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दिल्ली में विकलांग छात्रों का संघर्ष जारी, लेकिन किसी को परवाह नहीं!

इन छात्रों ने साल 2018 में रेलवे के ग्रुप डी की नौकरियों की भर्ती के लिए परीक्षा दी थी। ये छात्र लिखित परीक्षा में पास हो गए, लेकिन नियुक्ति नहीं मिली। इन छात्रों का कहना है कि सरकार तो छोड़िए डिसेबिलिटी कोर्ट ने भी आज तक हमारी तरफ़ नहीं देखा, जहां हम इस सर्दी में रात-दिन धरना दे रहे हैं।
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जो अपने हाथ-पांव से पूरी तरह सक्षम हैं, उनके लिए भी सरकार की नाइंसाफियों से लड़ना आसान नहीं है, आप ज़रा उनके बारे में सोचिए जो शारीरिक तौर पर किसी मुश्किल में हैं, विकलांग हैं, जब उनके ख़िलाफ़ सरकार नाइंसाफी करें तो वे कैसे लड़ें! उन्हें सड़कों पर आने से पहले कितनी हिम्मत जुटानी पड़ेगी?

इस सवाल का जवाब अगर आपको ढूँढना हों तो आप दिल्ली के मंडी हॉउस पर चीफ कमिश्नर ऑफ़ परसन विद डिसेबिलिटी कोर्ट के सामने पिछले दस दिनों से अपने हक़ के लिए प्रदर्शन कर रहे विकलांग छात्रों से मिलकर आइये। इन छात्रों का हिम्मत आपको भी हौसला देगी।

इन छात्रों ने साल 2018 में रेलवे के ग्रुप डी की नौकरियों की भर्ती के लिए परीक्षा दी थी। ये छात्र लिखित परीक्षा में पास हो गए। जो लोग लिखित परीक्षा में पास हुए थे, उन्हें कहा गया था कि डॉक्यूमेंट वेरिफिकेशन होगा। छात्र डाक्यूमेंट बनवाने में जुट गए। लेकिन कुछ दिन के बाद रेलवे ने सीटों की संख्या बढ़ाकर दुबारा नतीजे निकाल दिए। इस रिवाइज़्ड नतीजों से इन विकलांग लोगों का नाम गायब था। अपने ख़िलाफ़ हुई इसी ज्यादती, इसी धांधली के खिलाफ ये छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं।  

जब उनसे मैंने ये सवाल पूछा कि आपने सड़क पर आकर प्रदर्शन की हिम्मत कैसे जुटायी तो उन्होंने कहा, “आपका ये सवाल बढ़िया है लेकिन इसका मतलब यह भी है कि हमारे जीवन के संघर्षों के बारे में आम लोगों को बहुत कम जानकारी है। हमारी जिंदगी आप लोगों से थोड़ी सी अलग है। आप जरा महसूस कीजिये कि एक पैर और हाथ से अपंग होने के साथ बिहार के बेगूसराय जिले से दिल्ली तक आने में कितनी तकलीफ़ होगी। साथ में भी यह सोचिये कि आप जनरल बोगी में यात्रा करने जा रहे हैं।

अगर आप संवेदनशील इंसान हैं तो आपको हम पर दया आएगी। लेकिन यह हमारे लिए केवल एक दिन की बात नहीं है। हम ऐसे संघर्षों को हर वक्त जीते रहते हैं। या, यह कह लीजिये कि जन्म से ही हमारा संघर्ष शुरू हो चुका था। संघर्ष हमारी आदत बन चुकी है। फिर भी यहां तक आने के लिए मन में बहुत अधिक हिम्मत तो जुटानी पड़ती है। अपने साथ अपने ही तरह के लोगों का हुजूम देखकर अब तो हिम्मत और अधिक बढ़ गयी है। अब यहां से हम तब तक नहीं जायेंगे जब तक हमारी मांगे मान नहीं ली जाती हैं।”

इस संघर्ष में शामिल बिरजू प्रसाद कहते हैं, “सर्दी के मौसम में हम रात में सड़क पर पतली सी चादर बिछाकर और कम्बल ओढ़कर लेटे हुए हैं। सर्दी के मौसम में सड़क पर सोने का मतलब है पूरे शरीर क दर्द के लिए दावत देना। इसके साथ सुबह होते ही ओस की वजह से कंबल से लेकर चादर तक भींग जाती है।

अब तो लगता है कि हम इच्छामृत्यु की राह पर निकल पड़े हैं। अब या तो इच्छामृत्यु होगी या हमारी बात मानी जायेगी।”यहां जमा हुए विकलांग उम्मीदवारों का कहना है 2018 में रेलवे भर्ती बोर्ड के ग्रुप डी की लिखित परीक्षा में यह लोग पास हो गए थे। लिखित परीक्षा के रिजल्ट जब आये तब कट ऑफ मार्क नहीं दिखाया गया। जो लोग लिखित परीक्षा में पास हुए थे उन्हें कहा गया था कि डॉक्यूमेंट वेरिफिकेशन होगा। छात्र डाक्यूमेंट बनवाने में जुट गए। लेकिन कुछ दिन के बाद रेलवे ने सीटों की संख्या बढ़ाकर दुबारा नतीजे निकाल दिए।

इस रिवाइज़्ड नतीजों में इन विकलांगों का नाम गायब था। जिन्होंने शुरू में प्रदर्शन किया पहले तो उन्हें लिखित में पास कर दिया गया फिर बिना कारण बताए फेल भी कर दिया गया। इनका डॉक्यूमेंट वेरिफिकेशन नहीं हुआ लेकिन बाद में इन्हें बताया गया कि डॉक्यूमेंट वेरिफिकेशन के बाद यह लोग फेल हैं और इनका चयन नहीं हुआ है। उम्मीदवारों ने यह भी आरोप लगाए कि विकलांगों के लिए चार प्रतिशत आरक्षण के हिसाब से सीट नहीं दिया गया है।

अभ्यर्थी मनीष कुमार ने सवाल किया कि ऐसा क्या अपराध किया है हमने जो रेलवे के लिए चयनित होने के बावजूद निकाल दिया गया। भले ही हमें विकलांग कह लीजिए लेकिन हमारा अवसर तो न छीनिये। अगर हमें रोज़गार न दिया जाए तो क्या दिव्यांग कह देने भर से हमें न्याय मिल जाएगा ।

जब इनसे यह सवाल पूछा कि आपकी जिंदगी में भेदभाव बचपन से लेकर पूरी जिंदगी जारी रहता है तो आपको क्यों लगता है कि एक नौकरी आ जाने की वजह से आपकी जिंदगी में सुधार हो जाएगा? और इसे पाने के लिए आप अंतिम हद तक जाने के लिए तैयार हैं!

इस सवाल पर एक पैर से विकलांग छात्र चंदन ने कहा कि आपका सवाल बहुत बढ़िया है। और यह सवाल उन सबसे होना चाहिए जो बेरोज़गारी के लिए लड़ते हैं। उन्हें इस बात का जवाब देना चाहिये कि वह एक नौकरी लेकर अपनी जिंदगी को थोड़ी सी सहूलियत देने के सिवाय और क्या कर सकते हैं? यह बात हम पर भी लागू होती है। लेकिन हमारे लिए एक नौकरी से पैसा कमाने के बजाय विशुद्ध तौर पर काम है, जहां पर हमें काम करने को मिल जाता है। हम अपनी विकलांगता की वजह से पहले ही बहुत सारी नौकरियों से बाहर हो जाते हैं।

इसके साथ हमारे हाथ-पैर देखकर कि कोई हमें मेहनत-मज़दूरी के काम भी नहीं देता। इसलिए रेलवे की ग्रुप डी की परीक्षा हमारे लिए नौकरी से भी बढ़कर भी बहुत कुछ है।

दूसरे लोग अपने प्रदर्शन के लिए जंतर-मंतर या संसद मार्ग का चुनाव करते हैं, लेकिन आपने मंडी हॉउस धरना देने के लिए क्यों चुना? इस सवाल के जवाब में हेमंत कहते हैं कि मंडी हॉउस के गोल चक्कर पर हम इसलिए धरना दे रहे हैं क्योंकि यहीं पर चीफ कमिश्नर ऑफ़ परसन विद डिसेबिलिटी कोर्ट है। जिसके सामने हम अपने लिए इंसाफ की गुहार लगा रहे हैं। नौ दिन के प्रदर्शन के बाद दुखद बात यह है कि सरकार तो बहुत दूर की बात है इस कोर्ट की  तरफ से अभी तक एक भी प्रतिनिधि हमसे बात करने के लिए नहीं आया है। हमारे लिए अचरज वाली बात तो यह है कि विकलांगों के लिए इंसाफ करनी वाली जगह इस कोर्ट में एक भी विकलांग सदस्य नहीं है। अगर ऐसी बात है तो आप ही बताइये हमें न्याय कैसे मिलेगा ?

विकलांग छात्र गोविंदा ने तो ऐसी बात कह दी जिस पर हम कभी ध्यान ही नहीं देते हैं। गोविंदा कहते हैं, “क्या बताएं आपको हम जैसों की पूरी जिंदगी भेदभाव में गुजरती है। सरकारी भेदभाव तो बहुत छोटी बात है। घर वाले जिस तरह से घर के ही दूसरे सदस्यों से बर्ताव करते है, उस तरह से मुझसे बर्ताव नहीं करते। न ही मुझसे वैसी अपेक्षाएं रखते हैं जैसे दूसरों से रखते है। कारण मेरी विकलांगता। पढ़ाई मेरी भी होती है लेकिन वैसी नहीं जैसी दूसरों की होती है। हम हमेशा अलग थलग महसूस करते हैं। मेरी भाई ने जब एमएससी तक पढ़ाई की किसी ने कुछ नहीं कहा लेकिन मेरी पढ़ाई पर बहुत सारे सवाल उठे।”

गोविंदा कहते हैं, “हम हिन्दू-मुस्लिम में बंटे हुए लोग नहीं हैं। न ही हम जातियों में बंटे हुए लोग हैं। हमें समाज विकलांग की तौर पैर देखता है। बहुत दूर से ही कोई अगर एक पैर से अपंग दिख जाए तो लोग उसे लंगड़ा कहकर पुकारते हैं और मन में कई तरह की धारणाएं बना लेते हैं। यह धारणाएं हमें हमेशा आप लोगों से अलग करती है।”

उन्होंने कहा, “आप मुझे देखकर अपने आप से सवाल पूछिए कि क्या आपने अपनी पढ़ाई के दौरान अपने क्लास के विकलांग साथी से उस तरह से घुलने मिलने की कोशिश की, जिस तरह से आप दूसरे दोस्तों से घुलने मिलने की कोशिश करते थे। ईमानदारी से सोचिएगा। शायद आपको हमारी पीड़ा समझ में आए।”

अंत में उनकी एक बात ने बड़े प्रश्न खड़े किए। उन्होंने कहा कि जब किसान, कर्मचारी और अन्य लोग दिल्ली में संघर्ष के लिए आते हैं तो शहर के दूसरे जागरूक लोग उनके समर्थन में आ जाते हैं। बहुत संघर्षों में आप देखते होंगे कि लोग बिन बुलाये उस संघर्ष से जुड़ जाते हैं लेकिन हमारे संघर्ष से जुड़ने कोई दिल्लीवासी नहीं आया...।

ये बहुत चुभने वाला और सोचने वाला सवाल है। हां, हालांकि ये सब्र की बात है, जिसे इन सब ने भी स्वीकार किया कि उन्हें सोने के लिए दरी कंबल भी यहां कुछ आम लोगों ने ही मुहैया कराए और रोज़ का ख़ाना भी कुछ आम लोग ख़ासतौर से गुरुद्वारे वाले पहुंचा जाते हैं। 

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