है और वे खेत-खलिहानों और फैक्टरियों में काम करने वाले अपने समुदाय के लोगों से कट जाते हैं। जिस वक्त उन्हें जमीन पर काम करने वाले अपने समुदाय के लोगों की ढाल बनने की जरूरत होती है, उस वक्त ये नदारद होते हैं। ऐसे में दलित और आदिवासी वर्चस्व वाली जातियों के अत्याचार का आसान शिकार होते रहते हैं।

आम दलित-आदिवासी का दर्द इन्हें अब नहीं दिखाई देता है। चूंकि सांसद या विधायक बनने के बाद एक तरह की सुरक्षा भी इन्हें मिल जाती है इसलिए इन पर या इनके परिजनों को बाहुबली जातियों के अत्याचार का सामना नहीं करना पड़ता। तो एक तरह से यह दर्द का रिश्ता खत्म हो जाता है और दलित नेता अपने ही लोगों के प्रति संवेदनहीन और उदासीन होने लगता है।

बहरहाल, पिछले कुछ वर्षों से हम यह लगातार देखते आ रहे हैं कि विश्वविद्यालयों से लेकर दफ्तरों और सुदूर खेत-खलिहानों तक से दलित-आदिवासियों पर बेहिसाब जुल्मों की कैसी भयावह खबरें आ रही हैं। इतने पर भी इन समुदायों के सांसदों और विधायकों की आत्मा नहीं जाग रही है तो इनका भी वजूद महफूज रहेगा, इसमें शक है। जिस तरह मुस्लिम नेतृत्व ने अपने समुदाय के बीच अपना वजूद खो दिया है, ठीक वही हाल इन दलित-आदिवासी नेताओं का न हो जाए। सत्ता की मलाई खाने वाले दलित नेताओं को आज जमीन पर लड़ता हुआ कोई बेबाक, बहादुर और नौजवान नेता दिख जाए तो वे झट उसे अपनी विरोधी पार्टी का एजेंट बताने लगते हैं। ये ‘पूना पैक्ट के परजीवियों’ का प्रहसन नहीं तो और क्या है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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