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बहस: क्रिकेट कैसे किसी की देशभक्ति या देशद्रोह का पैमाना हो सकता है!

क्रिकेट के नाम पर काफ़ी समय से उन्माद और नफ़रत फैलाने का खेल चल रहा है। ख़ासतौर पर भारत-पाकिस्तान के नाम पर..., ताकि इस बहाने मुसलमानों को निशाना बनाया जा सके। इन दिनों ये प्रक्रिया और हमले और तेज़ हो गए हैं।  
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साल 2019 की बात है। क्रिकेट विश्व कप के मैच चल रहे थे। भारत और पाकिस्तान के मैच को लेकर मीडिया में बहुत हाइप था। एक सुबह मैंने देखा कि मेरी सोसायटी में एक सात-आठ साल का बच्चा एक ही जगह गोल-गोल घूम रहा है और मुट्ठी भींचकर, पैर पटक कर नारे की शक्ल में दोहरा रहा है- पाकिस्तान मुर्दाबाद...पाकिस्तान मुर्दाबाद।

मैं उसे देखकर सोच में पड़ गया कि इस छोटे से बच्चे को यह किसने सिखाया है, क्योंकि इसे न अभी क्रिकेट की समझ है, न भारत-पाकिस्तान की। और यह हिन्दुस्तान ज़िंदाबाद भी नहीं बोल रहा...बस एक उन्मादी अंदाज़ में पाकिस्तान मुर्दाबाद ही दोहरा रहा है।

ज़ाहिर है यह उसने अपने घर में ही देखा और सीखा होगा। घर में ऐसा ही माहौल होगा और क्रिकेट मैच के समय तो कुछ ज़्यादा ही ऐसी बातें की जाती होंगी...तभी तो यह बच्चा इस कदर उन्मादी अंदाज़ में पाकिस्तान मुर्दाबाद का नारा लगा रहा है।

जब हम छोटे थे तब भी हम यही देखते थे। जब भी भारत-पाकिस्तान का क्रिकेट मैच होता था, तब शहर में लगभग सन्नाटा सा हो जाता था। हर आदमी टीवी-रेडियो से चिपका रहता था। घरों में आकर छोटे-बड़े रिपोर्ट करते थे- आज तो शहर में कर्फ्यू जैसा माहौल है। बाज़ार में भी दुकानों पर लोग एक साथ टीवी देख रहे हैं, इसमें मुसलमानों का ज़िक्र अलग से संदेह के अंदाज़ में किया जाता था। अगर आप हिंदू हैं और मैच के दौरान किसी मुसलमान नाई-हज्जाम (Barber) की दुकान पर बाल या दाढ़ी बनवा रहे हैं तो आपका ध्यान अपने बाल कटाने या दाढ़ी बनवाने पर कम होता था बल्कि यह देखने पर ज़्यादा होता था कि पाकिस्तान का विकेट गिरने पर हज्जाम के चेहरे पर ज़रा सी भी उदासी तो नहीं आई या पाकिस्तानी खिलाड़ी के चौका-छक्का लगाने पर वह मुस्कुरा तो नहीं रहा। काम की थकान या स्वाभाविक हंसी-खुशी को भी उसके पाकिस्तान परस्त और गद्दार होने की निशानी मान लिया जाता था और झूठी-सच्ची कहानियों के साथ यही प्रचारित किया जाता था। 

वैसे तो खेल को आपके स्वास्थ्य के साथ समाज जोड़ने का बेहतरीन जरिया बताया जाता है, लेकिन जब यही खेल आपको ज़ेहनी तौर पर बीमार बनाने लगे, समाज को तोड़ने और नफ़रत फैलाने का जरिया बन जाए तो इसपर अंकुश लगाना बेहद ज़रूरी है।

वाकई क्रिकेट के नाम पर अब यह पागलपन बंद होना चाहिए।

इसमें दो बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। पहली बात यह कि खेल को खेल की तरह ही लिया जाए यानी हार-जीत को खेल का एक अंग, एक हिस्सा मानना चाहिए और खिलाड़ियों को गाली देना बंद करना चाहिए।

दूसरी बात यह समझना है कि कोई खेल या उसमे हार-जीत या खुशी या ग़म कैसे किसी की देशभक्ति का पैमाना हो सकता है! और क्रिकेट तो बिल्कुल भी नहीं, क्योंकि जिस टीम की हार-जीत पर आज राष्ट्रद्रोह के मुकदमे किए जा रहे हैं, उसमें राष्ट्र का क्या है? वह न हमारा राष्ट्रीय खेल है, न टीम हमारी राष्ट्रीय टीम है।

जी हां, आप जानते ही होंगे कि क्रिकेट भारत का राष्ट्रीय खेल नहीं है और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी BCCI कोई सरकारी निकाय नहीं है।

किताबों के पन्ने पलटिए या गूगल कीजिए पता चलेगा कि अंग्रेज़ों के इस खेल के लिए बीसीसीआई का गठन आज़ादी से पहले दिसंबर 1928 में तमिलनाडु सोसाइटी पंजीकरण अधिनियम के तहत एक 'सोसाइटी' के रूप में हो गया था। बीसीसीआई का अपना संविधान है। बीसीसीआई का 'लोगो' भी अंग्रेजों द्वारा शुरू किये गये एक आवर्ड 'Order of the Star of India' से लिया गया है।

इसके अलावा कई अन्य रोचक तथ्य हैं- जैसे अब ऑनलाइन शिक्षा प्रदान करने वाली कंपनी बायजूस (BYJU'S) भारतीय क्रिकेट टीम की स्पॉन्सर है, लेकिन अब से पहले ओप्पो भारतीय क्रिकेट टीम का स्पॉन्सर था। आप जानते हैं कि ओप्पो कौन है? जी हां, ओप्पो (Oppo) चीन की एक मोबाइल कंपनी है, जिसे भक्त लोग और उनका गोदी मीडिया भारत का सबसे बड़ा दुश्मन बताते हैं, जिसके हर सामान के बहिष्कार का आह्वान करते रहते हैं। चीन की इस कंपनी ने ही क्रिकेट टीम के यह अधिकार 1,079 करोड़ में 2016 से 2020 तक पांच साल के लिए खरीदे थे। यानी हमारी ‘राष्ट्रवादी’ मोदी सरकार के कार्यकाल में ही।

टीम का टाइटल प्रायोजक पेटीएम है।  21 अगस्त, 2019 को बीसीसीआई ने ई-वॉलेट कंपनी पेटीएम को भारत में होने वाले अंतरराष्ट्रीय और घरेलू मैचों के लिए पुनः भारतीय टीम का टाइटल प्रायोजक घोषित किया। पेटीएम का अनुबंध 2023 तक रहेगा। आपको मालूम है कि पेटीएम यूं तो भारतीय स्टार्टअप कंपनी है, लेकिन इसमें चीन के अलीबाबा ग्रुप का सबसे ज़्यादा शेयर है।

यही नहीं ई-गेमिंग कंपनी एमपीएल स्पोर्ट्स (MPL Sports) को भारतीय क्रिकेट टीम का नया किट प्रायोजक बनाया गया है। बीसीसीआई ने एमपीएल स्पोर्ट्स के साथ तीन साल का करार किया है, जो कि नवंबर 2020 से दिसंबर 2023 तक का है। लेकिन इससे पहले इसके अधिकार 2016 से 2020 तक 5 वर्षों के लिए 370 करोड़ में नाइके  Nike कंपनी को दिए गये थे। और Nike को भी आप जानते ही होंगे। Nike जूता इत्यादि बनाने वाली एक बहुराष्ट्रीय अमेरिकन कंपनी है।

इसके साथ इसके अन्य आधिकारिक साझेदार रहे हैं; पेप्सी, हुंडई आदि कंपनियां।

अब पेप्सी कहां की कंपनी है ये तो आप जानते ही होंगे। जी हां ये भी अमेरिकन कंपनी है। और हुंडई, साउथ कोरिया की कंपनी है। और जिस चैनल के जरिये आप यह मैच देखते हैं उसका आधिकारिक प्रसारणकर्ता स्टार स्पोर्ट्स है। और स्टार स्पोर्ट्स की Ownership यानी स्वामित्व The Walt Disney Company India के पास है।

और इन सब कंपनियों को आपसे-हमसे या किसी देश से कोई मतलब नहीं है। इन्हें अपने बाज़ार, अपने मुनाफ़े से मतलब है जिसके लिए ये विज्ञापन युद्ध छेड़े रहते हैं। हर दूसरी बॉल के बाद आपकी टीवी स्क्रीन पर विज्ञापन तैरने लगते हैं। आपके देश में जो कंपनी आपके जज़्बात भड़का कर अपना प्रोडेक्ट बेच रही है, वही दूसरे देश में उनके जज़्बात भड़का रही है। और हम ऐसे भावुक हुए जा रहे हैं कि पूछिए मत। पता नहीं हमारा क्या दांव पर लगा है। पाकिस्तान में भी कमोबेश यही हाल है। वहां भी बहुत लोग क्रिकेट को लेकर ऐसे ही उन्मादी हैं और अंट-शंट बयान जारी करते रहते हैं और एक-दूसरे के कट्टर तत्वों को खाद-पानी देते रहते हैं।

ख़ैर, बीसीआईआई को लेकर किसी तथ्य पर शक हो अपने सबसे ‘प्रिय’ ‘राष्ट्रवादी’ अख़बार दैनिक जागरण की यह रिपोर्ट पढ़ लीजिए। हालांकि 2020 के बाद कई बड़े बदलाव हुए हैं। लेकिन मूल बात यही है कि बीसीसीआई भारत सरकार का निकाय नहीं है। इसका कोई अधिकार, कोई दख़ल भारत सरकार के पास नहीं है। खिलाड़ियों का चुनाव भी नहीं। अब तो ये खिलाड़ी भी आईपीएल के तहत अलग-अलग प्राइवेट कंपनियों को बिक जाते हैं। बाकायदा बोली लगाकर।

इनके सर से लेकर पांव तक विज्ञापन सजे रहते हैं। एक-एक मैच के इन्हें करोड़ों मिलते हैं और हम भूखे-बेरोज़गार इनको लेकर रात-दिन बौराए रहते हैं। हार-जीत पर पगलाए रहते हैं। हालांकि नई सदी की शुरुआत के साथ हमारी पीढ़ी का क्रिकेट का बुखार उस समय उतर गया या कम हो गया जब मैच फिक्सिंग के मामले सामने आए। मतलब ये कि खेल प्रेमियों को पता चला कि उनके प्रिय और ‘महान’ खिलाड़ी तो सालों से मैच की हार-जीत भी फिक्स कर रहे हैं। दूसरी टीम या सटोरियों से पैसे लेकर जानबूझकर आउट हो रहे हैं, कमज़ोर गेंद फेंक रहे हैं, कैंच छोड़ रहे हैं, हार रहे हैं। यानी क्रिकेट की हर गेंद, हर शॉट यहां तक कि टॉस से लेकर पिच तक हर लम्हा, हर एक्शन पहले से फिक्स है।

इस सबसे एक पीढ़ी का क्रिकेट का बुखार तो कुछ कम हुआ लेकिन बाज़ार और राजनीति ने उन्माद पैदा करने के नए-नए तरीके ईजाद कर लिए। ख़ासतौर पर भारत-पाकिस्तान के मैच को लेकर इस उन्माद को पागलपन की हद तक लगातार बढ़ाया जाता रहा। ताकि इस बहाने हिंदू-मुस्लिम किया जा सके। इन दिनों तो ये प्रक्रिया और हमले और तेज़ हो गए हैं।  

पाकिस्तान से जीत जाते हैं तो ख़बर बनाते हैं कि फलां मुस्लिम मोहल्ले में मातम छाया रहा।

पाकिस्तान से हार जाते हैं तो बताते हैं कि फलां मुस्लिम मोहल्ले में जश्न मनाया गया। पटाखे दाग़े गए।

चाहे वो पटाखे खुद ही चलाए हों, लेकिन बदनाम मुसलमानों को किया जाता है, ताकि सांप्रदायिकता फैलाई जा सके, ताकि ध्रुवीकरण किया जा सके, ताकि चुनाव जीते जा सकें। मुझे 90 के दशक का दौर याद है कि रमज़ान में रोज़ा इफ़्तार का गोला फूटने को भी मुसलमानों का जश्न के लिए पटाखे फोड़ना बता दिया जाता था।

जैसे इस बार भक्तों न किया। न केवल एक शानदार मुसलमान खिलाड़ी मोहम्मद शमी को हार के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हुए सोशल मीडिया पर ट्रोल किया गया बल्कि आम मुसलमानों को भी हमले का शिकार बनाया गया। करवाचौथ और शादी-ब्याह के पटाखों को मुसलमानों के मत्थे मढ़कर न केवल एक बार फिर उनकी देशभक्ति पर प्रश्नचिह्न लगाया गया बल्कि कश्मीर से लेकर उत्तर प्रदेश तक शासन-प्रशासन ने आगे बढ़कर उनके ऊपर राष्ट्रद्रोह (राजद्रोह) के मुकदमे लाद दिए हैं।

यक़ीन न हो तो बिहार किशनगंज की यह ख़बर पढ़ लीजिए- बिहार के किशनगंज में रविवार की रात क्रिकेट वर्ल्ड कप के मैच में पाकिस्तान की जीत पर पटाखे फोड़ने का मामला पुलिस जांच में फ़र्ज़ी निकला है। पुलिस जांच में यह बात सामने आयी है कि रविवार की रात शहर के चूड़ीपट्टी मोहल्ले में एक शादी थी जिस बारात में पटाखे फोड़े गए थे।

इसको लेकर पुलिस अधिकारी ने बाकायदा बयान भी जारी किया कि पुलिस पूछताछ में पोस्ट करने वालों ने अपनी गलती स्वीकार कर ली और पोस्ट भी डिलीट कर दी है और पुलिस को एक माफ़ीनामा भी दिया है।

हम सबको एक बार मिलकर फिर सोचना और पूछना चाहिए कि जो टीम राष्ट्रीय है ही नहीं उसकी हार-जीत पर ग़म या जश्न कैसे राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में आ गया?

वैसे कोई भी खेल हो। राष्ट्रीय ही सही। लेकिन खेल की हार-जीत हो या उसपर खुशी और ग़म मनाना कैसे किसी की देशभक्ति का पैमाना हो सकता है। हमें हक़ है, कि अच्छा खेलने वाली टीम को Appreciate करें, उसकी सराहना करें, बधाई दें। हमारा मन है कि हारने वाले को भी ढाढ़स बंधाएं। इसमें देश या देशभक्ति का प्रश्न कहां से आ गया। इसके नाम पर कैसे किसी को गद्दार या देशद्रोही कहा जा सकता है, कैसे और किस क़ानून के तहत यूएपीए या राजद्रोह के मुकदमे लादे जा सकते हैं।

आपको याद है कि अभी ओलंपिक में भारतीय महिला हॉकी टीम की हार के बाद टीम की एक शानदार दलित खिलाड़ी को कैसे ट्रोल किया गया, कैसे उनके घर पर हमला किया गया। इससे साफ है कि यह सिर्फ़ खेल का ही मामला नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक ख़ास तरह की सवर्णवादी मानसिकता, पितृसत्तात्मक ब्राह्मणवादी सोच काम कर रही है, जो सत्ता के संरक्षण में देश को एक विवेकहीन अंधराष्ट्र  बनाने की दिशा में काम कर रही है। जिसमें न दलित-आदिवासियों के लिए कोई जगह है, न मुसलमानों के लिए और महिलाएं तो उनके लिए पहले से ही दोयम दर्जे की नागरिक हैं। इसलिए बहाना कोई भी, निशाना यही वर्ग है।

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