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दिल्ली झुग्गी प्रकरण: मी-लॉर्ड ये ग़रीब कहां जाएंगे यह भी बता देते!

सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेवारी है कि ‘‘संवैधानिक अधिकारों के पालन में अगर कोई कोताही होती है तो उसे लागू कराना, लेकिन यहां सुप्रीम कोर्ट खुद ही संवैधानिक अधिकारों के ख़िलाफ़ खड़ा होता नज़र आ रहा है।
दिल्ली झुग्गी प्रकरण

सुप्रीम कोर्ट ने 31 अगस्त और 1 सितम्बर 2020 को दो फैसले दिये। 31 अगस्त के आदेश में कहा गया कि रेलवे की जमीन पर बसी हुई 48,000 झुग्गियों को तीन माह के अन्दर हटा दिया जाए। 1 सितम्बर के फैसले में कोर्ट ने राजस्थान की बिजली वितरण कम्पनियों की याचिका को खारिज कर दिया जिससे अडानी ग्रुप को 5000 करोड़ की बचत हो गई। इन दोनों फैसलों में न्याय करने वाले मी-लॉर्ड अरूण मिश्रा उपस्थित थे जो दो सितम्बर, 2020 को रिटायर हो गये।

हम बात करते हैं 31 अगस्त, 2020 के एम.सी. मेहता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एंड अदर्स, 13029/1985 के फैसले की जिसमें मी-लॉर्ड ने कहा है कि तीन माह में चरणबद्ध तरीके से रेलवे की जमीन पर बसी हुई 48,000 झुग्गियों को तोड़ दिया जाये। उन्होंने यह नहीं बताया कि तोड़ने से पहले इन परिवारों को कहां और कैसे बसाया जाये, पुर्नवास नीति क्या होगी? 

मी-लॉर्ड ने कहा है कि अपेक्षित राशि का 70 प्रतिशत हिस्सा रेलवे और 30 प्रतिशत हिस्सा राज्य सरकार द्वारा दिया जाएगा। कार्यबल एसडीएमसी, रेलवे और सरकारी एजेंसियों द्वारा निःशुल्क उपलब्ध किया जाएगा और वे इसे एक-दूसरे के लिए चार्ज नहीं करेंगे। यानी मी-लॉर्ड ने यह नसीहत दी है कि आपस में लड़ने की जरूरत नहीं है सब एजेंसियां एकजुट होकर इन्हें उजाड़ने में एक हो जायें। अपेक्षित राशि किसके लिए कहा गया है इसका कोई जिक्र नहीं है क्योंकि पुनर्वास के विषय में बोला ही नहीं गया है तो हो सकता है कि फोर्स को लाने-ले जाने, बुलडोजर इत्यादि के किराये के लिए कहा गया हो।

मी-लॉर्ड ने यह भी तय कर दिया कि कोई राजनीतिक हस्तक्षेप या किसी कोर्ट के द्वारा स्टे नहीं लगाया जा सकता है। यानी देश का सुप्रीम कोर्ट अब राजनीतिक पार्टियों के लिए एजेंडा भी देने लगा है कि वह किस पर विरोध कर सकती हैं किस पर नहीं! भारत का संविधान हर नागरिक को सम्मानपूर्वक जीवन जीने, लिखने बोलने, विरोध करने की आजादी देता है। सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश क्या संविधान की धारा 19 (1) का उल्लंघन नहीं है। यह उल्लंघन है दिल्ली सरकार द्वारा बनाई गई नीति ‘स्लम एंड जेजे रिहैबिलिटेशन एंड रीलोकेशन पॉलिसी 2015 का जिसको दिसम्बर 2017 में उपराज्यपाल ने अधिसूचित भी कर दिया है। जिसमें कहा गया है कि 2006 तक बसी हुई बस्ती और 2015 तक के दस्तावेज वाली झुग्गी को तोड़ने से पहले पुर्नवास किया जायेगा। यह उल्लंघन है अजय माकन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2019) के दिल्ली उच्च न्यायलय के निर्णय का जिसमें कहा गया है कि दिल्ली की पुनर्वास नीति केन्द्र सरकार के जमीन पर भी लागू होगी जिसे केन्द्र सरकार के द्वारा भी सहमति दी गई है। सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेवारी है कि ‘‘संवैधानिक अधिकारों के पालन में अगर कोई कोताही होती है तो उसे लागू कराना, लेकिन यहां सुप्रीम कोर्ट खुद ही संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ खड़ा होता नजर आ रहा है।

कोरोना काल में एक तरफ लोगों को घरों में रहने की हिदायत दी जा रही है तो दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट लोगों के घरों पर बुलडोजर चलाने की बात कर रहा है। डुसूब लिस्ट के अनुसार दिल्ली में 60 झुग्गी बस्ती रेलवे के जमीन पर है जिन पर 43634 झुग्गियां हैं। 7 बस्ती रेलवे और डीडीए के जमीन पर बसी हैं जिसमें 4794 झुग्गियां हैं इस तरह से 48428 झुग्गियों को तोड़ने का फारमान जारी कर दिया गया है। इन झुग्गियों में काफी झुग्गियां दो-तीन मंजिला हैं यानी करीब 4-5 लाख आबादी को बेघर करके सड़क पर लाने का प्लान है।

झुग्गी बस्ती आई कहां से

विकास के नाम पर गांवों को उजाड़ा जा रहा है। गांव के कृषि, लघु उद्योग, हस्तशिल्प को देशी-विदेशी धनपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए नष्ट किया जा रहा है। किसानों, आदिवासियों की जमीन छीनकर देशी-विदेशी लुटेरों को सेज व औद्योगिक कॉरिडोर बनाने और खनन के नाम पर दिया जा रहा है। इससे गांव का पलायन बढ़ा है और भारत की करीब 35 प्रतिशत आबादी शहरों में निवास करने लगी है जिसे भारत के भूतपूर्व वित्तमंत्री पी चिदम्बरम 80 प्रतिशत तक बढ़ाने की बात करते थे।

गांव से उजड़ कर जब वहां के किसान-मजदूर शहर को आते हैं तो उनकी शरणस्थली झुग्गी-बस्ती होती है। जिन लोगों को यहां पर शरण नहीं मिल पाती है वह फैक्ट्रियों में, फुटपाथ पर शरण लेते हैं। फैक्ट्रियों में शरण लेने के कारण कई बार आग लगी के कारण मजदूरों की जान चली गई है। फुटपाथ पर सोते समय कभी ठंड से तो कभी लू लगने से तो कभी गाड़ी चढ़ जाने से इन लोगों की जाने चली जाती हैं। आज के समय झुग्गी बस्ती मेहनतकश जनता के लिए वैसी ही है जैसा मछली के लिए जल। अगर झुग्गियां नहीं रहीं तो मजदूरों को रहने के लिए आवास की कोई सुविधा नहीं है। सरकार द्वारा की गयी व्यवस्था ऊंट के मुंह में जीरा के समान है।

महानगरों में इन्डस्ट्रीयल इलाके बना दिये गये लेकिन मजदूरों के लिए आवास का प्रबंध नहीं किया गया। मजदूरों को दूर-दूर से काम करने कारखानों में जाना पड़ता था जब वह बेकार पड़ी जमीन पर झुग्गियां बना ली और रहने लगे। धीरे-धीरे शहरों का विकास हुआ जमीनों की कीमतें बढ़ने लगी तो लोगों को समय-समय पर उजाड़ा जाने लगा। यही कारण है कि कभी दिल्ली के क्षेत्रफल के ढाई से तीन प्रतिशत पर झुग्गी बस्तियां थी लेकिन आज के समय दिल्ली के क्षेत्रफल के मात्र आधे प्रतिशत जमीन पर 675 नोटिफाईड बस्तियां बसी हुई है जिसमें 306521 झुग्गियां हैं। सरकारी जनगणना के अनुसार करीब 16 लाख लोग झुग्गी-बस्तियों में रहते हैं। लेकिन वास्तविकता अलग है ज्यादातर बस्तियां में दो-तीन मंजिल का मकान बना है जिसमें दो से तीन परिवार हैं लेकिन सरकारी रिकॉर्ड में इसे एक ही यूनिट मानी जाता है।

इस तरह झुग्गी बस्ती में रहने वाली आबादी करीब करीब 40 लाख के आस-पास है। दिल्ली की अधिकतर बस्तियां 30-40 साल पुरानी हैं उस समय बस्तियों के स्थान पर खड्ढे,  जंगल हुआ करते थे लोगों ने उसे साफ सुथरा करके रहने लायक बनाया और अपनी जिन्दगी की कमाई का एक बड़ा हिस्सा अपने घरों को बनाने में लगा दिया। हर 5-10 साल बाद उनको अपने बनाये हुए घरों को तोड़कर ऊंचा करना पड़ता था क्योंकि समय-समय पर सड़कें ऊंची की जाती रही हैं, उनके घरों में बारिश का पानी भर जाया करता था इस तरह से लोगों ने उस जगह पर अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा लगा दिया है। जब वह जमीन कीमती हो गई तो उनको ही चोर समझा जाने लगा जैसा कि दिल्ली हाईकोर्ट ने एक बार कहा था कि ‘‘इनको पुनर्वास करना जेबकतरों को इनाम देने जैसा है’’। दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा या जो अभी सुप्रीम कोर्ट का फारमान आया है वह एक तरह से भारत के शासक वर्ग की मेहनतकश जनता की प्रति सोच को ही दर्शाता है।

इन झुग्गी झोपड़ियों के कारण ही सस्ते मजदूर मिल जाते हैं जिनके खून-पसीने से शहर बनता है और शहर भी उन्हीं के बल पर चलता है। यहीं से फैक्ट्री मजदूर, ड्राइवर, घरेलू कामगार, राज मिस्त्री, बेलदार, पीयून, चौकीदार इत्यादी तरह के काम करने वाले मिलते हैं। भारत के आर्थिक अर्थव्यवस्था में इन मजदूरों का अच्छा खास योगदान होता है लेकिन सरकार उनकी इस योगदान को नहीं मानती है। यहां पर केवल आवास ही नहीं छोटे-छोटे काम भी होते हैं जिसके कारण लागत कम होती है। कीर्तिनगर के अन्दर ही देखा जाये तो रेलवे लाइन के किनारे बस्तियों में कमला नेहरू कैम्प, संजय कैम्प, जवाहर कैम्प, इंदिरा कैम्प, हरिजन बस्ती हैं जिसमें करीब 200 घरों में फर्नीचर, बेड, सोफे बनाने का काम होता है। वहां के बनाये हुए सोफे, कुर्सियां, बेड बड़े-बड़े शोरूम में बिकते हैं जो कि देश की अर्थव्यवस्था में योगदान करता है। हो सकता है कि मी-लॉर्ड ने जिस कुर्सी पर बैठ कर यह फैसला सुनाया हो वह कुर्सी भी इन्हीं बस्तियों की बनी हुई हो। यह भी हो सकता है जिस गद्देदार बेड पर शासक को अच्छी नींद आती हो वह बेड भी इन्हीं बस्तियों में रहने वाले कारिगरों के हाथों से बने हों। एक तरफ जनता गिरते हुए देश की अर्थव्यवस्था, जाती हुई नौकरी से परेशान है तो दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट के फरमान ने लाखों लोगों को सड़क पर लाने के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था को और संकट में डालने का काम कर दिया है।

अगर इन बस्तियों को उजाड़ा जा रहा है तो न केवल अर्थव्यवस्था नीचे जायेगी बल्कि यह गरीब लोग और गरीबी के गर्त में जायेंगे जिसका जिक्र ’संयुक्त राष्ट्र यूनिवर्सिटी वर्ल्ड इंस्टीच्यूट फॉर डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स रिसर्च’ के प्रकाशित रिपोर्ट में भी किया है कि कोरोना काल में गरीबी और बढ़ेगी। आम आदमी पार्टी (आप) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने सत्ता में आने के लिए चुनाव में वादा किया था कि ‘जहां झुग्गी वहां मकान’ वह वादा भी खोखला साबित होगा। प्रधानमंत्री ने लालकिले से घोषणा की है कि 2022 तक सभी को मकान दिया जायेगा लेकिन आज जब इन गरीबों के मकान टूटने की कगार पर है तो वे चुप हैं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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