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दावोस : क्या अरबपतियों और बैंकरों को वास्तव में यक़ीन है कि अब और अधिक उछाल और पतन नहीं होगा?

यह ज़रूरी नहीं है कि मौद्रिक शिकंजा कसने से ही मंदी पैदा हो, जहाँ पर पहले से ही नाज़ुक ऋण ढांचे के चलते और चीन से निकलती महामारी के कारण संकट उत्पन्न हो चुका है।
Do Davos Billionaires

क्या भारी संख्या में उछाल के दौर के धड़ाम से फुस्स हो जाने के दौर में केंद्रीय बैंकों द्वारा लाए गए मौद्रिक जकड़बंदी की भूमिका की अनदेखी की जा सकती है?  मैं यह सवाल 22 जनवरी को दावोस में ब्लूमबर्ग के प्रधान संपादक टॉम कीने और ब्रिजवाटर एसोसिएट्स के सह-सीआईओ बॉब प्रिंस के बीच चली एक गहन बातचीत के मद्देनजर उठा रहा हूँ, जिसमें बाद वाले सज्जन ने इस धारणा को हवा दी कि "हमने शायद बूम-बस्ट चक्र के अंत को देख लिया है।"

यह स्पष्ट है कि आज के वित्तीय मामलों के दिग्गजों में से एक ने हमें "इस बार तो ये अलग है" के एक अन्य संस्करण के दर्शन कराने की कोशिश की है, जिसे प्रसिद्ध निवेशक, सर जॉन टेम्पलटन ने “निवेश के लिए चार सबसे महंगे शब्दों” के रूप में किसी समय एक बार व्याख्यायित किया था

इस बारे में मेरा खुद का मूल आधार यह रहा है कि पिछले तीन वर्षों में अमेरिकी अर्थव्यवस्था अंतर्निहित मात्रात्मक आंकड़ों के लिहाज से जो इशारा करती हैं, वह उससे कहीं कमजोर रही है, और इसकी ओर इशारा करने के लिए ढेर सारे ऐतिहासिक मिसालें हैं, कि क्रेडिट साइकिल समाप्त हो सकते हैं, यहां तक कि कम ब्याज दर के वातावरण में भी।  विशेष तौर पर इसे क्रेडिट की गुणवत्ता में गिरावट के माध्यम से भी देखा जा सकता है जैसा कि महान अर्थशास्त्री, हाइमन मिनस्की के द्वारा इसे एक बार अपने वित्तीय अस्थिरता परिकल्पना में समझाया गया था। 

जबकि वास्तविकता तो ये है कि कई दशकों से अमेरिका ही नहीं बल्कि समूची वैश्विक अर्थव्यवस्था की विशिष्टता आर्थिक रूप से एक अस्थिर मॉडल की रही है, जिसमें जीडीपी से होने वाले लाभ का बड़ा से बड़ा हिस्सा शीर्ष पर बैठे कम से कम लोगों के हाथों में पहुँच रहा है (जिनके पास निम्न आय वाले लोगों की तुलना में बचत करने की प्रवत्ति भी काफी अधिक है, जिसका अर्थ हुआ कि "ट्रिकल-डाउन" का असर न्यूनतम मात्रा में हो रहा है, या कहें कि उसका अस्तित्व ही नहीं रहा)।

मज़दूरी के स्तर पर होने वाली बढ़ोत्तरी भी समाप्त होती दिखती है, जो कि भविष्य के निरंतर विकास के लिए मनहूस प्रभाव छोड़ने वाले साबित हो सकते हैं। इसके बावजूद बॉब प्रिंस जैसे कई निवेशक, वर्तमान के केंद्रीय बैंकों द्वारा किसी भी सतत प्रयत्न के अभाव के बावजूद संपत्ति में उछाल के मौके को उच्च ब्याज दरों के माध्यम से, जैसा कि (पूर्व फेड चेयरमैन विलियम मैकचेस्ने मार्टिन के मशहूर शब्दों में) कहें तो “उस समय पंच बाउल को छीनने की कोशिश जबकि पार्टी अभी बाकी है” भुनाने में लगे हैं।

बॉब प्रिंस के शब्दों में (डौग नोलैंड के क्रेडिट बबल बुलेटिन में उद्धृत):

बॉब प्रिंस…: “ मुझे लगता है कि 2018 में एक सबक सीखने को मिला था। दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों के अपने मुट्ठी भींचने का उद्येश्य मंदी लाने का नहीं था – इससे जो हो गया, ऐसा करने का कोई इरादा नहीं था। लेकिन मुझे लगता है कि इसके चलते सबक सीखा गया होगा। और मुझे लगता है कि इसने वास्तविकता में एक निशान बनाने का काम किया है, जिसे हमने संभवतः बूम-बस्ट चक्र के अंत में होते देखा था। "

ब्लूमबर्ग के टॉम कीने: "क्या इसे केंद्रीय बैंकों की ओर से मॉडलिंग पोर्टफोलियो में हेज फण्ड कारोबार के अनुमान लगाए जाने के अंत के रूप में कहा जा सकता है?"

प्रिंस: "यह जितना है उतनी अपनी भूमिका निभाने नहीं जा रहा है। आपको याद है उन 80 के दशक में जब हम बैठकर इंतजार करते थे कि धन की आपूर्ति हो। तबसे हमने एक लम्बा सफर तय कर लिया है ... । अब हम 25 प्लस [बीपीएस फेड रेट में वृद्धि] या 25 माइनस को लेकर बात करते हैं। हमें 25 प्लस या माइनस भी नहीं मिलने जा रहा है, और हमें नकारात्मक लाभ देखने को मिल रहा है। बूम-बस्ट चक्र का यह आईडिया और वो इतिहास जिसमें हम दशकों से रहते आये हैं, वह वास्तव में क्रेडिट और मौद्रिक नीति में बदलाव से चला करते थे। लेकिन अब आप ऐसी स्थिति में हैं जिसमें फेड एक बक्से में बंद पड़ा है। अब न तो फेड बैंक और न ही दूसरे केन्द्रीय बैंकों की यह हैसियत है कि वे अपने मुट्ठियाँ भींच लें या शर्तों को आसान बना सकें, विशेष रूप से रिज़र्व करेंसी के सन्दर्भ में। और ऐसी स्थिति में आप यहाँ से किधर की ओर जा सकते हैं? जैसा यह पहले था, वैसा अब नहीं होने जा रहा है।"

प्रिंस इस बात को स्वीकार करते हैं कि "क्रेडिट में होने वाले बूम और बस्ट के चलते विकास चक्र प्रभावित होता है, जैसे कि क्रेडिट विस्तार, क्रेडिट संकुचन," लेकिन साथ ही वे यह अवधारणा भी सामने रखते हैं कि "ऋण के मामले में ये विस्तार और संकुचन अधिकतर मौद्रिक नीति में बदलावों के द्वारा संचालित होते हैं।"

हो सकता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की अवधि के लिए ऐसा कहना काफी हद तक सही बैठे, लेकिन यदि हम और पीछे की ओर देखें तो इस बात के प्रमाण हैं कि प्रिंस की यह परिकल्पना "इस बार यह कुछ अलग सा है" वाले सत्य का ही एक दूसरा नमूना नजर आता है।

इतने सारे लोगों को इसमें गलती क्यों नजर आई है?

यह गलत धारणा शायद एमआईटी के अर्थशास्त्री रूडी डॉर्नबस द्वारा 1997 में दिए गए एक प्रसिद्ध कथन से उपजती है: “पिछले 40 वर्षों में हुए अमेरिकी विस्तारों में से किसी की भी मौत बिस्तर पर बुढ़ापे की नहीं हुई है; जिसकी भी हुई है उसकी हत्या फेडरल रिजर्व द्वारा की गई " और यह कथन अमेरिकी अर्थव्यवस्था के 2000 के दशक तक कमोबेश सही भी था।

लेकिन इसके बाद आर्थिक गतिशीलता बदल गई। यह सत्य है कि फेडरल रिजर्व ने 2000 के दशक के मध्य में फेड फंड की दर में 400 आधार अंकों की बढ़ोतरी की, लेकिन फिर उसने उन सभी कदमों को उलट कर रख दिया, और मई 2008 की शुरुआत तक बेलआउट फाइनेंसिंग पैकेज की बाढ़ ला दी। इसके बावजूद अमेरिकी और वैश्विक अर्थव्यवस्था उस वर्ष के उत्तरार्ध में एक खड़ी चढाई को चढ़ पाने में असफल रही और लुढ़कती चली गई, क्योंकि वैश्विक वित्तीय नाजुकता एक पूर्ण विकसित वैश्विक प्रणालीगत संकट के रूप में उभर कर इतनी भारी मात्रा में फूट कर उभर चुकी थी कि जिसे 1930 के दशक के बाद से कभी देखा नहीं गया था। 

उस दौर में यह अलग क्यों था? इसका कारण यह है कि उस समय अमेरिका और अन्य अर्थव्यवस्थाओं में असंख्य परिसंपत्ति के बुलबुले और निजी ऋणग्रस्तता से संबंधित अभूतपूर्व वृद्धि हुई थी। ये चक्रीय मांग में विस्तार का समर्थन अस्थिर प्रवत्ति के थे और इन्हें टिकाऊ नहीं थे। दूसरे शब्दों में कहें तो करीब करीब वैसी ही परिस्थितियाँ थीं, जैसी की आज विद्यमान हैं।

हाइमन मिंस्की और इरविंग फिशर ने इस बारे में बताया है कि कैसे एक बार ऋण "रोग" जब असाध्य हो जाता है, तो ऐसे में एक "मिन्स्की मोमेंट" आता है, जब हर्षोल्लास का स्थान चिंता घेर लेती है, और फिर घबराहट में दिवालियेपन की घोषणा और क़र्ज़ से वितृष्णा होने लगती है। और जब यह दौर अपने पूरे शबाब पर होता है तो फेड की कुछ कर पाने की कोई क़ुव्वत नहीं रह जाती, चाहे वह कितना भी ज़ोर लगाकर पंच बाउल को अपने पास वापस लाने की कोशिश करे।

अमेरिकी और वैश्विक अर्थव्यवस्था में अभी भी ढेर सारे अर्ध-उछाल मारती संपत्ति और बेहद उच्च स्तर के निजी (और अर्ध-निजी) ऋणग्रस्तता मौजूद है। बॉब प्रिंस सहित उनके कई निवेशक सहकर्मी मित्रों के भीतर मिन्स्की/फिशर ऋण संकुचन गतिशीलता के खतरे से बेख़बर बने रहने की प्रवृत्ति दिखाई देती है, उसे यदि आज के मौजूदा उछाल मारते शेयरों को देखते हुए निर्णय लेना हो तो फेड और केंद्रीय बैंकिंग बिरादरी उन्हें ऐसा कर पाने से रोकने में कुछ ख़ास योगदान नहीं दे सकती हैं।

एक और भी रास्ता है जिसमें वैश्विक आर्थिक विकास धीमा हो सकता है या इस बार भी लड़खड़ा सकता है, जिसकी मैंने पहले चर्चा की है (चीन की अर्थव्यवस्था के संदर्भ में: यह थीसिस "व्यापार चक्र के सिद्धांत में प्रचलित एक बेहद पुराने विचार से जो दूसरे विश्व युद्ध से पहले की है, कि निजी क्षेत्र में अत्यधिक निवेश आगे चलकर इसे टिकाऊ रख पाना गैर-वाजिब हो जाता है कि राजकोषीय/मौद्रिक आघात के बिना भी स्वायत्त निवेश में गिरावट देखने को मिलने लगती है। एक बार जब ऐसा होना शुरू होता है” तब ऐसे में अत्यधिक संदिग्ध और कमतर होती ऋण गतिविधि का कमजोर होता भवन " भले ही ब्याज दरों में गिरावट का रुख हो और मौद्रिक स्थिति में सुधार हो रहा हो, एक बढ़ते आर्थिक संकुचन की ओर घसीटती जाती है। "

अर्थशास्त्र के इतिहास के इस पुराने विचार को भुला दिए जाने का श्रेय बड़े पैमाने पर अकादमिक अर्थशास्त्र में बदलाव और फैशन रहा है। लेकिन यह भी एक आइडिया है और ऐसा सोचने के लिए आधार मौजूद हैं, और जिसका वजूद एक बार फिर से सामने आ गया है।

वैश्विक स्तर पर देखें तो हमारे पास उपभोक्ता वस्तुओं की भरमार है और इसका अधिकांश हिस्सा चीन से निकलता है। लेकिन आज की अर्थव्यवस्था में जहाँ माँग कमजोर पड़ती जा रही है उसे देखते हुए जो  कि अधिक से अधिक 1% तक बढ़ रही है, हमारे पास खरीदार कम से कम होते जा रहे हैं, जो इन्हें खरीद पाने में सक्षम हों। इसके अलावा,  चीन में भी पिछले साल के अंत में जो मामूली राजकोषीय प्रोत्साहन के उपाय लिए गए थे वे भी कोरोनावायरस के चलते बेकार हो चले हैं। यह बुनियादी ढांचे में निवेश में हाल ही में आई तेजी के प्रभाव को कम करने के साथ-साथ अमेरिकी सरकार के साथ जारी व्यापार युद्ध की समाप्ति से मिल सकने वाले संभावित लाभों को भी कम कर देता है।

इस प्रकार से हम देख सकते हैं कि दुनिया में एक ऐसी स्थिति बन चुकी है जिसमें जरूरत से कहीं अधिक निवेश की स्थिति है, जिसे टिकाये नहीं रखा जा सकता। जिसका अर्थ हुआ अतिरिक्त वस्तुओं के उत्पादन के लिए निवेश में कमी आयेगी। जैसे सूखा रोग से ग्रसित कोई भवन हो जो अस्थिर नींव पर खड़ा है, उसी प्रकार से वैश्विक स्वायत्त निवेश में गिरावट ने हमें वैश्विक आर्थिक मंदी में धकेल दिया है जो कि वैश्विक या राष्ट्रीय मौद्रिक शक्तियों द्वारा ली गई कार्यवाहियों से स्वतन्त्र हैं।

क्या इसके कोई संकेत दिखाई पड़ते हैं? अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार, पिछले एक साल में वैश्विक विकास दर में “वैश्विक वित्तीय संकट के बाद से अपनी सबसे कमजोर रफ्तार दर्ज की है।“ और यह सब तब देखने को मिला है जब खुशनुमा जोखिम सम्पत्ति बाज़ारों की उपस्थिति के बावजूद, प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में मामूली जीडीपी के बावजूद अतिरिक्त क्रेडिट और धन वृद्धि, हर जगह बेहद आसान शर्तों पर मौद्रिक नीति जारी हो, और हाल के वर्षों के राजकोषीय प्रतिबंध की समाप्ति की व्यवस्था रही हो। इसलिये हम इस आश्चर्यजनक नरमी के लिए "जानलेवा फेड" (दूसरे शब्दों में कहें तो डोर्नबुस्च) या वैश्विक केंद्रीय बैंकिंग बिरादरी में इसके सहयोगियों को इसका जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते हैं। हालाँकि, यह संभव है कि हम यह सुनिश्चित कर सकें कि हमें आगे जाकर अत्यधिक वैश्विक निर्धारित निवेश देखने को मिले, जिसके चलते अंततः वैश्विक मंदी का संकट खड़ा हो जाये। ऐसा कोई सवाल ही नहीं उठाता कि हमारे केंद्रीय बैंक और सरकारें इस तरह की गिरावट को स्थगित करने के लिए "जो भी हो सके" करने की कोशिशों में जुटेंगी।

मुद्दा यह है कि अधिकतर लोगों के दिमाग में युद्ध के बाद के व्यापार चक्र पैटर्न के सापेक्ष में इस वैश्विक विस्तार के अंत में किसी "जानलेवा फेड" की आवश्यकता नहीं रह गई है।  अत्यधिक जोखिम वाले संपत्ति के मूल्यांकन और उच्च ऋणग्रस्तता के चलते, भले ही कम प्रचलित ब्याज ही क्यों न दुनिया में लागू कर दी जाये और अभूतपूर्व स्तर पर केंद्रीय बैंक का हस्तक्षेप हो जाये, लेकिन इन सबके बावजूद नकारात्मक वित्तीय और आर्थिक गतिशीलता पैदा हो सकती है।

और एक ऐसी दुनिया में जहाँ अत्यधिक वैश्विक पूंजीगत व्यय किया गया हो, लेकिन इच्छित विकास दर नीचे की ओर जा रही हो, ऐसे में अत्यधिक निवेश में एक स्वायत्त गिरावट भी वही काम कर सकती है। और करेले के ऊपर नीम चढ़ा के रूप में इसमें कोरोनावायरस के बढ़ते जोखिमों को भी यदि जोड़ दें, तो और आपको एक प्रारंभिक वैश्विक आर्थिक आपदा के लिए जो खाद-पानी चाहिए, वह मिल जाती है।

लेखक एक बाज़ार विश्लेषक और टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। 

स्रोत : इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट

क्रेडिट लाइन : यह लेख इकोनॉमी फॉर ऑल द्वारा निर्मित किया गया था, जो इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट की एक परियोजना है।

सौजन्य : इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Do Davos Billionaires, Bankers Really Believe There Won’t Be More Booms and Busts?

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