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बंगाल के विस्थापित वाम पार्टी समर्थकों ने दिल्ली में अपनी पार्टी से किया संपर्क 

देश में अचानक तालाबंदी से घिरे, कुछ मुस्लिम बंगाली प्रवासी जो कूड़ा बीनने के काम में शामिल हैं, उन्होंने सीटू दिल्ली से सहायता मांगी और सीटू ने उन्हें भोजन और अन्य राहत सामाग्री देकर मदद की है।
वाम पार्टी

24 मार्च को नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा अचानक घोषित 21 दिन की देशव्यापी तालाबंदी ने कई लोगों की जिंदगी को पटरी से उतार दिया है। हालांकि, यह बिना किसी योजना की ऐसी सरकारी कार्रवाई है जिसने ग़रीबों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया हैं। ग़रीब, प्रवासी मज़दूर जिनके पास कोई सामाजिक-सुरक्षा नहीं है और इसलिए वे पूरी तरह से सरकार समर्थक हस्तक्षेप या गैर-सरकारी संस्थाओं के दान पर निर्भर हैं, ऐसे लोग जो सबसे बुरी तरह प्रभावित हैं।

सामाजिक विज्ञान के स्कोलर्स होने के नाते, हम जो लॉकडाउन के कारण प्रवासियों की कुछ चिंताओं को दूर करने या उन्हे सनझने के लिए एक सीमित तरीके पहल कराते हैं और जब हम उनसे मिलते हैं तो हमारे सवाल उनके संकट या अनुभवों तक ही सीमित नहीं होते हैं बल्कि उनके संभव समाधानों के बारे में भी होते हैं। हम अपनी सीमित संज्ञानात्मक कुशलता के साथ यह भी समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर उनका ये हश्र क्यों हुआ। और ज्यादातर मामलों में, प्रतिक्रियाएं आर्थिक संकट या बेरोजगारी में निहित मिलती हैं। लेकिन यहाँ तालबंदी के बाद प्रवासियों द्वारा झेली जा रही कठिनाइयों के साथ एक विशेष कहानी भी जुड़ी है, हम उन लोगों की उस दुर्दशा को भी उजागर करना चाहते हैं जो पश्चिम बंगाल से उनके पलायन का कारण बनी, वह है राजनीतिक धमकी और हिंसा।

अप्रैल के पहले हफ्ते में, सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू), दिल्ली को दक्षिण दिल्ली की झुग्गी बस्ती में रहने वाले कुछ मुस्लिम बंगाली प्रवासियों से फोन आया। हम में से जो सीटू की टीम का हिस्सा थे मौके पर पहुंचकर उन्हें राहत सामाग्री प्रदान की जिसमें मुख्य रूप से खाद्यान्न और अन्य खाद्य पदार्थ शामिल थे।

मार्च के तीसरे हफ्ते से, इन प्रवासियों के पास कोई स्थिर रोजगार नहीं था। तब से उनकी आय का एकमात्र साधन यद्यपि वह भी सीमित था, पास के इलाकों में कूड़ा बीनना था। हालांकि, एक सप्ताह से अधिक समय से, इन अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्सों के भीतर कोविड-19 के खतरे की वजह से बाहरी लोगों के प्रवेश पर रोक लगा दी गई, जिससे आय का वह अवसर भी बंद हो गया था।

चूंकि इनमें से अधिकांश झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोग कचरा उद्योग के माध्यम से दैनिक मज़दूरी कमाते हैं, और उनके पास कोई बचत भी नहीं थी इसलिए उनके पास एक ही विकल्प बचा था कि उन्हे राज्य के परोपकार नीति के माध्यम से कुछ मदद मिले। लेकिन, राज्य यहाँ आपराधिक रूप से अनुपस्थित था। राज्य की ओर से एकमात्र हस्तक्षेप जो देखा गया वह कि एक विशेष दिन उन्हे पका हुआ भोजन दे दिया गया था, उसे खाने से कई लोगों को दस्त लग गए। संकट की स्थिति में मदद के लिए कॉल करने वाली सरकारी वेबसाइटें काम नहीं कर रही हैं। उनके लिए एकमात्र विकल्प गैर-राज्य संस्था या उन लोगों से मदद लेना बचा था जो उनके प्रति हमदर्दी रखते हैं और यहाँ सीटू की भूमिका आती है।

लेकिन पहले तो हम थोड़ा असमंजस में पड़ गए कि उन्होंने आखिर सीटू को फोन क्यों किया? आखिरकार, सीटू दिल्ली में कई गैर-राज्य संस्थाओं में से एक है जो ग़रीब मज़दूरों की इस मुसीबत की घड़ी में मदद कर रही है। फिर हमें पता चला कि वहाँ रह रहे प्रवासियों में से एक, अली ने मदद के लिए बंगाल के एक पूर्व वाम मोर्चा विधायक को फोन किया था। उन्होंने उन्हे सीटू दिल्ली के साथ जोड़ा। हम बहुत ही उत्सुकता के साथ अली (बदला हुआ नाम) के साथ बैठ गए, और आम तौर पर उनकी पृष्ठभूमि के बारे में पूछताछ की।

अली का परिवार उत्तर बंगाल से हैं और उनके पास भूमि भी है। हालांकि कम है फिर भी इतनी है कि उन्हे काम के लिए बंगाल से बाहर जाने की जरूरत नहीं थी। अली बंगाल में वाम दलों के समर्थक थे। उनके पिता भारत कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) या सीपीआई (एम) के सदस्य थे। जब 2011 के विधानसभा चुनाव परिणाम घोषित हुए, तब अली पर स्थानीय तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के सदस्यों ने हमला किया था। उनमें से कई अवसरवादी तत्व भी थे जो टीएमसी के चुनाव जीतने के बाद उसमें शामिल हो गए थे।

अली को 12 दिनों के लिए एक अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उसने पुलिस में शिकायत करने की कोशिश की लेकिन पुलिस ने उल्टे उसके खिलाफ झूठी शिकायतें दर्ज कर ली। इन वीभत्स कुकृत्यों के अलावा, टीएमसी के बाहुबलियों ने अली की जमीन का एक हिस्सा उससे छीन लिया। अली के सामने  एकमात्र विकल्प यही था कि वह टीएमसी की धमकी के आगे झुक जाए। जबकि उसके भाइयों ने तय किया कि उन्हे टीएमसी के साथ चला जाना चाहिए लेकिन अली ने ऐसा नहीं किया। यद्द्पि अली के ऐसा करने से उनके और उनके परिवार की सुरक्षा सुनिश्चित हो जाती लेकिन अली ने फिर भी ऐसा नहीं किया, क्योंकि ऐसा करना उनकी नज़रों में उस संगठन की पीठ में छुरा घोंपना था जिसे वे मोहब्बत  करते थे।

अली के पास अपने गाँव को छोड़कर किसी अन्य स्थान पर चले जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। चूंकि उनके कुछ रिश्तेदार दिल्ली में रहते थे, इसलिए वे तुरंत यहां शिफ्ट हो गए। तब से, वे कचरा उद्योग में एक दैनिक मज़दूर के रूप में काम कर रहे है, इससे उनकी अधिकतम मज़दूरी प्रति दिन 320 रुपये है, जो दिल्ली में न्यूनतम मज़दूरी से काफी कम है।

तब से, अली और उसका परिवार इसी जगह पर रह रहा हैं। उसकी पत्नी एक नौकरानी के रूप में काम करती है, जिससे उनकी कुछ अतिरिक्त आय हो जाती है, जिसके बिना पाँच लोगों के परिवार को पालना मुश्किल है। उस बस्ती में अन्य सभी प्रवासियों की तरह, वे 10x8 की शेड में रहते हैं, जहां सामाजिक दूरी के मानक लागू नहीं होते हैं। हालांकि, जब लॉकडाउन की वजह से हालत विशेष रूप से कठिन हो गए तो अली के पास बंगाल में अपने पूर्व साथियों से संपर्क करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। बंगाल के उनके साथियों ने उन्हें दिल्ली में सीटू नेताओं का नंबर दिया और दिल्ली में नौ साल रहने के बाद, वे एक बार फिर अपने साथियों के संपर्क में आ गए।

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हम पश्चिम बंगाल के कूच बिहार जिले के रहने वाले अजीबर अली से भी मिले। अज़ीब, तुफान गंज, देव सराय के अपने घर में रहते थे, जहाँ उनके पिता को पहली वामपंथी सरकार ने भूमि सुधारों के जरिए  20 सेंट ज़मीन दी थी। अली की तरह, अज़ीबर भी कूड़ा बीनने का काम करता है, ये घरों और स्थानीय डस्टबिन से कचरे को इकट्ठा करते है, और फिर कचरे को अलग करता है, और इसे एक स्थानीय ठेकेदार को बेच देता है।

अली और अज़ीबर के जीवन की विशेषताएं और समानताएँ यहीं तक सीमित नहीं हैं। 2011 के विधानसभा चुनाव के बाद अज़ीबर को भी बंगाल छोड़ कर भागना पड़ा था। वह और उसके पिता दोनों बूथ स्तर पर काम करने वाले माकपा के सदस्य थे। चुनाव परिणाम घोषित होने के तुरंत बाद, सुबह-सुबह खबर मिली कि टीएमसी की भीड़ उनके घर पर हमला करने वाली है। बिना समय बर्बाद किए, अज़ीबर और उसका परिवार अपना सारा सामान छोड़कर गाँव से भाग गया। भीड़ ने उनके घर को पूरी तरह से तोड़ दिया, और उनके पत्नी की सोने की बालियों समेत घर का अन्य कीमती सामान लूट  लिया। इस घटना से पहले, उनके पिता को बाजार में पीटा गया था। अजीबर ने दोनों घटनाओं को लेकर स्थानीय पुलिस में केस दर्ज करने की कोशिश की। लेकिन पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। बाद में, उन्हें केस वापस लेने के लिए मजबूर किया गया।

जब अजीबर दिल्ली पहुंचा तो वह महज 24 साल का था। वापस गाँव का दौरा करने के लिए उसे दो साल तक इंतजार करना पड़ा, वह भी स्थानीय टीएमसी समिति को जुर्माने के रूप में 20,000 रुपये का भुगतान करने के बाद मौका मिला।

हालांकि, अजीबर की मां दिल्ली की ठंड को बर्दाश्त नहीं कर सकी और अपने गांव के लिए रवाना हो गई। यह केवल इसलिए हो सका क्योंकि उन्होंने स्थानीय टीएमसी नेतृत्व को फिर से एक अतिरिक्त जुर्माना (ज़रीमाना) दिया। लेकिन बूढ़ी माँ को एक सामान्य जीवन देने की उम्मीद, गलत साबित हो गई। अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति या एआईडीडब्ल्यूए की सदस्य होने के बावजूद, उन्हें स्थानीय बाजार में अपमानित किया गया, और उन्हें टीएमसी के झंडे को उठाने और उनके जत्थे में शामिल होने के लिए मजबूर किया गया। कुछ दिनों बाद उनका निधन हो गया। अजीबर का मानना है कि अपमान और उनपर बने दबाव से उनकी मौत हो गई।

अभी तक, अज़ीबर हर चुनाव में अपने गाँव का दौरा करते हैं और वामपंथियों के लिए प्रचार करते हैं। चुनाव के दौरान गांव का दौरा करने में उनकी बचत राशि खर्च हो जाती है। लेकिन,पैसा देने के बाद भी, उन्हे और उनके परिवार को वोट देने की अनुमति नहीं है और न ही उन्हें स्थानीय बाजार में जाने की अनुमति है। वे पार्टी कार्यालय में बैठे रहते हैं, आवश्यक काम करते हैं और चुपचाप अपने साथियों के बीच वामपंथियों को वोट देने के लिए अभियान चलाते हैं। "समस्या जो भी हो, काम तो करना पड़ेगा, तभी तो बढ़ेंगे, और पार्टी भी बढ़ेगी"। 

यह पूछे जाने पर कि क्या वे इन मुलाकातों के नतीजों के प्रति चिंतित हैं, "अब हमें डर नहीं लगता, पूरा घर तो तोड़ दिया है, सब कुछ ले लिया, अब इससे ज्यादा और क्या करेंगे"। 

अली और अज़ीबर दोनों का भविष्य अनिश्चित है। अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के हाशिये पर रहने की वजह से उनके वर्तमान में रहने से लेकर हर चीज के बारे में अनिश्चितता है। सीटू के अलावा उनके पास कोई भी सहायता नहीं है।  दिल्ली में उनका भविष्य झुग्गी-झोंपड़ी और बाहरी दुनिया के बीच मौजूद संबंधों पर निर्भर है, जिसका संतुलन उनके पक्ष में नहीं है।

इसलिए, उस स्रोत को समझना बेहद जरूरी है, जिसने उनके जीवन को ऐसी बेकाबू स्थिति में डाल दिया है; यानि उनकी राजनीतिक भागीदारी। जब पूरा देश कोविड-19 से लड़ने में जुटा है, तो शायद वाम दलों के समर्थकों के बारे में लिखने का यह सही समय नहीं है। हालाँकि, जब प्रचलित सामान्य ज्ञान पिछले कई वर्षों से बंगाल में वाम मोर्चा समर्थकों पर हो रहे असहनीय जुल्म से मुह मोड लेता है, तो यह किसी भी लोकतांत्रिक विचारधारा वाले व्यक्ति का कर्तव्य बन जाता है कि वे बेजुबान लोगों की आवाज़ बनकर उस जुल्म का पर्दाफाश करे।

जब हम वहाँ से चलाने लगे तो, हम अपने आपको रोक नहीं सके और उनसे पूछ ही लिया कि क्या वे वापस बंगाल यानि अपने गांवों में जाने की इच्छा रखते हैं। “आगर में वहाँ जाउंगा तो जबरदस्ती उनके साथ जुडना पडेगा। में वह नहीं कर पाऊँगा। में अपनी पार्टी से मोहब्बत करता हूँ, अली ने कहा। अजीबर ने कोई उत्तर नहीं दिया। शायद उसकी बेबसी भारी मुस्कुराहट इसका इशारा थी। हम नहीं जानते। लेकिन जब हम बाइक पर बैठे, तो वह हमारे पास आया। उसने हमें अपना पानी का जार दिखाया। जिसके  ऊपर, लाल रंग में, पार्टी के दरांती-हथौड़ा का चिन्ह था।  

लेखक, सेंटर फ़ॉर इक्विटी स्टडीज़ में वरिष्ठ शोधकर्ता हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

Displaced from Bengal, Left Supporters Reconnect With Their Party in Delhi

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