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अर्थशास्त्र और बेईमानी: प्रभात पटनायक

अर्थशास्त्र के नाम पर बेईमानी, इस नवउदारवादी दौर की ख़ास पहचान है, जो अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए, ऐसे अर्थशास्त्रियों की फ़ौज का इस्तेमाल करता है, जो किसी भी तरह से निष्पक्ष नहीं हैं।
prabhat patnaik

अर्थशास्त्र एक ऐसा विषय है जिसमें सत्ताधारी वर्ग हमेशा ही वैज्ञानिक व्याख्याओं की जगह विचारधारा-प्रेरित सफाइयों को आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं। बेशक, इन विचारधारा-प्रेरित सफाइयों को किसी वैकल्पिक अवैज्ञानिक सैद्धांतिक व्यवस्था की समग्रता का हिस्सा भी बनाया जा सकता है और बनाया भी गया है।

मार्क्स ने ऐसी ही समग्रता को शास्त्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्र के बरक्स, ‘भोंडा अर्थशास्त्र’ या वल्गर इकॉनामी का नाम दिया था।

फिर भी, इस तरह का भोंडा अर्थशास्त्र भी अपने ही भोंडे तरीके से ही सही, सामने देखने को मिल रही परिघटना से व्यवस्थित तरीके से दो-चार होने की कोशिश तो करता ही है। इससे भी कई गुना बदतरीन स्थिति तब होती है जब सामने उपस्थित परिघटना को न सिर्फ विचारधारा-प्रेरित तरीके से व्याख्यायित करने की कोशिश की जाती है बल्कि यह भी निरंतरता के साथ या समान तरीके से करने की जगह, अवसरवादी तरीके से किया जाता है।

यही वह जगह है जहां पहुंचकर कर अर्थशास्त्र सिर्फ भोंडा नहीं रह जाता है बल्कि वहां से भी गिरकर ‘बेईमान’ अर्थशास्त्र बन जाता है। और अर्थशास्त्र की ठीक ऐसी ही गिरावट, नवउदारवादी दौर के अर्थशास्त्र की खास पहचान है। मैं खुद को इसके तीन उदाहरण देने तक ही सीमित रखूंगा।

नवउदारवादी दौर में बढ़ती गयी ग़रीबी

मेरा पहला उदाहरण, गरीबी के संबंध में है। 1973-74 में भारत के योजना आयोग ने गरीबी की परिभाषा तय की थी--ग्रामीण भारत के लिए 2400 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन हासिल करने में असमर्थता (हालांकि, व्यवहार में उसने कहीं कम, 2200 कैलोरी के मानक को ही लागू किया था) और शहरी भारत के लिए, 2100 कैलोरी प्रतिव्यक्ति, प्रतिदिन। हम चाहें तो इन खास संख्याओं से असहमत हो सकते हैं, फिर भी उन्होंने कम से कम एक वस्तुगत मानक तय किया था, जिसको राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के पांच वर्षीय वृहद नमूना सर्वेक्षणों पर लागू कर के, गरीबी अनुपात के रुझानों का आकलन किया जा सकता था। और यह गरीबी अनुपात नवउदारवादी दौर में 2011-12 तक और यहां तक कि 2017-18 तक भी, जिसकी जानकारियां लीक होकर ही कुछ हद तक ही सामने आयी थीं क्योंकि इसके आंकड़ों को सरकार ने दबा ही दिया था, निर्बाद रूप से हमारे देश में गरीबी में बढ़ोतरी को ही दिखाता है। यह नवउदारवाद का ऐसा पूरा दौर ही हो जाता है, जिसके लिए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़े उपलब्ध हैं।

लेकिन, गरीबी अनुपात के शुरुआती आकलन के बाद, योजना आयोग ने गरीबी की एक वैकल्पिक परिभाषा को पकड़ लिया। कैलोरी आहार का जो मानक तैयार किया गया था, उसके साथ आधार वर्ष के लिए प्रतिव्यक्ति खर्च के स्तर के माप भी थे, जिन्हें ग्रामीण व शहरी भारत के लिए गरीबी की रेखाएं कहा जा रहा था। अब आधार वर्ष की इन गरीबी की रेखाओं को, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का सहारा लेकर, बाद के वर्षों के लिए अपडेट किया जाना शुरू हो गया। इस तरह, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के सहारे, बाद में वर्ष दर वर्ष गरीबी की नयी रेखाएं तय की जातीं और इन नयी रेखाओं से नीचे छूटने वालों को ही ‘‘गरीब’’ माना जाता, जबकि हरेक अपडेटेड गरीबी रेखा से जुड़ा कैलोरी आहार स्तर, वास्तव में लगातार नीचे से नीचे ही खिसकता जा रहा था। दूसरे शब्दों में, लोगों के कैलोरी आहार का स्तर नीचे खिसकने के बावजूद, उन्हें गरीबी से उबर आया माना जा रहा था।

तमाम आलोचनाओं के बावजूद, इस तरीके को जारी रखा गया, जिसमें गरीबी के माप के लिए सिर्फ उपभोक्ता मूल्य सूचकांकों का ही सहारा लिया जा रहा था और इसकी कोई परवाह ही नहीं की जा रही थी कि वास्तव में अपडेटेड गरीबी रेखाएं, हर बार कैलोरी आहार में गिरावट दिखाती थीं।

फिर भी दावे ग़रीबी घटने के

साफ तौर पर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आंकड़े, जीवनयापन खर्च में वास्तविक बढ़ोतरी को घटाकर आंक रहे थे। गरीबी के माप की पद्धति में इस बदलाव का, जिस पर विश्व बैंक के अनुमोदन की मोहर लगी हुई थी और जो नवउदारवाद की एक रंगी-चुनी तस्वीर पेश करता था, कुल नतीजा वह बेतुकी स्थिति है, जो आज हमारे सामने मौजूद है। भारत विश्व भूख सूचकांक पर तो करीब 120 देशों में, जिनके लिए यह सूचकांक निकाला जाता है, 107 वें स्थान पर बना हुआ है, और महामारी से पहले के वर्षों में भी वह 100वें स्थान के आस-पास ही बना रहा था, लेकिन दूसरी ओर इसके दावे किए जा रहे हैं कि भारत ने अपने गरीबी अनुपात में बहुत भारी कमी कर ली है। उसका गरीबी अनुपात, 1973-74 में ग्रामीण इलाकों में 56.4 फीसद था, जो 2011-12 तक घटकर 25.7 फीसद ही रह गया था और शहरी इलाकों में 49 फीसद से घटकर सिर्फ 13.7 फीसद। और इससे आगे भी गरीबी में कमी का यह रुझान जारी ही है!

इसके पक्ष में सरकारी अर्थशास्त्री यह दलील देते थे कि जैसे-जैसे लोग खुशहाल होते हैं, वह खाद्यान्न उपभोग से तथा इसलिए सिर्फ आहार की कैलोरियों से हटते जाते हैं और उसके बदले में स्वास्थ्य, अपने बच्चों की शिक्षा आदि पर, ज्यादा खर्च करने लगते हैं। इसलिए, कैलोरी आहार का घटना वास्तव में लोगों के जीवनस्तर के ऊपर उठने का संकेतक है न कि नीचे गिरने का। बेशक, यह दावा पूरी तरह से अनुभव के खिलाफ ही जाता था। देश के अंदर भी और देशों के बीच भी, सभी स्तरों पर यही देखने को मिलता है कि प्रतिव्यक्ति वास्तविक आय में बढ़ोतरी के साथ, प्रतिव्यक्ति कैलोरी आहार अपरिहार्य रूप से बढ़ता ही है। बहरहाल, फिलहाल हम इस तथ्य को अनदेखा ही किए देते हैं।

अंत में बेईमानी का सहारा

नुक्ते की बात यह है कि 2009-10 में जब राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के वृहद नमूना सर्वेक्षण ने सरकारी अनुमान के हिसाब से भी, 2004-05 की तुलना में, ग्रामीण गरीबी अनुपात में बढ़ोतरी ही दिखाई और 2004-05 के 28.5 फीसद से बढक़र, 2009-10 में ग्रामीण गरीबी के 33.8 फीसद हो जाने के साक्ष्य सामने आये (कैलोरी आहार के मानदंड के हिसाब से तो ग्रामीण गरीबी का आंकड़ा 69.5 फीसद से बढ़कर 75.5 फीसद हो गया था), सरकार ने पूरी तरह से नये सिरे से वृहद नमूना सर्वेक्षण कराने के आदेश दे दिए। इसके लिए आधार यह बताया गया कि 2009-10 तो सूखे वाला वर्ष था। इस तरह, 2011-12 में, जो कि अच्छी फसल का साल था, नये सिरे से उक्त सर्वे किया गया।

लेकिन, विडंबना यह थी कि 2009-10 खुद कोई आर्थिक वृद्धि के लिहाज से खराब साल नहीं था। इस वर्ष में फैक्टर कॉस्ट पर सकल मूल्य संवद्रन में 8.6 फीसद की बढ़ोतरी हुई थी और ‘कृषि तथा संबद्ध गतिविधियों’ के क्षेत्र में 1.5 फीसद बढ़ोतरी दर्ज हुई थी!

बहरहाल, नये सिरे से सर्वे के आदेश देने में सरकार ने निहितार्थत: इस दलील को स्वीकार कर लिया था कि आय घटती है, तो कैलोरी आहार भी घट जाता है, जबकि इससे पहले हमेशा सरकार इससे उल्टा ही रुख अपनाती आयी थी, जिसे सरकारी अर्थशास्त्री स्वर देते आ रहे थे कि आय बढ़ती है तो कैलोरी आहार घट जाता है। लेकिन, इन दो साफ तौर पर परस्परविरोधी रुखों के बीच कोई संगति बैठाने की कोई कोशिश भी नहीं की गयी। अपनी सहूलियत के हिसाब से अलग-अलग मौकों पर इस तरह परस्परविरोधी रुख के अवसरवादी तरीके से अपना लिए जाने में ही, अर्थशास्त्र की नवउदारवादी दौर की बेईमानी निहित है।

कृषि सब्सिडी में बेईमानीपूर्ण भेद

बेईमानी की मेरी ऐसी ही दूसरी मिसाल का संबंध विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) से है। विश्व व्यापार संगठन, खेतिहरों को सरकारों द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी में ‘बाजार में विकृति लाने वाली’ और ‘बाजार में विकृति न लाने वाली’ सब्सिडी का भेद करता है। अमेरिका तथा यूरोपीय यूनियन आदि विकसित देशों में, किसानों के लिए प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरणों को बाजार में विकृति न लाने वाले माना जाता है और इसलिए विश्व व्यापार संगठन द्वारा बिना किसी सवाल के उनके लिए मंजूरी दे दी जाती है। लेकिन, भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में दी जाने वाली सब्सीडियों को, जो मूल्य-समर्थन तथा लागत सामग्री मूल्य सब्सिडी के रूप में दी जाती हैं, बाजार में विकृति पैदा करने वाला माना जाता है और इसलिए विश्व व्यापार संगठन उन पर अपने द्वारा निर्धारित सीमा लागू करता है। इस तरह, अमेरिका जब अपने मुट्ठीभर एग्रीकल्चरिस्टों को हर साल करीब 100 अरब डालर की सालाना नकद सब्सिडी देता है, विश्व व्यापार संगठन को इस पर कोई आपत्ति नहीं होती है। लेकिन, भारत की सरकारी खरीदी मूल्य की व्यवस्था पर वह बराबर सवाल उठाता है, जबकि यह न सिर्फ किसानी खेती को वहनीयता मुहैया कराने के लिए इतनी आवश्यक है बल्कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बनाए रखने के लिए भी आवश्यक है।

इस तरह का भेद किए जाने का कारण यह बताया जाता है कि मूल्य-व्यवस्था को प्रभावित करने के जरिए खेती को सब्सिडी दिया जाना, बाजार संतुलन की स्थिति को और इसलिए उत्पाद के स्तर को भी प्रभावित करता है, जबकि प्रत्यक्ष नकद सब्सिडी देने का बाजार संतुलन की स्थिति पर असर नहीं पड़ता है। चूंकि बाजार संतुलन में अर्थव्यवस्था में संसाधनों का उपयुक्ततम वितरण निहित बताया जाता है, नकद हस्तांतरण के रूप में सरकार के सहायता देने को ही श्रेयस्कर माना जाता है क्योंकि इससे बाजार संतुलन नहीं बिगड़ता है और उत्पाद बाजार के तकाजों से आगे नहीं निकलता है।

लेकिन, यह भेद पूरी तरह से बेईमानी भरा है। अव्वल तो सैद्धांतिक रूप से भी यह भेद नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा भी, प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरणों का भी उत्पादन के स्तर पर असर पड़ता है। यह एक जानी-मानी बात है कि कई वर्षों में अमेरिका में गेहूं तथा कपास जैसी कुछ फसलों ने, ऋणात्मक मूल्य संवर्द्धन दर्ज कराया था यानी उत्पादन में लग रही भौतिक सामग्री का मूल्य, फसल के उत्पाद के मूल्य से ज्यादा रहा था। ऐसे हालात में बाजार संतुलन का तकाजा तो शून्य उत्पाद का होना चाहिए। इसके बावजूद, वहां उत्पाद के धनात्मक रहने का यही अर्थ था कि यह उत्पादन सिर्फ इसीलिए हो रहा था कि प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण के जरिए, एग्रीकल्चरिस्टों के लिए उत्पादन को वहनीयता मुहैया करायी जा रही थी। इसलिए, यह दलील पूरी तरह से निराधार है कि प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण, बाजार के संतुलन को प्रभावित नहीं करते हैं। जाहिर है कि उत्पाद पर उनका असर पड़ता है। विश्व व्यापार संगठन की तरह यह स्वांग करना कि ऐसा नहीं है, न सिर्फ गलत है बल्कि अवसरवादी भी है। इसका मकसद तो यही है कि विकसित देशों के हितों को आगे बढ़ाया जाए और इसके लिए उनकी कृषि सब्सिडी की ओर से तो आंखें मूंद जी जाएं, जबकि भारत जैसे देशों द्वारा दी जाने वाली कृषि सब्सिडी के खिलाफ सख्ती बरती जाए।

खाद्यान्न उत्पादन से हटने से खुशहाली का झूठ

मेरा तीसरा उदाहरण, भारत सरकार की कृषि नीति से जुड़ा हुआ है। खाद्यान्नों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को खत्म करने के पक्ष में काफी अर्से से यह दलील दी जाती रही है कि इस तरह की व्यवस्था किसानों को, अन्य ज्यादा आकर्षक फसलों की ओर बढऩे की जगह पर, खाद्यान्न ही पैदा करते रहने के लिए प्रोत्साहित करती है।

भारत जैसे देश में, जो तीव्र भूख की गिरफ्त में है, खाद्यान्न उत्पादन से हटकर दूसरी फसलों की ओर जाने का तकाजा करना, जाहिर है कि अपने आप में ही बेतुका है।

अगर खाद्यान्न की पर्याप्त मांग ही नहीं आ रही है तथा इसके चलते सरकार के पास खाद्यान्न के भंडार जमा होते जा रहे हैं, तो इसका समाधान यह नहीं है कि खाद्यान्न उत्पादन में ही कमी कर दी जाए बल्कि जनता के हाथों में क्रय शक्ति बढ़ायी जानी चाहिए ताकि लोग पर्याप्त खाद्यान्न खरीद सकें। बहरहाल, हम फिलहाल इसे भी अनदेखा कर देते हैं।

अगर किसान, खाद्यान्न उत्पादन छोड़कर गैर-खाद्यान्न उत्पादन पर चले जाते हैं, तब भी फौरी तौर पर भले ही उन्हें गैर-खाद्यान्न उत्पादन के ज्यादा लाभकर होने का लाभ मिल जाए, इन बाद वाले उत्पादों की कीमतें जब बैठेंगी तो वे फिर घाटे में आ जाएंगे। हां! अगर इन बाद वाली फसलों के लिए भी न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था की जा रही हो तो बात दूसरी है।

दूसरे शब्दों में, खाद्यान्न से गैर-खाद्यान्न फसलों की ओर जाने के पक्ष में दलील, न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था के पक्ष में दलील से पूरी तरह से भिन्न है।

अगर सरकार चाहती है कि किसान खाद्यान्न से हटकर दूसरी फसलों की ओर जाएं, तो इसका समाधान यह है कि उन गैर-खाद्यान्न फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था खड़ी की जाए और इसके बाद न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को इस तरह से संचालित किया जाए कि यह खाद्यान्न से गैर-खाद्यान्न फसलों की दिशा में संक्रमण को प्रोत्साहित करे।

खाद्यान्नों से गैर-खाद्यान्न फसलों की ओर किसानों को ले जाने के लिए, खाद्यान्नों के लिए पहले से उपलब्ध न्यूनतम समर्थन मूल्य का भी खत्म किया जाना, यह संक्रमण लाने का सही तरीका नहीं है। लेकिन, यह तरीका सिर्फ गलत ही नहीं है, यह अवसरवादी भी है। इस तरह तो किसानों के लिए समर्थन मूल्य की व्यवस्था को ही खत्म करने के विश्व व्यापार संगठन के एजेंडा को ही आगे बढ़ाया जा रहा होगा। और यह किया जा रहा होगा इस पूरी तरह से तथा जान-बूझकर झूठ बोलने पर आधारित दलील के जरिए कि इस तरह का मूल्य समर्थन खत्म किए जाने से, किसानों को फायदा होगा। सचाई यह है कि अगर फौरी तौर पर किसानों को फायदा भी होता हो तो भी, वे आगे चलकर नुकसान उठाने के और गंभीर जोखिम की मार में आ जाएंगे।

अर्थशास्त्र के नाम पर बेईमानी, इस नवउदारवादी दौर की खास पहचान है, जो अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए, ऐसे अर्थशास्त्रियों की फौज का इस्तेमाल करता है, जो किसी भी तरह से निष्पक्ष नहीं हैं।

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और राजनीतिक टिप्पणीकार हैं।)

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