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क़ौमी एकता के उत्सव फूलवालों की सैर में क्या पहली वाली ख़ुशबू नहीं रही?

''इस उत्सव का संदेश भी यही है कि एक-दूसरे के मज़हब की इज़्ज़त करें, एक दूसरे के त्योहारों में हिस्सा लें''...
Phool Waalon Ki Sair

''सैर-ए-गुल-फरोशां'' यानी फूलवालों की सैर क़रीब दो सौ साल से दिल्ली की क़ौमी एकता के प्रतीक के उत्सव के तौर पर मनाया जाता रहा है। सात दिन का ये उत्सव बहुत ही ख़ामोशी से शनिवार, 4 नवंबर 2023 को ख़त्म हो गया। ये उत्सव दिल्ली के लिए कितना अहम रहा है इसका ज़िक्र मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब ने कुछ यूं किया था :

''दिल्ली की हस्ती मुनासिर कई हंगामों पर है, क़िला, चांदनी चौक, हर रोज़ मजमा जामा मस्जिद, हर हफ़्ते सैर जमुना के पुल की और दिल्ली में हर साल मेला फूलवालों का, ये पांच बातें अब नहीं फिर दिल्ली कहां''।

''शाही उत्सव में गंगा-जमुनी तहज़ीब की ख़ूशबू जैसे गुम हो गई हो''

'फूलवालों की सैर' दिल्ली की विरासत का हिस्सा रही है, लेकिन आज इसमें वो बात नहीं, मुगलों के इस शाही उत्सव में गंगा-जमुनी तहज़ीब की ख़ुशबू जैसे गुम हो गई हो। दिल्ली में पैदा होने वाली कई पीढ़ियों के लिए फूलवालों की सैर बेशक उनकी ख़ूबसूरत यादों का सरमाया है। ये उन दिनों की बात है जब दिल्ली का मौसम अपने आप में ही त्योहार सा हुआ करता था, बारिश के ख़त्म होते-होते गुलाबी सर्दी की दस्तक के साथ ही अक्टूबर-नवंबर के महीने में फूलवालों की सैर के उत्सव का पूरे साल इंतज़ार किया जाता था। योग माया (जोग माया) के मंदिर से लेकर सूफ़ी हजरत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह  और जहाज महल के साए में बने शम्सी तालाब और झरना के क़रीब फूलों की मंडी समेत पूरी महरौली ही जैसे फूलों की भीनी ख़ुशबू में डूब जाया करती थी। इन फूलों में गेंदा, चमेली और गुलाब की ख़ुशबू के साथ तरह-तरह के लज़ीज़ पकवानों की भी ख़ुशबू हुआ करती थी। सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान भारतीय संस्कृति की क्या ख़ूब झलक देखने को मिलती थी। शहनाई से शुरू होने वाला कार्यक्रम पूरी रात कव्वालियों के दौर से गुज़रता था।

''कार्यक्रम का आयोजन 'अंजुमन सैर-ए-गुल-फरोशां' नाम की संस्था करती है''  

कोरोना के दौरान इस कार्यक्रम का आयोजन नहीं किया गया था लेकिन साल 2022 में दिल्ली की रिवायत से जुड़ा सिलसिला एक बार फिर शुरू हो गया। इस कार्यक्रम का आयोजन 'अंजुमन सैर-ए-गुल-फरोशां' नाम की संस्था सरकार के साथ मिलकर करती चली आई है जिसमें दिल्ली के एलजी (लेफ्टिनेंट गवर्नर) हिस्सा लेते हैं। इस साल भी दिल्ली के एलजी ने इस कार्यक्रम में हिस्सा लिया।

दिल्ली के एलजी ने बख़्तियार काकी की मज़ार पर फूलों की चादर चढ़ाई।  फ़ोटो साभार : X

कभी शाही आयोजन रही फूलवालों की सैर आज महज़ रस्म-अदायगी सी रह गई है, न दिल्ली वालों को ख़बर, न कोई बड़ा चेहरा यहां दिखाई दिया। एक दौर था जब शाहजहानाबाद से लोगों का कारवां इस उत्सव में शामिल होने के लिए महरौली के लिए निकलता था। हाथी, घोड़ों और पालकी में निकले लोग कुछ पड़ाव पर रुकते हुए यहां तक पहुंचते थे।

फूल वालों की सैर का इतिहास
सूफी संत हजरत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी को मनाने वालों में आम लोगों के साथ ही ख़ास लोगों के नाम भी शुमार हैं। महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू भी उनके मानने वालों में थे। मुगल बादशाह अक्सर बख़्तियार काकी की मज़ार पर जाया करते थे। उनका कुतुब साहब पर बहुत यकीन था।

मां की मन्नत से जुड़ा उत्सव

ये उस दौर की बात है जब दिल्ली में अकबर शाह द्वितीय की हुकूमत थी। लेकिन एक अंग्रेज रेजिडेंट हमेशा लाल किले में मौजूद रहता था। बादशाह को कोई भी हुक्म जारी करने से पहले अंग्रेज अधिकारी की इजाजत लेनी पड़ती थी। एक दिन लाल किले में बादशाह के बेटे मिर्ज़ा जहांगीर (बहादुर शाह जफ़र के भाई) ने अंग्रेज रेजिडेंट का मज़ाक उड़ा दिया। मिर्ज़ा जहांगीर की उस हरकत ने अंग्रेज अफसर को नाराज कर दिया लेकिन कुछ दिन बाद मिर्ज़ा जहांगीर ने उसी अंग्रेज अफसर पर गोली चला दी। अफसर तो बच गया लेकिन शहजादे मिर्ज़ा जहांगीर को क़ैद कर इलाहाबाद भेज दिया गया।

1812 से सैर-ए-गु-फरोशां की शुरुआत हुई थी

अकबर शाह द्वितीय की बेग़म मुमताज महल ने अपने बेटे मिर्ज़ा जहांगीर के दोबारा दिल्ली लौटने के लिए दुआ मांगी, उन्होंने कहा कि अगर उनका बेटा दोबारा दिल्ली लौट आएगा तो वे कुतुब साहब की मज़ार पर फूलों की मसहरी चढ़ाएंगी, एक मां की दुआ क़बूल हुई और 1812 से ''सैर-ए-गुल-फरोशां'' की शुरुआत हुई।

राणा सफवी (Rana Safvi) के मुताबिक ''सात दिन के लिए शाही कुनबा और दरबार लाल किले से महरौली स्थानांतरित कर दिया गया था''। मुमताज महल मन्नत पूरी होने पर नंगे पैर फूलों की चादर लेकर महरौली पहुंची थी जिसमें शहर भर के तमाम हिंदू-मुसलमान शरीक हुए, ऐसा लग रहा था मानो कोई मेला लगा हो। फूल वालों ने जो मसहरी बनाई थी उसमें ख़ूबसूरती के लिए एक फूलों का पंखा भी लटका दिया था।

बताया जाता है कि बादशाह अकबर शाह द्वितीय को मेला बहुत पसंद आया उन्होंने दिल्ली वालों से कहा कि अगर हर साल भादों के शुरू में ये मेला हुआ करे तो कैसा रहेगा? मुसलमान दरगाह शरीफ पर पंखा चढ़ाएं, हिंदू जोगमाया जी पर, मुसलमानों के पंखा चढ़ाने के दौरान हिंदू और हिंदुओं के पंखा चढ़ाने के दौरान मुसलमान शरीक हों, इससे दोनों क़ौमों में आपसी मेल-जोल भी बढ़ेंगे। दिल्ली के लोगों को ये बात बहुत पसंद आई और तभी से फूलवालों की सैर के उत्सव की बुनियाद पड़ गई।

कुतुब को चला मेरा अकबर का ठेला

न रास्ते में जंगल न मिलता है टीला

राणा सफवी के मुताबिक ''मुगल परिवार ने पहला पंखा भादो की पंद्रह तारीख को योगमाया मंदिर पर चढ़ाया था, इसके अगले दिन दरगाह में पंखा और चादर चढ़ाने के लिए पूरा शाही परिवार जुलूस की शक्ल में निकला''।

जवाहरलाल नेहरू ने दोबारा शुरू करवाया था उत्सव

रानियां, राजकुमारियां और राजकुमार फूलों की डलिया में फूल इत्र और मिठाइयां रखकर अपने सिर पर लेकर चले थे। राना सफवी अपनी किताब 'Where stones Speak' में लिखती हैं कि 1857 तक चादर और पंखा चढ़ाने का रिवाज इसी तरह बदस्तूर कायम रहा। 1857 के बाद भी अंग्रेजों ने इस परंपरा को जिंदा रखा। वे आगे लिखती हैं कि 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अंग्रेजों ने इस पर रोक लगा दी। लेकिन भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1962 में इसे दोबारा शुरू करवाया और तब से यह त्योहार हर साल आयोजित होता आ रहा है।

''ये सैर मॉर्निंग वॉक नहीं है''

गुज़रते वक़्त के साथ ये क़ौमी उत्सव और कितनी दूर तक जा पाएगा कहना मुश्किल है। हमने अंजुमन सैर-ए-गुल-फरोशां की जरनल सेक्रेटरी उषा कुमार से बात की वे कहती हैं कि ''कोरोना के बाद 2022 में भी कार्यक्रम हुआ था और काफी मुश्किल हुई थी क्योंकि दो साल (कोरोना काल) में काफी कुछ बदल गया था, कुछ लोग गुज़र गए थे, इस बार फिर कई तरह की परेशानियां पेश आई हैं, पर ठीक है हम लोग कर रहे हैं किसी तरह से, चलता है जब तक चले, मैं इससे 1971 से जुड़ी हूं, ये शुरू हुआ था 1812 में अकबर शाह द्वितीय के समय में फिर ये सैर 1942 में बंद हो गई लेकिन फिर 1961 से चालू हुई तो मेरे पिता योगेश्वर दयाल भी उन प्रयासों में शामिल थे, तो तभी से ये हम कर रहे हैं। पहले ये दो दिन की होती थी कुश्ती और उत्सव एक दिन होता था और दरगाह और मंदिर का कार्यक्रम एक दिन होता था, फिर हमने उनको अलग-अलग कर दिया पहले ये सनडे को होता था (मुख्य उत्सव) लेकिन फिर हमने इसे शनिवार को शिफ्ट किया क्योंकि ये पूरी रात होता है ताकि लोगों को दिक्कत न हो, अभी भी कुश्तियां होती हैं आम बाग़ में और अब आयोजन सात दिन का हो गया है।'' वे आगे कहती हैं कि ''लोगों को पता तो है कि ये होता है लेकिन क्या होता है और कैसे होता ये नहीं पता, लोग मुझसे पूछते हैं क्या फूल वाले लोग सैर को जाते हैं? या मॉर्निंग वॉक को जाते हैं क्योंकि सैर का मतलब अब मॉर्निंग वॉक हो गया है, तो जब लोगों को कहती हूं ये सैर मॉर्निंग वॉक नहीं है तो लोग हैरान होते हैं कि फूल वालों की सैर का क्या मतलब है।''

क़ौमी एकता को सलामत रखने की कोशिश करती पुरानी पीढ़ी

उषा कुमार अपने पुराने दिनों को याद करते हुए कहती हैं कि ''मेरी उम्र काफी हो गई लेकिन बचपन से जो मैंने देखा है, दिल्ली की जो परंपरा, माहौल था कि ईद पर हिंदुओं के घर सेवइयां बनती थी और दिवाली पर हर मुस्लिम घर के आगे दिए जलते थे तो हम उस कल्चर से निकल कर आए हैं, हम उसे कायम रखना चाह रहे हैं। इस उत्सव का संदेश भी यही है कि एक-दूसरे के मज़हब की इज्जत करें, एक दूसरे के त्योहारों में हिस्सा लें, मैंने देखा है जब हम चांदनी चौक में रहते थे मुस्लिम लोग आते थे, ईद पर गले मिलने और दिवाली पर हमारे पिताजी के मुस्लिम दोस्त थे, वे आते थे। हमें मेला दिखाने, खिलौने दिलवाते थे दरीबा से, लेकिन अब तो बहुत कुछ बदल गया है। हालांकि हमारी पीढ़ी के लोग इसे अब भी संभालने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन आगे का पता नहीं।''

मुख्य आयोजन

सात तक चलने वाले इस उत्सव के मुख्य कार्यक्रम हैं-

-  कुतुब साहब की दरगाह पर पंखा और फूलों की चादर चढ़ती है

- योग माया जी (जोग माया) के मंदिर पर भी पंखा पेश किया जाता है

- आख़िरी दिन जहाज महल पर सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है

फूलों से सजी कुतुब साहब की दरगाह और योगमाया जी का मंदिर

आयोजन के आख़िर दिन हम जहाज महल पहुंचे लेकिन जिसने आज से क़रीब 30 साल पहले अगर इस आयोजन को देखा होगा तो अंतर साफ तौर पर बता सकता है। छोटे से आयोजन में बहुत सी कुर्सियां खाली पड़ी थी, हालांकि लोकल लोगों की भीड़ कार्यक्रम स्थल के बाहर से ज़रूर आयोजन को देखने में दिलचस्पी दिखा रही थी।

जिस वक़्त ये आयोजन शुरू किया गया होगा खुली जगह, शम्सी तालाब का किनारा और एक ख़ूबसूरत जहाज की शक्ल का महल चुना गया लेकिन किसे पता था वक़्त के साथ वो खुली जगह तंग गली और रिहायशी जंगल में तब्दील हो जाएगी और ट्रैफिक के शोर के बीच बस प्रशासन किसी तरह इस कार्यक्रम को ठीक से निपटा देने में जूझता नज़र आएगा।

''बहुत ही ज़्यादा ज़रूरी है कि पुराने उत्सव होते रहें''

इस उत्सव के आख़िरी दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम में हमें चांदनी मिली, वे अपने दो छोटे बच्चों को पहली बार इस आयोजन को दिखाने के लिए लाई थीं। वे कहती हैं कि ''हम हर साल आते हैं, बीच में (कोरोना काल) बंद हो गया था लेकिन इस साल फिर से हो रहा है तो मैं अपने बच्चों को दिखाने के लिए लाई हूं। मैं कम से कम दस साल से यहां आ रही हूं लेकिन बच्चों को लेकर पहली बार आई हूं। इस तरह के उत्सव दिल्ली में होने बहुत ज़रूरी हैं क्योंकि पिछली चीजें लोग भूलते चले जा रहे हैं। आजकल तो बस मोबाइल की दुनिया हो गई है और उसमें ये परंपरा से जुड़े उत्सव ख़त्म होते जा रहे हैं, लेकिन ये बहुत ही ज़्यादा ज़रूरी है कि ये पुराने उत्सव होते रहें ताकि लोगों को पता चले कि ऐसे उत्सव भी होते हैं और यही दिखाने में अपने बच्चों को यहां लाई हूं''।

चांदनी से मिलकर बहुत ख़ुशी हुई कि वे अपने बच्चों को इस तरह के कार्यक्रम का हिस्सा बनाने के लिए लेकर आई। उन्हें इस उत्सव से जुड़ी कहानी आज भी बता रही हैं लेकिन उस वक़्त बहुत ही मायूसी हाथ लगी जब कुतुब साहब और योग माया के मंदिर पर मिले नौजवान पीढ़ी से जब फूलवालों की सैर के बारे में पूछा तो उन्हें मुकम्मल जानकारी नहीं थी। ऐसा लग रहा था चारों तरफ हज़ारों फूल ही फूल हैं लेकिन उसमें अब वो पहली वाली क़ौमी एकता की ख़ुशबू नहीं रही।

अकबर शाह द्वितीय के बाद बहादुर शाह ज़फर ने भी फूलवालों की सैर को बदस्तूर जारी रखा लेकिन जिस दम उन्हें देश से दूर रंगून भेज दिया गया वो अपने वतन के लिए तड़पते रहे। फिर उन्हें न वतन की मिट्टी नसीब हुई और न ही लौट कर दिल्ली आना और ''सैर-ए-गुल-फरोशां'' में शामिल होना, लेकिन पहली सैर के दौरान उन्हें एक बेहद ख़ूबसूरत शेर पढ़ा था।

वाकई सैर है ये देखने के काबिल

चश्म-ए-अंजुम हो न इस सैर पे क्यों माइल

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