महाराष्ट्र में सत्ता में रहते हुए भी बढ़ रही हैं भाजपा की मुश्किलें
महाराष्ट्र की राजनीति में एक बार फिर दिलचस्प उथल-पुथल होने वाली है। पिछले तीन-चार महीने से भाजपा के नेता और सोशल मीडिया में उसके समर्थक दावा कर रहे थे कि बिहार में भी महाराष्ट्र की 10 महीने पुरानी की कहानी दोहराई जाएगी। यानी जिस तरह महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी सरकार का नेतृत्व कर रही शिव सेना को तोड़ कर भाजपा ने उसी के बागी नेता के नेतृत्व में सरकार बनाई थी, वैसा ही कुछ बिहार में होगा। महागठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे जनता दल (यू) को तोड़कर उससे अलग होने वाले धड़े के साथ मिल कर भाजपा की सरकार बनाने की बात हो रही थी। भाजपा की तमाम कोशिशों के बावजूद बिहार में तो ऐसा कुछ नहीं हो सका, उलटे महाराष्ट्र में भाजपा के सामने नई मुश्किल खड़ी हो गई है। उसके नेता इस बात से चिंतित हैं कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे सहित शिव सेना के 16 विधायकों की सदस्यता रद्द कर दी तो क्या होगा?
इस समय 288 सदस्यों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में सत्ताधारी गठबंधन के पास 162 विधायक है, इस लिहाज से 16 विधायकों की सदस्यता जाने से भी सरकार अल्पमत में नहीं आएगी, क्योंकि उसके बाद सदन 272 विधायकों का हो जाएगा और बहुमत का आंकड़ा घट कर 133 का रह जाएगा। इसके बावजूद क्या कारण है कि भाजपा के नेता एनसीपी के नेता अजित पवार को रिझाने में लगे हैं? क्या कारण है कि उद्धव ठाकरे गुट के नेता और राज्यसभा सांसद संजय राउत दावा कर रहे हैं कि 15-20 दिन में सरकार गिर जाएगी? एनसीपी नेता सुप्रिया सुले क्यों कह रही हैं कि अगले 15 दिन में महाराष्ट्र की राजनीति में दो धमाके होने वाले हैं? जाहिर है कि महाराष्ट्र में कोई तो खिचड़ी पक रही है।
वैसे तो 16 विधायकों के अयोग्य ठहराए जाने की स्थिति में भी सरकार बचाए रखने के लिए भाजपा को किसी की मदद की जरूरत नहीं है, लेकिन इसके बावजूद उसने एनसीपी को तोड़ कर अजित पवार को अपने साथ लाने की कोशिशें शुरू कर दी है। दूसरी ओर एकनाथ शिंदे की अगुवाई वाली शिव सेना को भाजपा की यह कोशिशें पसंद नहीं है और उसने साफ कर दिया है कि अगर अजित पवार के साथ एनसीपी का एक गुट उनके और भाजपा के गठबंधन में शामिल होता है तो वह सरकार छोड़ देगा।
दरअसल भाजपा का एकनाथ शिंदे से मोहभंग हो रहा है। पिछले करीब एक साल की राजनीति से भाजपा को अंदाजा हो गया है कि शिंदे अपने साथ शिव सेना के विधायकों का बहुमत जरूर ले आए हैं लेकिन उनके पास मूल शिव सेना का कैडर और वोट नहीं है। भले ही चुनाव आयोग ने दलबदल निरोधक कानून की मनमानी व्याख्या करते हुए शिंदे गुट को असली शिव सेना मान लिया है लेकिन शिव सैनिक अब भी उद्धव ठाकरे के साथ ही हैं और उन्हीं की पार्टी को असली शिव सेना मान रहे है। बृहन्नमुंबई महानगर निगम यानी बीएमसी का चुनाव टलते जाने की वजह भी यही है कि शिंदे गुट भाजपा को फायदा पहुंचाने की स्थिति में नहीं है। अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिहाज से भी शिंदे गुट की स्थिति ऐसी नहीं है कि उसके साथ मिल कर भाजपा पिछले चुनाव की तरह 41 सीटें हासिल कर सके। उसे फायदा तभी होगा, जब उद्धव ठाकरे वाली शिव सेना उसके साथ रहे या एनसीपी के साथ उसका गठबंधन हो, जो कि अभी संभव नहीं लगता। गौरतलब है कि राज्य की 48 लोकसभा सीटों में से पिछले चुनाव में भाजपा और शिव सेना ने मिल कर 41 सीटें जीती थीं। अकेले भाजपा को 23 सीटें मिली थीं।
भाजपा की सबसे बडी चिंता अपनी 23 सीटें बचाने की है, जिसमें उसे एकनाथ शिंदे गुट से ज्यादा मदद मिलती नहीं दिख रही है। इस बीच यह चर्चा शुरू हो गई कि अजित पवार भाजपा के साथ आ सकते हैं। सवाल है कि अजित पवार भाजपा के साथ जाकर उसे क्या फायदा पहुंचाएंगे?
महाराष्ट्र की राजनीति पर नियमित नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार अशोक वानखड़े का कहना है, ''जिस तरह शिव सेना में एकनाथ शिंदे के पास वोट नहीं हैं, वैसे ही एनसीपी में अजित पवार के पास भी वोट नहीं हैं। एनसीपी का जनाधार तो शरद पवार का बनाया हुआ है और उनके ही साथ है, जिसमें अजित पवार रत्तीभर भी सेंध लगाने की हैसियत नहीं रखते हैं। यह बात भाजपा भी अच्छी तरह जानती है, इसलिए अजित पवार को लेकर भी वह करेगी क्या?’’ जाहिर है कि अजित पवार का महत्व तब तक ही है, जब तक वे एनसीपी में हैं, एनसीपी छोड़ने के साथ ही उनका महत्व खत्म हो जाता है। इसलिए जिस तरह भाजपा ने शिंदे की मदद से सरकार तो बना ली लेकिन वोट का फायदा नहीं हो रहा है उसी तरह अजित पवार की मदद से सरकार तो बच सकती है लेकिन वोट का फायदा नहीं होने वाला है। वे भाजपा को लोकसभा की 23 सीटें जिताने में जरा भी मददगार नहीं हो सकते।
सूबे की राजनीति में कुछ बड़ी उथल-पुथल होने की चर्चाओं को एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले के उस बयान से भी हवा मिली है, जो उन्होंने 18 अप्रैल को दिया था। उन्होंने कहा था कि अगले 15 दिन में दो बड़े राजनीतिक धमाके होने वाले हैं- एक धमाका दिल्ली में होगा और दूसरा महाराष्ट्र में। उनकी दी हुई डेडलाइन में 10 दिन बीत गए हैं। इसका मतलब है कि अगले 5-6 दिनों में धमाका होने वाला है। उन्होंने जिन दो धमाकों का संकेत दिया है, उसमें से एक का अंदाजा सबको है। दिल्ली में धमाके से उनका मतलब सुप्रीम कोर्ट के फैसले से है। अगर दिल्ली में धमाका होता है यानी सुप्रीम कोर्ट मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उनके 15 विधायकों की सदस्यता समाप्त कर देता है तो महाराष्ट्र में भी धमाका होना तय है।
अब वह धमाका कैसा होगा, इसका ठीक-ठीक अंदाजा किसी को नहीं है। क्या महाराष्ट्र में पहली बार एनसीपी का मुख्यमंत्री बनेगा? शरद पवार ने कांग्रेस से अलग होकर 1998 में एनसीपी की गठन किया था और अगले साल के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को 58 सीट मिली थीं। तब कांग्रेस 75 सीट के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी थी और कांग्रेस व एनसीपी ने मिल कर सरकार बनाई थी। इसके अगले चुनाव में एनसीपी 71 सीट के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी और कांग्रेस 69 सीट के साथ दूसे नंबर की पार्टी हो गई। अजित पवार का कहना है कि 2004 में एनसीपी का मुख्यमंत्री बन सकता था लेकिन किसी कारण से ऐसा नहीं हो सका। कारण यह था कि उस समय शरद पवार केंद्र की कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार में मंत्री थे और उनकी बेटी सुप्रिया सुले का राजनीतिक करिअर शुरू नहीं हुआ था। अगर उस समय पवार अड़ते और कांग्रेस राजी हो जाती तो उनको छगन भुजबल, आरआर पाटिल या अजित पवार को मुख्यमंत्री बनवाना होता। सो, शरद पवार ने कांग्रेस का मुख्यमंत्री बनने दिया। अब अजित पवार चाहते हैं कि 2004 वाला मौका फिर आ रहा है। वे चाहते हैं कि भाजपा से बात हो और एनसीपी का मुख्यमंत्री बने। लेकिन शरद पवार के सामने फिर वही दुविधा है, जो 2004 में थी। उनको अजित पवार को मुख्यमंत्री बनाना होगा। अगर वे मुख्यमंत्री बने तो पार्टी पर उनकी पकड़ मजबूत होगी और पवार के बाद सुप्रिया सुले की राह मुश्किल हो जाएगी। इसीलिए इस धमाके की संभावना थोड़ी कम दिख रही है।
ऐसे में सवाल है कि इसके अलावा क्या धमाका हो सकता है? यह लाख टके का सवाल है कि क्या अजित पवार सत्ता के लालच में अपने चाचा शरद पवार की बनाई पार्टी को तोड़ भी सकते हैं? उन्होंने अक्टूबर 2019 में ऐसी कोशिश की थी लेकिन नाकाम रहे थे। भाजपा की मदद से उन्होंने इसका प्रयास किया था और भाजपा ने उनको उप मुख्यमंत्री बना दिया था। उसके बाद भी शरद पवार ने उनका खेल पलट दिया। हालांकि अब देवेंद्र फड़नवीस कह रहे हैं कि उस समय अजित पवार ने जो पहल की थी उसे शरद पवार का समर्थन हासिल था। बहरहाल, चाहे शरद पवार का समर्थन रहा हो या नहीं रहा हो, उस समय के घटनाक्रम से यह साबित हुआ कि अजित पवार के लिए एनसीपी तोड़ना नामुमकिन की हद तक मुश्किल है।
गौरतलब है कि एनसीपी अभी राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी है और अजित पवार नेता विपक्ष हैं। पार्टी के 53 विधायक हैं। पार्टी तोड़ने के लिए अजित पवार को कम से कम 36 विधायकों की जरूरत होगी। अब जबकि यह योजना खुल कर सामने आ गई है, इसकी चर्चा होने लगी है और शरद पवार सचेत हो गए हैं। बताया जा रहा है कि अजित पवार के इरादे के खटके से शरद पवार और सुप्रिया सुले उनसे नाराज हैं। पवार अपनी पार्टी के विधायकों को समझा रहे हैं कि महाराष्ट्र में भविष्य महा विकास अघाड़ी का ही है। अगला चुनाव अब दूर नहीं है और उसमें अघाड़ी की तीनों पार्टियां साथ मिल कर लड़ेगी तो भाजपा और शिंदे गुट के लिए कोई मौका नहीं होगा।
पुणे से वरिष्ठ पत्रकार अनिल सिन्हा बता रहे हैं कि अगर शरद पवार नहीं चाहेंगे तो उनकी पार्टी नहीं टूटेगी। हां, यह जरूर हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट अगर शिंदे सहित 16 विधायकों को अयोग्य ठहरा दे तो शिंदे के गुट के बाकी विधायकों का बड़ा हिस्सा अपने सुरक्षित राजनीतिक भविष्य की खातिर वापस अपनी मूल पार्टी यानी उद्धव ठाकरे की शिव सेना में लौट सकता है। ऐसे में भाजपा के लिए सरकार बचाना किसी भी सूरत में संभव नहीं होगा। अगर ऐसा होता है तो बड़े धमाके के तौर पर एक बार फिर सूबे में महाविकास अघाड़ी की सरकार बन सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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