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विमर्श: क्या आरएसएस अपनी वैचारिक कठोरता बढ़ा रहा है?

इसके संकेत बिल्कुल नहीं हैं कि कर्नाटक के चुनावों से निराश होकर भाजपा अपनी रणनीति बदलने वाली है या संघ परिवार का राजनीति और समाज को देखने का नज़रिया बदलने वाला है।
Mohan Bhagwat
फ़ोटो : PTI

देश की राजनीति एक नए मोड़ पर आ खड़ी हुई है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा, उनकी लोक सभा की सदस्यता को खत्म किया जाना, कर्नाटक के चुनाव परिणाम और नए ससंद भवन में सेंगोल राजदंड की स्थापना जैसी घटनाओं ने देश की राजनीति को एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जब यह तय होना है कि मोदी सरकार के नेतृत्व में चल रहा हिंदू राष्ट्र का अभियान जारी रहेगा या इसे विपक्ष रोक देगा।

कर्नाटक के चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी का बजरंग बली कार्ड फेल हो गया और अपने नाम पर वोट मांगने की कोशिश भी न चली। जाहिर है इसने लोगों को हैरत में डाल दिया। कई लोग तो यह भी मानने लगे कि मोदी का करिश्मा कमजोर पड़ चुका है। आरएसएस के मुखप़त्र द आर्गेनाइजर के एक लेख ने तो इस बात को और भी हवा दे दी। लेख में यह कहा गया कि प्रधानमंत्री मोदी का करिश्मा और हिदुत्व की विचारधारा का आकर्षण चुनाव जीतने के लिए काफी नहीं है। यह बहस थमी भी नहीं थी कि गृह मंत्री अमित शाह के हवाले से यह खबर आ गई कि किसी तमिल को भी प्रधानमंत्री बनने का मौका मिलना चाहिए। इन बातों का यह अर्थ निकाला जा रहा है कि मोदी की लोकप्रियता गिरने का अहसास भाजपा तथा आरएसएस को हो गया है और वे विकल्प ढूंढ रहे हैं।

अगर गौर से देखें तो सवाल सिर्फ मोदी के करिश्मे और हिदुत्व का आकर्षण कमजोर पड़ जाने का नहीं है। यह तो उस संकट की ओर इशारा कर रहा है जिससे हिंदुत्व गुजर रहा है। लेकिन यह साफ होना बाकी है कि संकट कितना बड़ा है और हिंदुत्व के इस संकट के बारे में संघ परिवार की क्या राय है। गोपनीय ढंग से चलने वाले आरएसएस के बारे में यह जानना मुश्किल है कि वह इस संकट से निकलने के लिए कौन सा उपाय कर रहा है। अगर उसे वाकई कोई संकट दिखाई दे रहा है तो उसके सामने दो ही विकल्प हैं कि वह हिंदुत्व को नरम बनाए या और कठोर।

संघ परिवार के सामने मौजूद विकल्पों पर चर्चा करना सिर्फ इसलिए जरूरी नहीं हैं कि ये 2024 के लोकसभा चुनावों को प्रभावित करेंगे। यह इसलिए भी जरूरी कि हिंदुत्व अब इतनी बड़ी ताकत है कि आने वाले कई सालों तक यह देश की राजनीति और समाज पर असर डालता रहेगा।

पहले तो यह देखना जरूरी है कि मोदी के करिश्में में आए उतार और हिंदुत्व के आकर्षण के नाकाफी होनेे के संकट को संघ परिवार किस तरह ले रहा है। आर्गेनाइजर के आलेख में मोदी के करिश्मे में आ रहे उतार तथा हिंदुत्व के आकर्षण में कमी का भले ही जिक्र किया गया हो, उसे मामूली बताने की कोशिश ही की गई है और इस संभावना को भी खारिज कर दिया गया है कि कर्नाटक के नतीजे 2024 के चुनाव कांग्रेस के लिए अनुकूल होेनेे के संकेत हैै। इसमें इतना ही माना गया है कि ये नतीजे विपक्ष खास कर कांग्रेस का मनोबल बढाएंगे। संभव है कि संघ परिवार बाहर से यह दिखाने की कोशिश कर रहा हो कि हिंदुत्व के सामने किसी तरह का संकट नहीं है। लेकिन वास्तविकता तो यही है कि वह इसका मुकाबला करने में जुटा है। देखना यह है कि क्या अपने इस संकट से उबरने के लिए संघ परिवार की योजना में उदार विचारोें के लिए कोई जगह है? क्या वास्तव में उसे हिंदुत्व की सीमाओं का अहसास हो गया है?

कर्नाटक के चुनाव अभियानों में तीखी सांप्रदायिकता के उपयोग और उसके बाद के भाजपा के कार्यक्रमों से यही दिखाई देता है कि हिदुत्व को उदार बनाने का संघ का कोई इरादा नहीं है। कर्नाटक के चुनावों मेें बजरंग बली कार्ड फेल हो जाने के बाद भी अपने भाषणों में गृृह मंत्री से लेकर भाजपा के अन्य नेता जिन बातों की चर्चा कर रहे हैं उनमें तीन तलाक, मुसलमानों का आरक्षण, पाकिस्तान के खिलाफ नफरत जैसे मुद्दे ही महत्वपूर्ण हैं। अगर महाराष्ट्र में शहरों के नाम बदलने का अभियान चल रहा है और 'औरंगजेब की औलाद' जैसे बयान दिए जा रहे हैं तो उत्तराखंड में मजारों को निशाना बनाया जा रहा है। कथित लव जिहाद का मुद्दा तो लगभग स्थायी हो चुका है। बिहार के मुस्लिम बहुल सीमांचल में तनाव बढ़ाने के लिए कई कार्यक्रम किए जा रहे हैं। जाहिर है कि संघ परिवार हिंदुत्व के मौजूदा संकट को विचारधारा की कामजोरी मानने के लिए तेयार नहीं है। उसे इसकी जरा भी परवाह नहीं है कि किसान, युवाओं की क्या हालत है। उसे इसकी फिक्र भी नहीं है कि बेरोजगारी की स्थिति क्या है और और अर्थव्यवस्था कहां पहुंच गई है। भाजपा के नेता फख्र के साथ बताते हैं कि देश के अस्सी करोड़ लोग मुफ्त राशन के भरोसे जिंदा हैं।

संघ परिवार चीजों को किस तरह देखता है, इसकी बानगी मुखपत्र के इसी लेख में मिलती है। लेख कहता है कि यह परेशान करने वाला है कि इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी के केेंद्र बने कर्नाटक में लोगों को खुल कर जाति के नाम पर जुटाया गया। लेख में भाषाई और धार्मिक पहचान के ‘‘संस्थागत’’ उपयोग पर भी नाराजगी जताई गई है और इस प्रवृत्ति को भवावह बताया गया है। इस पर आपत्ति की गई है कि मुसलमानों तथा चर्च ने खुल कर कांग्रेस के लिए वोट जुटाने का काम किया है। लेकिन इसमें धार्मिक पहचान वाले ‘जय बजरंग बली’ के नारों पर कोई आपत्ति नहीं है। लेख क्षेत्रवाद तथा भाषाई अस्मिता को खतरनाक बताता है। इस लेख से पता चलता है कि संघ परिवार आत्ममंथन के लिए तैयार नहीं है और सामाजिक न्याय की शक्तियों तथा भाषाई तथा क्षेत्रीय अस्मिता को हिंदुत्व की राह में रोड़ा समझता है।

इसके संकेत बिलकुल नहीं हैं कि कर्नाटक के चुनावों से निराश होकर भाजपा अपनी रणनीति बदलने वाली है या संघ परिवार का राजनीति और समाज को देखने का नजरिया बदलने वाला है। इसी लेख में कहा गया है कि 2024 के लोक सभा चुनावों तथा उसके पहले 2023 में राज्य विधान सभाओं के चुनाव होने वाले हैं। राजनीतिक पार्टियों, मतदाताओं या सामाजिक समूहों को चुनाव प्रक्रिया या चुनाव नतीजों के इस्तेमाल की इजाजत देश की एकता और अखंडता को नुकसान पहुंचाने और बाहरी शक्तियों को दखल देने का लाइसेंस देने के लिए नहीं देनी चाहिए। यानी वह विपक्ष, अल्पसंख्यकों तथा मतदाताओं को खुल कर चुनाव प्रचार करने की इजाजत देने के खिलाफ है।

संघ परिवार की वैचारिक कठोरता का अंदाजा मुखपत्र के ही एक अन्य संपादकीय से भी मिलता है। यह लेख संसद भवन के निर्माण तथा इसके उद्घाटन के गुण गाने के लिए लिखा गया है। इसमें कहा गया है कि पिछले नौ साल के शासन की विशेषता यह है कि इसने आर्थिक तथा तकनीकी प्रगति के कार्यक्रमों के जरिए और आधुनिकता को प्राचीनता से मिला कर लोगों को फिर से सभ्यता की भावना से जोड़ा है। लेख में जिन कामों को गिनाया गया है उससे पता चलता है कि संघ परिवार के लिए सभ्यता से जोड़ने का अर्थ क्या है। इसमें कहा गया है कि गंगा आरती से लेकर अयोध्या मंदिर के पुननिर्माण, काशी विश्वनाथ कारिडोर, महाकाल धाम या सेंगोल-पवित्र तथा न्यायशीलता के प्रतीक धर्मदंड की संसद में पुनर्स्थापना के जरिए मोदी सरकार ने सदैव सभ्यता की जड़ोेें को मजबूत करने की कोशिश गौरव के साथ की है। इसमें तथाकथित औपनिवेशिक मानसिकता का जिक्र भी किया गया है। संघ के लिए सभ्यता का अर्थ हिंदुत्व तथा उपनिवेशवाद का अर्थ भारत की विविधता तथा लोकतांत्रिक विरासत में यकीन करना।

लेकिन बात अपनी विचारधारा पर अड़े रहने का नहीं है, मोदी-विरोधियों को देशद्रोही मानने की है। इसी लेख में मोदी सरकार का विरोध करने वालोें को ‘‘निहित स्वार्थ’’ और "भारत विरोधी शक्तियां’’ कह कर पुकारा गया है। इसमें यह भी कामना की गई है कि नई संसद विश्वगुरु बनने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए सही मंच बने।

साल 2024 के चुनावों के ठीक पहले संघ परिवार की वैचारिक कठोरता अर्थ कई अशुभ संकेत देता है। इसमें सबसे बड़ा संकेत यह है कि लोकसभा चुनावों तक देश के अल्पसंख्यकों को काफी कुछ सहना पड़ेगा। यह भी साफ संकेत है कि संघ के हिसाब से मोदीे ही राइट च्वाइस है क्योंकि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के अभियान का नेतृत्व करने के लिए फिलहाल कोई उसके पास और नहीं है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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