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विमर्श: विचारधारा, सृजनशील होने में मदद पहुंचाती है

पटना प्रलेस ने खगेंद्र ठाकुर की स्मृति में 'सृजनात्मकता और विचारधारा' विषय पर विमर्श का आयोजन किया।
Patna

पटना। प्रगतिशील लेखक संघ ( प्रलेस ) की पटना इकाई की ओर से प्रख्यात साहित्यकार और आलोचक खगेंद्र ठाकुर की स्मृति में विमर्श का आयोजन मैत्री-शांति भवन में किया गया। विमर्श का विषय था 'सृजनात्मकता और विचारधारा'। इस मौके पटना शहर के साहित्यकार, रंगकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता था विभिन्न जनसंगठनों के प्रतिनिधि मौजूद थे। 

विषय प्रवेश करते हुए पटना प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यकारी सचिव जयप्रकाश ने कहा " आजकल यह कहा जाता है कि साहित्य और नाटक में विचारधारा की जरूरत नहीं है। सृजनशील लोगों को विचारधारा और उससे जुड़े संगठनों से दूर रहने की सलाह दी जाती है। ऐसे लोगों का विचारधारा से ज्यादातर आशय मार्क्सवाद का रहा करता है। जबकि अनुभव बताता है कि विचारधारा से प्रतिबद्ध लोगों में सृजनशीलता पर भी प्रभाव पड़ता है। बाबा नागार्जुन और रामवृक्ष बेनीपुरी जैसे साहित्यकार तो सीधे सीधे आंदोलन से जुड़े थे। आमलोग इनकी रचनाओं में प्रमुखता से आते हैं। पटना कलम के चित्रों में आम लोगों के चित्र दिखते हैं। " 

बंग्ला कवि और अंग्रेजी पाक्षिक 'बिहार हेराल्ड' के संपादक बिद्युतपाल ने दुनिया भर के कई कलाकारों का उदाहरण देते हुए बताया " आज हमें अपने अंदर सृजनात्मकता पैदा करने जरूरत है। जिसकी आज बहुत कमी हो गई है। आजकल कविता पढ़कर ऐसा लगता है जैसे मूड का नकल किया जा रहा हो। हमें कलात्मक स्तर आप ऐसा होना होगा कि जिन लोगों को आपकी विचारधारा से दिक्कत है वह भी आपका काम देखकर कहे वाह ! महान संगीतकार ज्यां सेबेस्टियन बाख जब संगीत की रचना कर रहे थे तब तर्कवाद का बोलबाला था। बाख ने जब तर्कवाद के बारे में जाना, पढ़ा तो उनको लगा कि क्या मैं जो संगीत रचना कर रहा हूं उसमें तर्क है ही नहीं। परिणामस्वरूप बाख ने सात साल तक कोई संगीत रचना नहीं की थी। कई बार लगता है कि जो काम हम कहना चाहते हैं वह कहा नहीं जा पा रहा है। इस बात का हल व्यावहारिक होकर ही किया जा सकता है यानी ग्राम्शी के जिसे प्रैक्सिस कहा करते थे। यदि आपकी सोच है कि पार्टी में गए बगैर मार्क्सवादी या क्रांतिकारी कह जा रहे रहे हैं तो बांग्ला कहावत के अनुसार वह पत्थर का कटोरा है, सोने का नहीं। विचारधारा आप जो जीवन जी रहे हैं उसके लिए है। लिखते समय आपको पार्टी लाइन के अनुसार लिख रहे हैं या नहीं यह अप्रासंगिक सवाल है। यह भी जरूरी नहीं विचारधारा से ही अच्छा साहित्य लिखा जा सकता है। सोवियत संघ के बाद बदलाव की लड़ाई, और नैरेटिव कमजोर पड़ गया है। अब ऐसा प्रतीत होता है कि बस थोड़ा बहुत राहत ही पहुंचाई जा सकती है। 1990 के पहले यह जो नैरेटिव था कि नया जमाना आएगा, कमाने वाला खाएगा ! वह अब नहीं नहीं नजर आता।

ब्राजील के वर्ल्ड सोशल फोरम में यह नारा आया कि 'दूसरी दुनिया संभव है'। आज भी वह लड़ाई जारी है। यह बहस सिर्फ कम्युनिस्टों के लिए ही नहीं बल्कि सबों के लिए है। माइकल एंजेलो जब इटली में चित्र बना रहे थे कि ईश्वर बूढ़ा हो रहा है और इंसान जवान है। " 

पटना साइंस कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य के प्राध्यापक शोवन चक्रवर्ती ने बातचीत को आगे बढ़ाते हुए कहा " हम कल्चरल स्फीयर में पूर्ण नियंत्रण के फासिस्ट चरण में आ चुके हैं। हमारी मानसिकता उधारी की मानसिकता है। हमारी आर्थिक व्यवस्था के कारण खानपान, पहनने में भी तब्दीली आ गई है। एक सम्पूर्ण संस्कृति को हमपर थोपने की कोशिश की जा रही है। लेकिन उम्मीद अभी भी बंधी हुई है। जिन्दगी सैद्धांतिक बातों से नहीं चलती। 1990 से पहले सृजनात्मकता के प्रति दूसरा नजरिया था। गंभीर साहित्यिक के बदले आजकल नकली कविता लिखी जा रही है। फैज की मशहूर रचना 'हम देखेंगे..' नकल उतारी जा रही है। सोवियत संघ से भी एक खास सिद्धांत को प्रचारित करने की कोशिश की गई थी जिससे काफी कन्फ्यूजन फैला ।"

कॉमर्स कॉलेज में उर्दू साहित्य के विभागाध्यक्ष सफदर इमाम कादरी ने कहा " हम सब लोगों का प्रशिक्षण खगेंद्र ठाकुर से हुआ। पटना में जिन लोगों को देखा और सीखने का अवसर मिला उनमें खगेंद्र ठाकुर प्रमुख हैं। आज हम लोग ऐसे विषय पर बात कर रहे हैं इसके लिए खगेंद्र ठाकुर आदर्श व्यक्तित्व थे। प्रगतिशील लेखक संघ के बनने का मकसद ही था कि लेखकों को संगठित करने की जरूरत है। जितनी ढंग के जंजीरें हैं उनको कैसे तोड़ा जा सकता है ! यह प्रमुख सवाल था लेखकों के सामने। 1936 से 1957 तक हजारों लोगों के बीच इस बात पर बहस होती रही कि प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े लेखक को कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ना चाहिए या नहीं? लेखकों को प्रतिबद्ध होना चाहिए या नहीं? फैज ने तीन लेखकों से सार्त्र, नाजिम हिक्मत और पाब्लो नेरुदा से बातचीत का जिक्र किया है। सार्त्र ने उनसे कहा कि तीसरी दुनिया के देशों के पास विषय वस्तु है जबकि यूरोप के पास भले तकनीक है लेकिन विषयवस्तु का अभाव है। यदि कोई जरूरतमंद के पक्ष में जो लेखन किया जा रहा है उसे मार्क्सवादी कह दिया जाता है। वाम धारा के लोग प्रतिबद्ध लेखन की बात दुहराते हैं। यदि विचारधारा के मुताबिक न साहित्य रचा होता तो हमें कोई पूछने वाला न होता। आप बंगला, मराठी के साहित्य के कार्यक्रम में जाएं तो प्रगतिशील और वैज्ञानिक चेतना के लेखक बड़ी संख्या में मिलते हैं। विवाद गैरजरूरी तौर पर खड़ा किया जाता है।"

कवि और गीतकार आदित्य कमल ने अपने संबोधन में कहा " खगेंद्र ठाकुर के कामकाज का ठीक से मूल्यांकन नहीं किया गया है। उसकी अब जरूरत आन पड़ी है। वैश्विक साहित्यालोचन के इतिहास में यह सवाल सवाल बहुत पुराना है। बहुत सारी बहसें हैं और वे तय मान ली गई हैं। प्लेखानोव की किताब है 'आर्ट एंड सोशल लाइफ'। कविता में तो विचार आप खोज लेंगे लेकिन चित्रकला तो अमूर्त होती है। प्लेखानोव ने अमूर्त चीजों में भी सामाजिक संबंधों को दिखलाया है। प्लेखानोव जहां रुक जाते हैं उसे लुनाचारस्की ने आगे बढ़ाया । जब समाज वर्गों में बंटे हुए हैं तो अलग अलग विचार रहेंगे। एंगेल्स कहते हैं कि साहित्य सामान्य परिस्थितियों में जीवन का पुनः सृजन है। राजा रवि वर्मा द्वारा बनाए गए सारे चित्र वेश्याओं के चित्र हैं। सभ्य समाज के नायिकाएं तो चित्र खींचवाती ही नहीं थी। राजा रवि वर्मा ने गणिकाओं को बिठाकर देवियों के चित्र बनाए। आपने यदि सपना देखा है तो बिना सब्जेक्ट मैटर के नहीं हो सकता। मैं प्रेमचंद के 'गोदान' को आज के युग की प्रतिनिधि रचना मानी जाती है। एंगेल्स बेर्ते और हाइनी का जिक्र करते हुए कहते हैं कि काव्य में बेर्ते को गेते से बराबर रचनाकर मानते हैं। यदि समाज को वर्ग बोध से लैस नहीं हो तो समाज को नहीं समझ पाओगे। संघर्ष में उत्पीड़ित पक्ष के साथ खड़ा होना साहित्यकार का काम है। "

विमर्श को सामाजिक कार्यकर्ता अक्षय ने आगे बढ़ाया " खगेंद्र ठाकुर ने 'जनशक्ति की रिहाई' नामक पुस्तक की भूमिका लिखी थी। सृजनात्मकता और विचारधारा अलग अलग चीज नहीं है। दरअसल यह पूंजीवादी युग की देन है। पूंजीवाद अलग अलग काट- काटकर देखने की कोशिश करता है। आज हमारा शिक्षाशास्त्र उपेक्षितों की उपेक्षा करता है। लोकतंत्र के समाजवाद की रिश्तों में जी छीजन हुआ है उसे समझने की जरूरत है।"

इस्कफ नेता आनंद शर्मा के अनुसार " खगेंद्र ठाकुर कहा करते थे कि आप लड़ते बहुत हैं लेकिन पढ़ते कम हैं। खगेंद्र जी आर्थिक, राजनीतिक और वैचारिक तीनों मोर्चों पर लड़ाई करते थे। अब तक छिप के बहुत लड़ाई हो गई अब सामने से लड़ाई का वक्त आ गया है। " 

अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष मंडली के सदस्य संतोष दीक्षित ने कहा " मैं एक सृजनशील व्यक्ति हूं। हमलोग जब मैट्रिक पास कर पढ़ा करते थे तो मुक्तिबोध की यह बात दुहराते थे 'पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है'। इस दौर में राज कपूर की फिल्में आ रही थीं। इन सबने हमारे मानसिक गठन को बनाया। हम वर्ग संघर्ष की बात करते हैं लेकिन जातिवादी दलों के पीछे चलने को पार्टी मजबूर है। आज साहित्य में जो जनता के संघर्षों के साहित्य को सामने लाने से कैसे रोका जाए इसकी कोशिश हो रही है। लुकाच ने कहा था लेखक को विचलन पैदा करना चाहिए। आज हमारे आसपास का जो भयावह यथार्थ है इससे मुंह मोड़कर प्रेम कविताएं लिखी जा रही हैं। फ्रेंच क्रांति के बाद आमलोगों के जनाकांक्षाओं को मुखर करने की बात की जा रही है। सोवियत संघ फ्रेंच क्रांति का ही विस्तार है। सृजनशील व्यक्ति के अंदर आशा का रहना जरूरी है। " 

सभा को खगेंद्र ठाकुर की पुत्री प्रीति, इग्नू के दिल्ली सेंटर के लालबाबू सिंह और ने भी संबोधित किया।

प्रलेस के राज्य कार्यकारिणी सदस्य गजेंद्र कांत शर्मा ने प्राचीन इतिहासकार के प्रोफेसर रहे ओ पी जायसवाल का खगेंद्र ठाकुर पर लिखा संदेश पढ़कर सुनाया। 

इस आयोजन में शामिल प्रमुख लोगों में थे कम्युनिस्ट नेता विजय नारायण मिश्रा, कवि लक्ष्मीकांत मुकुल, अभिनेता सुब्रो भट्टाचार्य, समाजिक कार्यकर्ता उदयन, देवरतन, गायक राजन, फिल्म अभिनेता रमेश सिंह, सिकंदर आजम, कपिलदेव वर्मा, कथाकार चितरंजन भारती, गजेंद्रकांत शर्मा, मनोज कुमार, युवा कवि अंचित, बालमुकुंद, उत्कर्ष आनंद, उपन्यासकार राकेश राय, विद्यासागर गिरि इस्कफ नेता आनंद शर्मा आदि।

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