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क्‍या कांग्रेस का घोषणापत्र मुस्लिम लीग की सोच को दर्शाता है?

पीएम मोदी की टिप्पणी एक तरह से सांप्रदायिक मोड देने की कोशिश है, जो हर हाल में बीजेपी का मुख्य हथियार होता है। सच तो यह है कि हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग दोनों ने ब्रिटिश हित में काम किया था।
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कांग्रेस ने 2024 लोकसभा चुनाव के लिए शुक्रवार को अपना घोषणापत्र जारी किया। छवि सौजन्य: ट्विटर/@INCIndia

पिछले हफ्ते (यानि 4 अप्रैल, 2024 को) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 2024 के आम चुनावों के लिए न्याय पत्र (न्याय का वादा) नाम से अपना घोषणापत्र जारी किया। इसमें प्रमुख रूप से जाति जनगणना, आरक्षण पर 50 फीसदी की सीमा को बढ़ाने, युवाओं के लिए नौकरियां, इंटर्नशिप और गरीबों के लिए आर्थिक सहायता आदि की बात की गई है।

घोषणापत्र का मुख्य फोकस महिलाओं, आदिवासियों, दलित-ओबीसी, किसानों और छात्र-युवाओं के प्रति न्याय पर रहा है। इसके एक प्रवक्ता ने कहा कि यह घोषणापत्र, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पिछले 10 वर्षों के शासन के दौरान समाज के विभिन्न वर्गों पर ढाए गए ज़ुल्म से निजात पाने के लिए जरूरी कदम होंगे।

नरेंद्र मोदी ने इस घोषणापत्र की यह कहकर आलोचना की कि इसमें पुराने समय की मुस्लिम लीग की विभाजनकारी छाप है और शेष भाग वामपंथी विचारधारा से भरा हुआ है। उनके इस कथन से तुरंत सबको हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा के स्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर की याद आ गई, जिन्होंने अपने 'बंच ऑफ थॉट्स' में स्पष्ट किया था कि हिंदू राष्ट्र में तीन आंतरिक खतरे हैं, मुस्लिम, ईसाई और कम्युनिस्ट। इन दोनों धमकियों के बारे में भाजपा विभिन्न स्तरों पर बताती रहती है और उन्हे अब भी दोहराया जा रहा है। इसे एक तरह का सांप्रदायिक मोड देना है जो बीजेपी का मुख्य हथियार है।

1937 के विधानसभा चुनावों के लिए तैयार किया गया मुस्लिम लीग का घोषणापत्र और कार्यक्रम मुस्लिम पहचान की मांगों के इर्द-गिर्द घूमता था और उसमें कभी भी कमजोर तबकों के लिए सकारात्मक कार्रवाई की बात नहीं की गई थी। इसके कार्यक्रम हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा अपनाए जा रहे कार्यों के समानांतर और विपरीत थे।

बीजेपी के आरोपों के जवाब में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे मुस्लिम लीग के साथ बीजेपी के पूर्वज-नेताओं के सहयोग को सही ढंग से सामने लाए।

हक़ीक़त क्या है?

इस प्रकार, इन धार्मिक राष्ट्रवादियों, मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा-आरएसएस में बहुत समानता है। उनका मूल, औपनिवेशिक भारत में हुए बदलावों के आलोक में समाज के गिरते वर्गों से है। जैसे-जैसे औद्योगीकरण, आधुनिक शिक्षा-न्यायपालिका-प्रशासन और संचार के साधन सामने आए, नए सामाजिक वर्ग उभरने लगे, श्रमिक वर्ग, आधुनिक शिक्षित वर्ग और आधुनिक उद्योगपति। पुराने शासकों, जमींदारों और राजा-नवाबों को खतरा महसूस होने लगा क्योंकि उनका सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक वर्चस्व घट रहा था।

उभरते वर्गों से नारायण मेघाजी लोखंडे और कॉमरेड सिंगारवेलु और कई अन्य लोगों के नेतृत्व में श्रमिकों के संगठन उभरे। विभिन्न उभरते समूहों की राजनीतिक अभिव्यक्ति ने अन्य समूहों के बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को जन्म दिया था। उनके मूल सिद्धान्त 'स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व' का एक नवजात रूप थे।

जमींदारों-राजाओं के गिरते वर्ग से सबसे पहले यूनाइटेड इंडिया पैट्रियटिक एसोसिएशन का जन्म हुआ था जिसने अंग्रेजों के प्रति अपनी वफादारी की प्रतिज्ञा ली थी। उनकी मूल विचारधारा जाति और लिंग का पदानुक्रम थी। कालांतर में यह संगठन विभाजित हो गया फिर 1906 में मुस्लिम लीग और 1915 में हिंदू महासभा बने।

1923 में वीडी सावरकर ने अपनी पुस्तक 'एसेंशियल्स ऑफ हिंदुत्व' में बताया था कि इस देश में दो राष्ट्र हैं, हिंदू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र। इससे आगे बढ़ते हुए, आरएसएस 1925 में हिंदू राष्ट्र के एजेंडे के साथ आगे बढ़ा। लंदन में पढ़ रहे कुछ मुस्लिम लीग समर्थक अनुयायी पाकिस्तान शब्द लेकर आए।

इन दोनों धाराओं का सामान्य सूत्र यह था कि वे हिंदू राजाओं या मुस्लिम राजाओं के शासन को गौरवशाली, स्वर्णिम काल के रूप में देखते थे। उन्होंने स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आंदोलन के विरुद्ध पूरे समय अंग्रेजों का समर्थन किया था। उनकी रणनीति हिंदू या मुसलमानों, जो भी मामला हो, का मुकाबला करने के लिए अंग्रेजों के साथ सहयोग करने की थी।

अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें सत्र में हिंदू राष्ट्रवाद के मुख्य विचारक सावरकर ने कहा, “आज भारत को एक इकाईवादी और समरूप राष्ट्र नहीं माना जा सकता है बल्कि इसके विपरीत मुख्य रूप से भारत में दो राष्ट्र हैं: हिंदू और मुसलमान।”

"दो राष्ट्र के सिद्धांत" के आधार पर, एम ए जिन्ना ने 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में एक अलग मुस्लिम राष्ट्र यानि पाकिस्तान की मांग की थी।

आरएसएस के अनौपचारिक मुखपत्र, ऑर्गेनाइजर ने 14 अगस्त को लिखा था, "...हिंदुस्तान में केवल हिंदू ही राष्ट्र बना सकते हैं और राष्ट्रीय संरचना उस सुरक्षित और सुदृढ़ नींव पर बनाई जानी चाहिए... राष्ट्र का निर्माण स्वयं हिंदुओं के द्वारा होना चाहिए, जो हिंदू परंपराओं, संस्कृति, विचारों और आकांक्षाओं पर आधारित हो।”

मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा ने 1939 में बंगाल, सिंध और एनडब्ल्यूएफपी में संयुक्त मंत्रालय का गठन किया था। यह सिंध में हुआ था कि मुस्लिम लीग ने विधानसभा में पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित किया था और हिंदू महासभा के सदस्य चुप रहे थे। बाद में सुभाष चंद्र बोस ने जर्मनी से एक प्रसारण में मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा दोनों से ब्रिटिश विरोधी आंदोलन में शामिल होने की अपील की थी। ये संगठन और आरएसएस 1942 के विशाल आंदोलन से अलग रहे।

सावरकर ने अंग्रेजों के युद्ध प्रयासों में बहुत सक्रिय तरीके से उनका समर्थन किया था और कहा था कि, "... हर शहर और गांव में हिंदू महासभा की प्रत्येक शाखा को हिंदू लोगों को (ब्रिटिश) सेना, नौसेना, हवाई बलों और विभिन्न युद्ध-शिल्प कारख़ाना (एसआईसी) में शामिल होने के लिए प्रेरित करने में सक्रिय रूप से शामिल होना चाहिए।" एक तरफ जब सुभाष बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज ब्रिटिश सेना के ख़िलाफ़ लड़ रही थी तो सावरकर ब्रिटिश सेना की मदद कर रहे थे।

कोई भी स्पष्ट रूप से देख सकता है कि हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग दोनों ने अंग्रेजों के हित में काम किया था। सुभाष चन्द्र बोस इन दोनों संगठनों की सांप्रदायिक राजनीति के सख्त खिलाफ थे। अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में शामिल होने की उनकी अपील को इन दोनों संगठनों ने पूरी तरह से नकार दिया था।

बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ संयुक्त मंत्रालय के हिस्से के रूप में, श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1942 के आंदोलन को नियंत्रित करने के लिए ब्रिटिश वायसराय को पत्र लिखा था और उनसे वादा किया था कि बंगाल में वह यह सुनिश्चित करेंगे कि वहां आंदोलन को दबा दिया जाए।

26 जुलाई, 1942 को लिखे एक पत्र में मुखर्जी ने लिखा था कि, “अब मैं उस स्थिति का उल्लेख करना चाहता हूं जो कांग्रेस द्वारा शुरू किए गए किसी भी व्यापक आंदोलन के परिणामस्वरूप प्रांत में पैदा हो सकती है। कोई भी, जो युद्ध के दौरान जन भावना को भड़काने की योजना बनाता है, जिसके परिणामस्वरूप आंतरिक गड़बड़ी या असुरक्षा पैदा हो सकती है, किसी भी सरकार द्वारा उसका विरोध किया जाना चाहिए जो उस समय सत्ता में बैठी है।

जैसे सुभाष चंद्र बोस ने मुस्लिम राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्रवाद इन दोनों विचारधाराओं को एक ही समूह में वर्गीकृत किया, वैसा ही विश्लेषण भीमराव बाबासाहेब अंबेडकर का था। अपनी पुस्तक, पाकिस्तान या भारत का विभाजन, 1940 में, वह लिखते हैं: “चाहे यह अजीब लगे, श्री सावरकर और श्री जिन्ना एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के मुद्दे पर एक-दूसरे के विरोधी होने के बजाय इस पर पूरी तरह सहमत हैं। दोनों सहमत हैं और न केवल सहमत हैं बल्कि इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं - एक मुस्लिम राष्ट्र और दूसरा हिंदू राष्ट्र।'

इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि दलितों के प्रति किसी भी प्रतिबद्धता की भाजपा-आरएसएस द्वारा निंदा की जाती है क्योंकि यह हिंदू राष्ट्र के एजेंडे के खिलाफ है। हम मुस्लिम राष्ट्र के रूप में उभरे पाकिस्तान में वंचित तबकों का भाग्य देख सकते हैं। आशा और उम्मीद जगाने वाले कॉंग्रेस के घोषणापत्र की मोदी की आलोचना, उनके वैचारिक पूर्वजों के कहे के अनुरूप है।

लेखक, एक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। विचार निजी हैं।

मूल अंग्रेजी लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Does Congress Manifesto Reflect Muslim League Thinking?

 

 

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