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दिल्ली हिंसा: टूटी उम्मीदें, बिखरा जज़्बा और फैली हुई तबाही

न्यूज़क्लिक ने रिलीफ़ कैंप में रह रहे कुछ हिंसा पीड़ितों से बात की। इन लोगों ने दंगों में ज़िंदा रहने के अपने संघर्ष की कहानी सुनाई।
Delhi Violence: Shattered Hopes
मुस्तफाबाद ईदगाह में दिल्ली वक़्फ बोर्ड द्वारा बनाया गया रिलीफ़ कैंप

उत्तर-पूर्व दिल्ली की गोंडा विधानसभा का गांव ''गरही मेंदु'' उजड़ा-उजड़ा नज़र आता है। आगज़नी का शिकार, टूटे-फूटे और लुटे हुए घर यहां 23 से 26 फरवरी के बीच हुई सांप्रदायिक हिंसा की गवाही देते हैं। इस छोटे से गांव में अब कोई मुस्लिम परिवार नहीं बचा। दंगाईयों के डर से सब गांव छोड़ चुके हैं।

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एक मां हमेशा सबसे अच्छी दोस्त होती है। श्रीराम कॉलोनी के रिलीफ़ कैंप में मौजूद गढ़ी मांडू की एक हिंसा पीड़िता अपने बच्चे के साथ।

गांव में एक किस्म की मुर्दाशांति है, जैसे ही किसी अजनबी के कदम गांव में पड़ते हैं, सारी निगाहें शक के साथ उसकी तरफ मुड़ जाती हैं। तबाह हुए घरों की फोटोग्राफी करने से स्थानीय लोग सहज नहीं हैं। वे नहीं चाहते कि गरही मेंदु में तबाही के अवशेष दुनिया के सामने आएं।

65 साल के अकील अहमद और उनकी पत्नी गरही मेंदु के दूसरे मुस्लिमों से ज़्यादा हिम्मत वाले थे। जब तक अहमद और उनके परिवार पर सीधा हमला नहीं हुआ, उन्होंने गांव नहीं छोड़ा। जब अहमद के घर के पास में बनी गांव की इकलौती मस्जिद पर हमला हुआ, तब 24 फरवरी की रात को मुस्लिमों ने गांव छोड़ना शुरू कर दिया था।

लेकिन अहमद ने हिम्मत नहीं हारी और गांव में ही डटे रहे। उन्हें लगा कि समाज के ज़िम्मेदार बड़े-बुजुर्ग दंगाईयों को शांत करवा लेंगे। लेकिन अहमद गलत साबित हुए।

खजूरी में मुस्लिम बहुल-श्रीराम कॉलोनी में बने एक रिलीफ़ कैंप में वक़्त काट रहे अहमद ने बताया, ''मग़रिब अज़ान के बाद ही 24 फरवरी को हमारी मस्जिद पर हमला हो गया। सबकुछ मिटा दिया गया। मुस्लिम समुदाय के लोग घबरा गए और जान-बचाने के लिए गांव छोड़ने लगे। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। मैं नहीं गया। लेकिन वह रात हमारी जिंदगी की सबसे लंबी रात थी। चारों तरफ मुस्लिम विरोधी नारों के साथ ''जय श्री राम'' की आवाज़ें गूंज रही थीं। सुबह तक सब ठीक होने की उम्मीद में हमने पूरी रात डर के साये में काटी।'' खजूरी का यह कैंप दिल्ली सरकार ने लगाया है।

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खजूरी की श्रीराम कॉलोनी के रिलीफ़ कैंप में अकील अहमद अपनी पत्नी के साथ

अहमद अपना दुख बांटते हुए आगे कहते हैं, ''अगली सुबह करीब पौने आठ से आठ बजे के बीच दंगाईयों ने मुस्लिमों के घरों को लूटकर, उनमें तोड़फोड़ और आग लगाना शुरू कर दिया। दंगाईयों की उम्र 18 से 25 साल के बीच थी। पहला निशाना मेरा घर बना। मुझे बाहर खींचा गया। फिर लाठियों और लोहे की रॉड से बुरी तरह मारा गया। इस बीच मुझे सिर पर चोट लगी और मैं बेहोश हो गया। आगे जो हुआ, वो मैं नहीं जानता। पर जब मुझे होश आया, तो मैंने खुद को खून से लथपथ पाया। हमें कुछ पुलिसवालों ने बचाया था, वही हमें यहां लेकर आए थे।''

अहमद कहते हैं, ''मेरे घर में कोई कीमती सामान नहीं था, महज़ कुछ कपड़े, एक बिस्तर, चंद बर्तन और रोज़ाना इस्तेमाल होने वाली थोड़ी-बहुत दूसरी चीजें थीं। फिर भी मेरे घर में बुरे तरीके से तोड़फोड़ की गई और उसका कुछ हिस्सा जला दिया गया।''

अहमद की बेहोशी के बाद की दास्तां उनकी बेग़म बयां करती हैं। वे बताती हैं, ''जब हमला हुआ, तब हम खाना खा रहे थे। स्थानीय लड़कों वाली एक दंगाई भीड़ ने पहले हमारा मेनगेट तोड़ दिया। मेनगेट को मैंने अंदर से बंद कर, उसके पीछे लकड़ी के तख़्ते रख दिए थे। ताकि कोई आसानी से गेट ना खोल सके। दंगाईयों ने भारी-भारी लोहे की रॉड से गेट तोड़ दिया। इसके बाद दंगाई घर में घुसे और मेरे शौहर को खींचकर बाहर निकाल ले गए। वो लगातार हमें गालियां दे रहे थे और मेरे पति को बुरे तरीके से पीटते जा रहे थे। इसके बाद दंगाईयों ने हमारे बिस्तर पर कुछ जलने वाली चीज डाल दी। शायद पेट्रोल या थिनर था। दंगाईयों ने उसे जलाने की कोशिश की, लेकिन उनकी माचिस से काम नहीं हुआ। उन्होंने बेड के पास टेबिल पर पड़ी हमारी माचिस का इस्तेमाल किया। आग लगाने के बाद उन्होंने बाकी घर में भी तोड़फोड़ की।''

अहमद की बेग़म आगे बताती हैं कि दंगाई जल्दी में थे। जैसे ही आगजनी बढ़ी, तो उन्होंने घर को उसके हाल पर छोड़ दिया। वह कहती हैं, ''मैंने तुरंत पानी डाला और आग बुझाई। उनमें से एक ने मुझे यह काम करते हुए देख लिया और बाकी दंगाईयों को चिल्लाते हुए बताया। लेकिन भीड़ वापस नहीं लौटी। उनके निकलने के बाद पुलिस हमारे घर पर आई और हमें बचाया।''

भीड़ ने अपने रास्ते में पड़ी सभी गाड़ियों को भी जला दिया। साफ है कि उन्हें पता था कि यह गाड़ियां किन लोगों की थी।

गांव में हुई हिंसा में एक पैटर्न दिखाई देता है। गांव के प्रभुत्वशाली गुज्जर ज़मींदारों के यहां काम करने वाले मुस्लिम मजदूरों को नुकसान नहीं पहुंचाया गया। उनमें से कुछ लोग अब भी गांव में मौजूद हैं।

पूरा गांव यमुना के किनारे किसानी की ज़मीन पर बसा है। यह ज़मीन स्थानीय गुज्जर ज़मींदारों ने मुस्लिमों को बेची थी। अब गुज्जर समुदाय अपनी ज़मीन को जोर-जबरदस्ती से वापस पाना चाहता है। गुज्जर समुदाय, नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध से पैदा हुई स्थितियों का फायदा उठा रहा है।

बता दें दिल्ली में तब हिंसा शुरू हुई, जब हिंदू राष्ट्रवादियों ने विवादित ''नागरिकता संशोधन अधिनियम(CAA)'' और प्रस्तावित NRIC के विरोध में बैठे प्रदर्शनकारियों पर हमला किया।

मुस्लिम समुदाय, कानून (CAA) को भेदभावकारी और संविधान विरोधी बताते हुए इसे वापस लेने की मांग कर रहा है। उन्हें डर है कि CAA और NRIC से घालमेल की जो स्थिति बनेगी, उसके चलते कई मुस्लिमों की नागरिकता खत्म हो जाएगी। NPR, देशभर में होने वाली NRIC का पूर्ववर्ती कदम है।

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खजूरी की श्रीराम कॉलोनी के रिलीफ़ कैंप में किशोर लड़के और लड़कियां लूडो खेलते हुए

मूलत: उत्तरप्रदेश में बिजनौर के रहने वाले बुजुर्ग दंपत्ति बताते हैं कि गुज्जर लोगों ने बड़ी धूर्तता से उनसे कहा कि उनका मक़सद हमसे ज़मीन खाली करवाना है। दंपत्ति ने बताया, ''तुम भाग जाओ, तुम्हारे मकान पर कब्ज़ा करना है। तुम्हारा यहां कुछ नहीं है अब।''

अहमद के परिवार का माचिस का छोटा सा धंधा है। परिवार पिछले 3 साल से गांव में ज़मीन खरीदकर रह रहा है। समुदाय के कुछ दूसरे लोग करीब 14 सालों से भी वहां रहते आए हैं।

जब हमने उनसे पूछा कि पिछले 14 साल का सामाजिक धागा इतनी से तेजी से कैसे टूट गया। क्या स्थानीय लोगों ने दखल नहीं दिया और उनसे वापस आने के लिए नहीं कहा। दंपत्ति ने बताया, ''हमारे किसी भी पड़ोसी ने दख़ल देकर हमें बचाने की कोशिश नहीं की। वो चुपचाप देखते रहे। दंगाई उन्हीं के लड़के थे। हिंसा में शामिल कोई भी आदमी बाहरी नहीं था। उन्होंने यह माहौल बनाया कि CAA के विरोध में चल रहा प्रदर्शन हिंदू-विरोधी है। जबकि यह सही नहीं है। देश के मुसलमान सरकारी फ़ैसले का विरोध कर रहे हैं, किसी एक समुदाय का नहीं। हम तो CAA विरोधी प्रदर्शनों का हिस्सा भी नहीं थे। हम पर हमला क्यों किया गया?''

डर बहुत बढ़ चुका है। भरोसा इतना टूट गया है कि एसडीएस के सुरक्षा की गारंटी देने के वायदे पर भी दंपत्ति वापस लौटने को तैयार नहीं हैं। अहमद ने बताया, ''एसडीएम साहब कह रहे हैं कि तुम वहीं रहो, हम उनमें से किसी को तुम्हारे लिए ज़िम्मेदार बनाएंगे। लेकिन हमें भरोसा नहीं है। अब तो हिम्मत नहीं है लौट कर जाने की। इस बार तो बच कर निकल गए, अगली बार शायद ना बच पाएं।''

उसी गांव की रहने वाली नफ़ीसा अपने दो छोटे बच्चों को चुप कराने की कोशिश कर रही हैं। इनमें से एक को तेज बुख़ार है। नफ़ीसा बताती हैं, ''दंगाईयों ने हमें अपना घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया। उन्होंने हमारा घर भी जला दिया। हमले में मेरे पिताजी को चोट आई है। मेरे पति का मुंबई में फेरी का छोटा सा धंधा है। उनकी मेहनत से कमाए पैसे से हमने दो कमरों का एक छोटा सा घर बनाया था। चंद मिनटों में ही उस घर को तबाह कर दिया गया।'' यह कहते हुए नफ़ीसा रोने लगती हैं।

नफ़ीसा बताती हैं कि जब चीखते हुए रो रही थीं और रहम की भीख मांग रही थीं, तब कोई भी पड़ोसी उन्हें बचाने के लिए नहीं आया। नफ़ीसा कहती हैं कि अगर हालात सामान्य हो गए, तो वे लौटना पसंद करेंगी। क्योंकि गांव के लोगों के पास रहने के लिए कोई विकल्प मौजूद नहीं है। रिलीफ़ कैंप में ज़्यादा दिन रुकना मुमकिन भी नहीं है। 

नफ़ीसा आगे कहती हैं, ''मैं खुदा से गुजारिश करती हूं कि जिंदगी पहले जैसी हो जाए। हम घर लौट सकें। कोई भी इन कैंपों में रहना नहीं चाहता। हालांकि अब भी भरोसे की बहुत कमी है। हमारे गांव से किसी ने हमसे संपर्क नहीं किया। न ही हमसे वापस आने को कहा। लेकिन हमारे पास कोई दूसरा चारा भी नहीं है। देखते हैं कैसे जिंदगी दोबारा शुरू होती है।''

दो बेटियों और एक बेटे की मां, 36 साल की नसरीन अपने-आप को ढांढस ही नहीं बंधा पा रही हैं। वो दो साल पहले अपने पति को खो चुकी हैं। नसरीन और उसके पति ने जिंदगी में जो भी इकट्ठा किया था, उससे घर बनाया था। लेकिन घर को पूरी तरह तबाह कर दिया गया। नसरीन की किराने की एक छोटी सी दुकान थी। पति के मरने के बाद यही उनके जिंदा रहने का ज़रिया थी। लेकिन हिंसा में उसे भी जला दिया गया। लूट लिया गया।

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अपने पति को खो चुकीं नसरीन ने गढ़ी मेंडू के दंगों में अपना घर और दुकान खो दिया। वो अपने आंसुओं पर नियंत्रण नहीं रख पा रही हैं। इसलिए उन्होंने कैमरे पर आने से इंकार कर दिया। दुकान ही नसरीन की आय का इकलौता ज़रिया था।

नसरीन बताती हैं, ''एक महीने पहले ही मेरे छोटे भाई की मौत हुई है। इसलिए मैं अपने मां-बाप के घर पर थी। मुझे 25 फरवरी को एक पड़ोसी का फोन आया। इस फोन ने मेरी जिंदगी हिला दी। मुझे बताया गया कि मेरी दुकान और घर को लूटकर जला दिया गया है। अब मैं कहां जाऊंगी। मैं क्या करूंगी? कौन मेरे बच्चों की जिम्मेदारी लेगा? मैं उन्हें खाना कैसे खिलाऊंगी?''

50 साल के निसार अहमद को अपने 6 बच्चों में सबसे बड़ी लड़की की शादी करनी थी। पेशे से बढ़ईगिरी का काम करने वाले अहमद अपनी बच्ची को ससुराल भेजने का ख़्वाब संजोए बैठे थे। लेकिन उन्हें अपनी किस्मत का कोई इल्म ही नहीं था। उनके घर पर हमला हुआ, उसे लूटा गया, फिर भी दंगाईयों का मन नहीं भरा तो घर में आग लगा दी गई।

आंसुओं से सरोबार अहमद अपने घर की तस्वीरें दिखाते हुए कहते हैं, ''उन्होंने पहले मेरे घर को लूटा। बेटी की शादी के लिए रखे सभी जवाहरात और नगद पैसा ले गए। एक चीज तक नहीं छोड़ी। जो कुछ बच गया, उसमें आग लगा दी। पुलिस हमें नुकसान की पहचान करने के लिए गांव ले गई थी। वहां मैंने अपनी पूरी जिंदगी की कमाई को राख होते हुए देखा। मैं अनपढ़ हूं, लेकिन मैंने अपने बच्चों को अच्छी तालीम देने का इरादा कर रखा था। वे अच्छे ढंग से पढ़-लिख भी रहे थे। लेकिन अब जब मेरे पास कुछ भी नहीं है, तब एक स्याह तकदीर उनका इंतज़ार कर रही है।''

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डर के साये में ख़ुशी। रिलीफ़ कैंप में आए पुराने कपड़ों में से अपने लिए एक दुपट्टा चुनने के बाद ख़ुशी मनाती एक छोटी बच्ची।

शिव विहार इलाके में सबसे ज़्यादा हिंसा हुई है। यहां जान-माल का नुकसान सबसे ज़्यादा है। दिल्ली वक़्फ बोर्ड द्वारा मुस्तफाबाद ईदगाह में बनाए गए एक शरणार्थी कैंप में शिव विहार की रहने वाली एक महिला ने बताया, ''हमने इतना बड़ा हंगामा पहले कभी नहीं देखा, सिर्फ सुना था, लेकिन अब देख भी लिया। सब तरफ पागल वहशी भीड़ ''जय श्रीराम'' का नारा लगाते हुए घूम रही थी। हम सोमवार की देर रात बचकर निकलने में कामयाब रहे। हम अपने बच्चों के बारे में भी फिक्रमंद थे, ख़ासकर बच्ची के बारे में। हमारी किस्मत अच्छी थी कि जब हमारे घर पर हमला हुआ, तो हम बच निकले।''

अपनी भावनाओं पर काबू पाने में मुश्किल का सामना कर रही महिला ने आगे बताया, ''मेरे घर को जलाकर राख कर दिया। मेरी बच्ची और बहू के आभूषणों को लूट लिया गया। हंगामा तो दिन में ही शुरू हो गया था। लेकिन हमें लगा कि मामला शांत हो जाएगा। लेकिन हुआ नहीं। हमारी कॉलोनी में तो गोलियां भी चलाई जा रही थीं।''

जब हमने महिला से पूछा कि वह बचने में कैसे कामयाब हुई, तो उन्होंने बताया, ''वो हमारे घरों में घुस चुके थे। लेकिन नकाबपोश लोगों में से ही कुछ ने हमें वहां से निकलने में मदद की। हम उन्हें नहीं जानते।''

महिला बताती हैं कि उनके पास 13 भैंसे भी थीं। लेकिन जब वो वापस लौटीं, तो उनमें से एक भी वहां मौजूद नहीं थी। महिला कहती हैं, ''मैं जिस घर में रहती थी, उसे पूरी तरह जला कर ख़ाक कर दिया गया। घर में दो किरायेदार भी थे। उनका सामान भी लूट लिया गया। अब हम खाली हाथ सड़क पर आ चुके हैं। रोटी के लिए भी हमें दूसरों की तरफ ताकना पड़ रहा है।''

1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के बाद से यह दिल्ली में हुई सबसे बड़ी हिंसा है। इन रिलीफ़ कैंपों में रहने को मजबूर सभी लोगों के दर्द की कहांनियां ऐसी ही हैं। किसी ने अपने करीबी को खोया है, तो कोई अपनी जिंदगी की पूरी कमाई से हाथ धो बैठा है। पूर्वी दिल्ली के दंगाग्रस्त इलाकों में सब जगह का हाल ऐसा ही है। दंगे में अब तक 50 से ज़्यादा लोग जान गंवा चुके हैं।

नफरत के इस माहौल में एक तरफ तबाही फैलाते दंगाईयों, चुपचाप बैठी पुलिस, दंगाईयों की मदद करते प्रशासन की कहांनियां हैं, तो दूसरी तरफ मोहब्बत, अमन और भाईचारे की दास्तां भी मौजूद हैं। इन सबके बीच दंगाग्रस्त इलाकों में दिल्ली और केंद्र सरकार का प्रशासन नदारद है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Delhi Violence: Shattered Hopes, Destruction and Courage

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