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EXCLUSIVE: "बीजेपी ने ज्ञानवापी को बनाया सत्ता की चाबी", अभिलेखागार के मैप में नहीं वज़ूख़ाने का वजूद

अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी ने बनारस के अभिलेखागार से आजादी से पहले के दो प्रामाणिक साक्ष्य हासिल किए हैं जिससे पता चलता है कि ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर पहले न तो वजूखाना था और न ही उसमें कोई ठोस आकृति थी। दरअसल, यह नक्शा साल 1883-84 का है, जिसमें ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर वज़ूख़ाने का कोई जिक्र नहीं है।
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बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद में मिली जिस ठोस संरचना को लेकर बितंडा खड़ा हुआ है उस पर मुस्लिम पक्ष ने दो ऐसे पुख्ता साक्ष्य पेश किए हैं जिससे पता चलता है कि 140 साल पहले वहां वजूखाने का वजूद ही नहीं था। अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी ने बनारस के अभिलेखागार से साल 1883-84 का एक ऐसा प्रामाणिक नक्शा हासिल किया है जिससे पता चलता है कि ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर न तो कोई वजूखाना था और न ही उसके अंदर कोई आकृति। वजू के लिए पहले कुएं से पानी निकाला जाता था। अब बड़ा सवाल यह उठाया जा रहा है कि जब ज्ञानवापी में वजूखाना था ही नहीं, तो शिवलिंग कहां से आ गया?

अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी ने बनारस के अभिलेखागार से आजादी से पहले के दो प्रामाणिक साक्ष्य हासिल किए हैं जिससे पता चलता है कि ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर पहले न तो वजूखाना था और न ही उसमें कोई ठोस आकृति थी। दरअसल, यह नक्शा साल 1883-84 का है, जिसमें ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर वज़ूख़ाने का कोई जिक्र नहीं है। कलेक्ट्री अभिलेखागार से हासिल किए गए नक्शों को मुस्लिम पक्ष ने सभी अदालतों में नत्थी करने शुरू कर दिया है।  मुस्लिम पक्ष ने प्लाट नंबर-9130 का 1291 फसली का एक खसरा (उर्दू में है) हासिल किया है, जिसमें वजूखाने का कोई जिक्र नहीं है।

मस्जिद में नहीं थी कोई ठोस आकृति

अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी ने जिला अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक और बड़ा साक्ष्य पेश किया है जिससे पता चलता है कि आजादी से पहले साल 1936 में मिर्जापुर के तत्कालीन सिविल जज एसबी सिंह ने एक मुकदमे में की सुनवाई के दौरान दो मर्तबा ज्ञानवापी मस्जिद का मुआयना किया था। यह विवाद उस समय का है जब अंग्रेजी हुकूमत ने साल 1936 में बनारस के मुसलमानों को सड़क पर नमाज अदा करने से रोक दिया था। मुकदमे में इस बात का साफ-साफ उल्लेख किया गया है कि बनारस में पहले ज्ञानवापी मस्जिद से लगायत चित्रा सिनेमा तक सड़क पर नमाज पढ़ी जाती थी। मस्जिद के पीछे नमाज-ए-जनाजा अदा की जाती थी। अंग्रेजी हुकूमत ने दोनों स्थानों पर नमाज पढ़ने से रोक दिया था। इस फैसले के खिलाफ दीन मोहम्मद वगैरह ने जब बनारस के सिविल कोर्ट में वाद दायर किया। मुकदमे के रिकार्ड के मुताबिक, वादी दीन मोहम्मद वगैरह बनाम सेक्रेटरी आफ स्टेट के मामले में सुनवाई के दौरान तत्कालीन सिविल जज एसबी सिंह खुद दो मर्तबा ज्ञानवापी मस्जिद का गहन सर्वे किया। जज ने मस्जिद की सभी चीजों का बारीकी से अध्ययन किया और रिपोर्ट में एक-एक चीज के बारे में बारीकी से उल्लेख किया।

 ज्ञानवापी मामले में साल 1937 का फैसला

सिविल जज एसबी सिंह और अतिरिक्त सिविल जज कृष्ण चंद्रा की पीठ ने 25 अगस्त 1937 को 290 पेज की रिपोर्ट के साथ फैसला सुनाया। फैसले के साथ साल 1936 में ज्ञानवापी मस्जिद के मुआयने के समय बनाए गए नक्शे को भी नत्थी किया गया। वह नक्शा आज भी मौजूद है, जिस पर अतिरिक्त सिविल जज के दस्तखत हैं और उस पर 14 मई 1937 तारीख अंकित है। यह मैप पार्ट आफ डिग्री का एक हिस्सा है। साल 1936 में तत्कालीन सिविल जज एसबी सिंह द्वारा बनवाए गए नक्शे में ज्ञानवापी के कब्रों, मजारों, पुराने दरवाजों के अलावा कुआं और पीपल के पेड़ का जिक्र है। इस नक्शे में वजूखाना और वहां किसी ठोस संरचना की मौजूदगी का जिक्र तक नहीं है। इस फैसले में मुस्लिम समुदाय के लोगों पर सड़क पर नमाज अदा करने और मस्जिद के पीछे होने वाले नमाज-ए-जनाजा की मांग को अस्वीकार कर दिया था।

साल 1937 में सिविल जज के सर्वे में ज्ञानवापी का नक्शा, जिसमें नहीं है वजूखाने का जिक्र

कोर्ट ने अपने फैसले लिखा है, "डिक्लेयर किया जाता है कि ज्ञानवापी मस्जिद और उसके बाहर हाता, पोर्ट यार्ड और जमीन के नीचे तक हंफी मुस्लिम वक्फ की है, जिसका नंबर-100 है। वाद दायरकर्ताओं को अधिकार है कि वह मस्जिद के पीछे नमाज पढ़ें और अन्य धार्मिक कार्य करें। मस्जिद के हाते में भी नमाज पढ़ी जा सकती है।" इसी फैसले में मुस्लिम पक्ष को मस्जिद के पश्चिम दिशा में स्थित दो कब्रों के पास सालाना उर्स मनाने, खंडहर के रास्ते छत पर जाने और वहां नमाज अदा करने का अधिकार दिया गया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि मुस्लिम समुदाय के लोग चाहें तो वह मस्जिद के उत्तरी गेट (जो छत्ताद्वार के नाम से मशहूर था), धोबी हाउस, छत और चबूतरे पर नमाज पढ़ सकते है। इसी फैसले के बाद वहां मस्जिद की छतों पर बैठकर लोग नमाज अदा करने लगे। सिविल कोर्ट के इस फैसले पर हाईकोर्ट ने साल 1942 में अपने अनुमोदन की मुहर लगाई थी। उसी आदेश के अनुपालन में बनारस का मुस्लिम समुदाय आज तक नमाज अदा करता आ रहा है। 

काफी पुराना है विवाद

ज्ञानवापी मस्जिद का विवाद लंबे समय से चला आ रहा है। हिन्दू पक्ष ने साल 1991 में ज्ञानवापी मस्जिद को हटाने के लिए एक वाद संख्या-610/1991 दायर किया, जिसमें दावा किया गया था कि भगवान विश्वेश्वर के मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनवाई गई है। इस मामले में अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी इलाहाबाद हाईकोर्ट गई और तमाम पुख्ता साक्ष्य पेश किए। अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी ने हाईकोर्ट में कलेक्ट्री अभिगार का प्रामाणिक नक्शा भी दाखिल किया है। साथ ही इस बात का भी हवाला दिया गया है कि विश्वनाथ मंदिर में स्थापित नंदी को नेपाल नरेश ने साल 1860 में काशी विश्वनाथ मंदिर को भेंट किया था। साल 2022 तक इस मामले में बहस और सुनवाई पूरी हो चुकी है, लेकिन एक साल बीत जाने के बावजूद आज तक हाईकोर्ट का फैसला नहीं आया है।

ज्ञानवापी प्रकरण में मुस्लिम पक्ष की ओर से अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी और सुन्नी सेंट्रल बोर्ड समेत कुल आठ वादी हैं। ज्ञानवापी मस्जिद की देखरेख करने के लिए साल 1922 में अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी बनाई गई थी, जिसके संयुक्त सचिव मोहम्मद सैयद यासीन हैं। मुस्लिम समुदाय के लोगों ने साल 1989 में उन्हें संस्था का संयुक्त सचिव नियुक्त किया था। मौजूदा समय में वही ज्ञानवापी मस्जिद के रख-रखाव का काम देख रहे हैं। वह कहते हैं, ''नमाजियों की सुविधा के लिए 1937 के बाद वजूखाना बनाया गया। बाद में उसमें पलने वाली मछलियों को जिंदा रखने के लिए फव्वारा लगाया गया। फव्वारे को बनाने के लिए चूना, सुर्खी, बरी और सीमेंट का इस्तेमाल किया गया। पिछले साल हुए वकील सर्वे में यह बात सामने आई थी कि फव्वारे के हौज की गहराई करीब चार फीट के आसपास है। इसमें एक थाला बनाया गया था, जिसमें फव्वारे को रखा गया था। फव्वारा करीब तीन फीट का है और उसकी गहराई करीब साढ़े तीन फीट है। यह भी बरी, सुर्खी और चूने से बना है। फव्वारे के नीचे के हिस्से को ईंट से जोड़ा गया है जो ठोस है। चूना-सूर्खी से एक गोल आकृति बनाकर उसके बीचो-बीच ड्रिल किया गया। जिससे पानी का फ्लो ऊपर की ओर आए। फाउंटेन के सबसे ऊपर बोतल के आकार की एक आकृति थी, जिसे दो साल पहले निकालकर अलग कर दिया गया था, जिससे वहां पर पांच खाने वाले निशान दिखते हैं।"

क्या कहता है हिन्दू पक्ष

हिन्दू पक्ष के अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन का दावा है कि गुंबद के नीचे मंदिर के शिखर हैं। ऐसे में समूचे परिसर की पुरातत्व विभाग से सर्वे जरूरी है। जैन कहते हैं, "शिवलिंग के ऊपर पांच खांचे बने हैं। हमें लगता है कि शिवलिंग के साथ छेड़छाड़ की गई है। शिवलिंग के नीचे क्या है, उसकी जांच-पड़ताल जरूरी है। हम 38 साल से ज्ञानवापी की मुक्ति के लिए लड़ रहे हैं। अब हम जीतने के करीब आ गए हैं। लगता है कि सच्चाई सामने आएगी और बाबा अब मुक्त हो जाएंगे। हम यही चाहते हैं कि सर्वे के बाद अगर नीचे चीजें मिलती हैं तो खुदाई का आदेश जारी किया जाए और वहां बाबा आदि विश्वेश्वर का भव्य मंदिर बनाया जाए। सर्वे नॉन डिस्ट्रक्टिव मेथड से डेटिंग कराई जाए और शिवलिंग को तोड़ा न जाए।"

अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी के संयुक्त सचिव सैयद यासीन से "न्यूजक्लिक" ने बात की तो उन्होंने कहा, " साल 1937 के सिविल कोर्ट के फैसले में वजूखाना और उसके अंदर किसी ठोस आकृति के मिलने का कोई जिक्र नहीं है। कोर्ट ने अपने फैसले में लिखा कि ज्ञानवापी मस्जिद ऊपर से लेकर नीचे तक मुस्लिम वक्फ की प्रॉपर्टी है, जहां मुस्लिम समुदाय को नमाज पढ़ने और उर्स मनाने का हक है। जिस स्ट्रक्चर के साइंटफिक सर्वे मांग उठाई जा रही है वह एक फाउंटेन है। दुनिया जानती है कि जहां वुजूखाना होता है, उसके पानी में मछलियां होती हैं। पानी स्थिर रहने से मछलियों के जिंदा रहने की संभावना कम होती है और पानी भी गंदा हो जाता है। इसलिए, पानी में फ्लो के लिए एक फाउंटेन बनाया गया। अधिवक्ता सर्वे के दौरान संरचना के बीच सुराख में लोहे की एक तीली डाली गई तो उसके अंदर करीब 64 सेंटीमीटर का छेद पाया गया। गौर करने की बात यह है कि फव्वारे में छेद होता है, शिवलिंग में नहीं।"

"ज्ञानवापी मस्जिद के ठीक पश्चिम में दो कब्रें हैं जहां पहले हर साल सालाना उर्स होता था। साल 1937 में कोर्ट के फैसले के बाद वहां उर्स की इजाजत दी गई थी। मस्जिद परिसर में पुरानी कब्रें आज भी उसी जगह पर हैं, लेकिन अब वहां उर्स नहीं होता है। इस मस्जिद में 1947 से नहीं, बल्कि जब यह बनी है तब से यहां नमाज पढ़ी जा रही है। साल 1991 का जो पूजा स्थल कानून कहता है कि 15 अगस्त 1947 में मंदिरों और मस्जिदों की जो पोजीशन थी, वो वैसे का वैसे ही रहेगा। उन्हें कोई हिला भी नहीं सकता है। साल 1936 में मस्जिद पर दायर एक मुकदमे पर 1937 में फैसला सुनाया गया था। इसमें अदालत ने माना था कि ज्ञानवापी नीचे से ऊपर तक मस्जिद है और ये वक्फ प्रॉपर्टी है। बाद में इस फैसले को हाईकोर्ट ने भी सही ठहराया था।"

वक्फ बोर्ड की प्रॉपर्टी है ज्ञानवापी

संयुक्त सचिव यासीन यह भी कहते हैं, "साल 1937 में सिविल कोर्ट ने यह मान लिया था कि ज्ञानवापी वक्फ बोर्ड की प्रॉपर्टी है। यूपी सरकार की ओर से एक दशक पहले ज्ञानवापी मस्जिद के मामले में कोर्ट में जो हलफनामा पेश किया था, उसमें भी वजूखे का कोई जिक्र नहीं था। ऐसे में इस धार्मिक स्थल को लेकर बितंडा खड़ा किया जाना ठीक नहीं है। ज्ञानवापी पर अपना हक जताने वालों को यह समझना चाहिए कि साल 1937 में सिविल जज ने किसी के दबाव में फैसला नहीं सुनाया था। बनारस के जिला जज आखिर कितनों की आपत्तियां स्वीकाते रहेंगे? ज्ञानवापी के गोल गुंबद के नीचे मंदिर के शिखर होने की बात कही जा रही है। जबकि, तीनों गोल गुंबद डबल लेयर की दीवार के सहारे खड़े हैं। उन्हें मालूम नहीं है कि मस्जिदों में जो मीनार या गुंबद होता है। वह एक लेयर होगा तो गिर जाएगा।"

बीएचयू के कला इतिहासविद महेश प्रसाद अहिरवार अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी के दावे पर सहमति व्यक्त करते हैं। वह कहते हैं, "मुगलकाल में बनी इमारतों में बने फव्वारों में गुरुत्वाकर्षण और हाइड्रालॉजिकल सिस्टम का इस्तेमाल किया जाता था, जिसमें जल संसाधनों के इस्तेमाल में सुविधा, घटना और पूरी प्रक्रिया को रखा जाता है। इसमें पानी के फ्लो प्रोसेस, भूमि उपयोग, भूमि कवर, मिट्टी, वर्षा और वाष्पीकरण जैसे घटक पर ध्यान दिया जाता है। इसी तर्ज पर हुमायूं का मक़बरा बना है और इसी तर्ज पर कश्मीर के बगीचे बने हैं और उसमें फव्वारे का खूब इस्तेमाल हुआ है। लाल किले में नहर-ए-बहिश्त हुआ करती थी, जो पूरे लाल किले में बहती थी और इसमें जगह-जगह फव्वारे लगे थे। इसके लिए पानी यमुना से खींचा जाता था और नहर-ए-बहिश्त से वह फव्वारे तक पहुंचता था। जामा मस्जिद में हौज़ (तालाब) तक पानी लाने के लिए रहट का कुआं था और वह आज भी मौजूद है।"

अहिरवार कहते हैं, "ज्ञानवापी मस्जिद को अब सत्ता पर काबिज होने की चाबी मान लिया गया है। शायद यही वजह है कि विवादित आकृति के सांइटिफिक जांच की मांग सिर्फ इसलिए उठाई जा रही है। ऐसा देखा गया है कि सरकारी नुमाइंदे पहले भी सत्ता के दबाव में निर्णय देते आए हैं। साइंटिफिक जांच के बहाने किसी चीज की मनमाफिक व्याख्या आसानी से की जा सकती है। ज्ञानवापी मामले में वो ठोस संरचना को शिवलिंग बता दें तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। इतना जरूर होगा कि फर्जी जांच करने वालों की जुबान बंद रखने के लिए उन्हें कोई न कोई बड़ा तमगा अथवा पद जरूर मिल जाएगा। ज्ञानवापी मामले में दूध का दूध और पानी का पानी हो सकता है जब सरकार की नीयत साफ हो। सरकार सचमुच न्याय का साथ देना चाहती है तो उसे विदेशी वैज्ञानिकों और पुरातत्व व कलाविदों की मौजूदगी में गहन जांच-पड़ताल करनी चाहिए। सिर्फ झूठ और फरेब का ढोल पीटने का कोई मतलब नहीं है।"

हाईकोर्ट के फैसले पर रोक

ज्ञानवापी मस्जिद में मिली विवादित आकृति की कार्बन डेटिंग और साइंटिफिक सर्वे के आदेश पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए सुप्रीम न्यायालय ने कहा कि इस मामले में संभलकर चलने की जरूरत है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश की गहन जांच-पड़ताल करने की जरूरत है। इस ने 12 मई 2023 को ज्ञानवापी के वज़ूख़ाने में मिली विवादित आकृति की कॉर्बन डेटिंग और साइंटिफिक सर्वे का आदेश दिया था। साथ ही यह भी कहा था कि यह कैसे होगा, इस पर वाराणसी की जिला अदालत निर्णय लेगी। जिला अदालत की निगरानी में ही जांच और सर्वे किया जाएगा।

हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ मुस्लिम पक्ष ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की। ज्ञानवापी इंतजामिया मसाजिद कमेटी की ओर से जाने-माने अधिवक्ता हुजैफा अहमदी की याचिका पर चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और केवी विश्वनाथन की पीठ ने सुनवाई की। इस मामले में हिन्दू पक्ष ने पहले ही सर्वोच्च न्यायालय  में कैविएट दाखिल कर चुका था।

हिन्दू पक्ष की ओर से अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने सर्वोच्च न्यायालय में अपना पक्ष रखते हुए कहा कि एएसआई की रिपोर्ट को मंगाकर उस पर विचार किया जाए। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि हम उस रिपोर्ट को भी देखेंगे। इससे पहले हम हम परिस्थितियों को देखेंगे। इस मामले को बेहद सावधानी से हल करना होगा। मुस्लिम पक्ष के अधिवक्ता हुजैफा अहमदी ने सर्वोच्च न्यायालय के पीठ की तारीफ की और कहा कि वह असल स्थिति को समझ रहे हैं। सर्वोच्च न्यायलय अब इस मामले में सात अगस्त को सुनवाई करेगा। इस न्यायालय ने कहा है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा कार्बन डेटिंग के आदेश को अगली सुनवाई तक लागू नहीं किया जाएगा। कार्बन डेटिंग पर उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार को अपना जवाब दाखिल करना होगा। मुस्लिम पक्ष का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक ज्ञानवापी का वजूखाना सील है। ऐसे में वहां पर किसी तरह का साइंटिफिक सर्वे नहीं हो सकता।

इसे भी पढ़ें- ज्ञानवापी मामला : जानिए क्या होती है 'कार्बन डेटिंग' और क्यों हो रहा है इसका विरोध?

सत्ता की चाबी बनी ज्ञानवापी मस्जिद

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं,'' ज्ञानवापी मस्जिद को 14वीं सदी में जौनपुर के सुल्तानों ने बनवाया था। ये हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक था। जिस आकृति पर विवाद खड़ा किया जा रहा है उस तरह की संरचना देश के कई पुरानी इमारतों में आज भी मौजूद है। चाहे दिल्ली के लाल किले में चले जाइए या फिर आगरा के ताजमहल। वहां मस्जिदों में वजू के लिए हौज बनाया गया है। गर्मी के दिनों में हौज में भरा पानी गर्म हो जाया करता था। इसलिए वजू स्थल पर फव्‍वारा लगाने की परंपरा शुरू हुई, ताकि हौज का पानी ठंडा रहे। ज्ञानवापी परिसर में जो फव्वारा मिला है,  वो पानी को ठंडा करने के लिए ही लगाया गया था।"

ज्ञानवापी कूप पर उठाए जा रहे सवाल के बाबत पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, "ज्ञानवापी मस्जिद के पास स्थित कूप की गहराई 30 से 40 फीट की है। कुछ साल पहले इसकी सफाई कराई गई थी, जिसमें कचरे के सिवा कुछ नहीं निकला था। कुएं के नीचे आज भी जेट पंप फिट है। यह कुआं अब कॉरिडोर का हिस्सा है, जो मंदिर परिसर में है। वजू वाली हौज में इसी कुएं से पानी आता था, जिस हौज के फव्वारे को शिवलिंग बताया जा रहा है। मस्जिद में मंदिर जैसी नक्काशी के आधार पर मुस्लिम समुदाय के दावे को गलत बताने की कोशिश की जा रही है। कोरा सच यह है कि मस्जिद के पीछे वाली दीवार पर जो अवशेष हैं वो अकबर ने साल 1585 के आस-पास नए मजहब 'दीन-ए-इलाही' के तहत बनवाए थे। इसके बाद औरंगजेब ने इस मस्जिद का नए सिरे से जीर्णोद्धार और सुंदरीकरण कराया था।"

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अजय राय कहते हैं,  "ज्ञानवापी के रास्ते सत्ता पर काबिज होने के लिए खेल शुरू हो गया है। आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर नए सिरे से इस मामले को हवा दी जा रही है। बीजेपी और आरएसएस ने एक मंदिर का माडल बनवाया है। दावा किया जा रहा है कि सत्ता में आने के बाद ज्ञानवापी की जगह वैसा ही मंदिर बनाया जाएगा। मंदिर के प्रस्तावित माडल को 17 मई 2023 को लांच किया गया। बताया जा रहा है कि बीजेपी ने जून 2023 से देश भर में उस माडल को घुमाने की योजना बनाई है। मुस्लिम पक्ष यह मानकर चल रहा था कि बाबरी मस्जिद के फैसले के बाद इस तरह के विवाद नहीं उठाए जाएंगे, लेकिन सियासी मुनाफा कमाने के लिए पूजा कानून को तार-तार कर दिया गया। वह पूजा कानून जिसे साल 1991 में सिर्फ बनाया गया था, ताकि अयोध्या की तरह कोई दूसरा मुद्दा न उछाला जा सके। बीजेपी ने ज्ञानवापी मुद्दे को वोटबैंक की चाबी मान लिया है। बाबरी मस्जिद की तर्ज पर ज्ञानवापी का मुद्दा उछाला जा रहा है। अयोध्या जैसी कहानी इसलिए दुहराई जा रही है, क्योंकि अपने देश में न्याय पर अब आस्था भारी पड़ने लगी है।"

(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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